Monday, April 14, 2008

आधे सफर की अधूरी कहानी

सुरेंद्रप्रताप सिंह की यादें (10वीं पुण्यतिथि)
- दीपक चौरसिया
दोपहर का वक्त था। जून की तपती दोपहरी में मैं छुट्टी पर अपने गृहनगर सेंधवा में, जो कि मध्यप्रदेश में महाराष्ट्र की बार्डर पर है, 'नईदुनिया' के पन्ने पलट रहा था। तभी एकाएक फोन की घंटी बजी। फोन मैंने उठाया। फोन एनडीटीवी से था। मेरी दोस्त माया मीरचंदानी लाइन पर थीं। उन्होंने मुझसे कहा 'एसपी' (प्यार से सब उन्हें यही कहा करते थे) बहुत बीमार हैं, अपोलो में भर्ती हैं। मुझे विश्वास नहीं हुआ। फोन पर दूसरी तरफ मुझे फिर आवाज सुनाई दी मेरी होने वाली पत्नी अनुसूइया थी। 'दीपक मैं तुम्हे बताना चाहती थी, लेकिन पता नहीं तुम कैसे रिएक्ट करोगे।' मैं कुछ नहीं बोल पाया, फोन रख दिया।पहली बस और इंदौर की ओर मैं रवाना हो गया, लेकिन 'एसपी बॉस' के साथ बिताया हर एक लम्हा याद आने लगा। 'इंदौर होलकर साइंस कॉलेज थ्रू आउट फर्स्ट क्लास फर्स्ट' अरे कोई अच्छी नौकरी करो, क्यों झोलाछाप हिन्दी पत्रकारिता में आना चाहते हो। इंदौर से पहली बार जब इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मॉस कम्युनिकेशन का इंटरव्यू देने गया तो बोर्ड में वही थे। मेरा जवाब था 'मुझे लगता है मेरे जैसे लोगों के लिए आगे की पत्रकारिता में जगह होगी।' इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मॉस कम्युनिकेशन से निकलने के बाद पहली नौकरी दिल्ली की इंडियन न्यूज पेपर सोसाइटी की बि‍ल्डिंग में लगी। 'बॉस' उस वक्त टेलीग्राफ के राजनीतिक संपादक थे। हफ्ते में दो-तीन भेंट होती थी। पूरी रिपोर्ट लेते थे। बीजेपी ब्रीफिंग में क्या हुआ? कांग्रेस में क्या हुआ? 'नईदुनिया' से भी 'बॉस' का नाता लंबा था। बिला नागा वे क्षेत्रीय अखबार दो घंटे पढ़ते थे। नईदुनिया इकलौता अखबार था जिसे शायद ही मिस करते। एक बार का वाकया मुझे अच्छी तरह याद है।
जो एक बात वे गाँठ बाँधकर रखने को कहते थे कि कभी एकतरफा स्टोरी मत करो, दोनों पक्षों का होना बेहद जरूरी है। घंटों की मेहनत से लिखी स्क्रिप्ट को वे पाँच मिनट से कम में इतना छोटा और बेहतर कर देते कि कभी-कभी लगता कि उनकी कलम या फिर सरस्वती का वरदान।
हमारी एक सहयोगी सिक्ता देव के पिता मध्यप्रदेश केडर के आईपीएस अधिकारी थे। उस दिन सुबह उन्होंने सिक्ता को बताया कि तुम्हारे पिता की नई पोस्टिंग हो गई है। यही खबर मैं सिक्ता को दे चुका था। उन्होंने सिक्ता से पूछा तुम्हें पता था, तुम्हें किसने बताया। उसने मेरा नाम लिया। 'बॉस' मुस्कुराए। बाद में मुझे बुलाया और कहा कि अगर सरकार में क्या हो रहा है, इस पर नजर रखनी है तो पहली बात गाँठ बाँध लो नौकरशाही के मूवमेंट को बहुत बारीकी से वॉच करो। उन्हीं के मार्गदर्शन ने सिखाया कि इस देश में तीन लोगों की चलती है पीएम, सीएम और डीएम। वे सचमुच के 'बॉस' थे। कितनी भी बड़ी गलती कर दो, उन्हें बता दो एक सीख मिलती। लेकिन कभी मूड नहीं बिगड़ता। मैंने एक बार राष्ट्रपति भवन में खेल पुरस्कार लेने वालों की स्टोरी में एक ऐसे खिलाड़ी का नाम डाल दिया जो वहाँ मौजूद नहीं था। रात भर सो नहीं पाया। सुबह उठा। बिना नहाए धोए सबसे पहले जाकर उन्हें बताया। सीख मिली। बंदूक से निकली गोली और लाइव टीवी में मुँह से निकला शब्द कभी वापस नहीं आता। जाओ आज का काम करो। उन शब्दों में डाँट भी थी, नसीहत भी, प्यार भी और प्रोटेक्शन भी। यही उनकी महानता थी। जो एक बात वे गाँठ बाँधकर रखने को कहते थे कि कभी एकतरफा स्टोरी मत करो, दोनों पक्षों का होना बेहद जरूरी है। घंटों की मेहनत से लिखी स्क्रिप्ट को वे पाँच मिनट से कम में इतना छोटा और बेहतर कर देते कि कभी-कभी लगता कि उनकी कलम या फिर सरस्वती का वरदान। एक बार मैं समाज कल्याण मंत्रालय की कुछ योजनाओं पर एक क्रिटिकल विश्लेषण कर रहा था। सीताराम केसरीजी उस विभाग के मंत्री थे। 'बॉस' के बेहद नजदीकी जानने वाले। एक स्टेटमेंट के लिए दिनभर वे मुझे दौड़ाते रहे। शाम को थक-हारकर मैं 'बॉस' के पास पहुँचा। उन्होंने 'केसरीजी' से बात की, शायद वे स्टोरी नहीं चलाने देना चाहते थे। जब वे फोन पर बात कर रहे थे, तब उनके चेहरे पर आते-जाते भाव मुझे अब भी याद हैं।उन्होंने कहा- स्टोरी चलाओ यह कहो कि मंत्रीजी ने प्रतिक्रिया देने से मना कर दिया। जाते-जाते उन्होंने मुझसे कहा 'घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या?' शायद पत्रकार और नेता के रिश्तों के बावजूद पत्रकार की कलम पर ब्रेक न लगाना उनके आदर्शों की कहानी बयाँ करता है। सोचता हूँ आज एसपी होते तो क्या होता। हिन्दी टीवी पत्रकारिता का आयाम दूसरा होता। लेकिन आज भी जब वे ऊपर से देखते होंगे तो नकवी दादा, दिबांग पुगालिया, अलका सक्सेना, आशुतोष और अपनी पूरी टीम को टीवी पत्रकारिता पर राज करते देख फख्रमहसूस करते होंगे। (लेखक 'आज तक' के कार्यकारी संपादक हैं)

When Hindi became telegenic

YOGENDRA YADAV
Wednesday, June 27, 2007 at 0000 hrs
Hindi news TV would not have been where it is today, but for Surendra Pratap Singh or ‘SP’, who died ten years ago. But he would not have recognised what passes for Hindi TV news today
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I think of ‘SP’ every time I face the question: “Are you the same man that appears on Aaj Tak?” I continue to face this question hundreds of times, years after my formal association with Aaj Tak is over. Not surprising, for Aaj Tak was for Hindi television news what Surf was for detergents or Xerox for photocopiers.
I think of him whenever anyone’s Hindi credentials are mentioned with some respect in Delhi’s charmed circles. Not so long ago, it was not enough to know English; it was equally important not to know any other Indian language. Failing in Hindi was a mark of honour. Being at ease with a desi language defined you out of the monolingual English-speaking power elite. This power equation has altered a bit in the last decade or so. Your station in life is still determined by how well you speak English, but knowing Hindi is no more a disqualification.
If we can credit one person with this shift, it must be Surendra Pratap Singh. ‘SP’ launched Aaj Tak, initially as a half an hour news bulletin on Doordarshan, and took it to its iconic status. Today everyone knows that the viewership of all the English news channels put together is but a small proportion of the Hindi viewership. For every big media house, their Hindi channel is the real money spinner. It appears quite logical, if you compare the number of English and Hindi speakers. But only ten years ago it was not so obvious. Hindi media was a distant and very poor cousin to the all-powerful English media.
SP set out to change this by adopting a fresh and bold approach. He broke ranks with the many devotees, servants and fanatics of Hindi. Instead of worshipping Hindi, he worked with it. He worked out a simple yet crisp Hindi for television, distinct from the stuffy language of the print media, without giving in to the pressures of Hinglish. He recognised that Hindi was not an endangered species waiting to be rescued by the faithful. Unlike his contemporaries who had a contempt for or fear of the market, SP built on the huge market potential of Hindi — his confident Hindi did not need to be fanatic. He was perhaps the only Hindi journalist whose column was translated into English and carried by The Economic Times.
SP instilled professionalism in Hindi journalism. I was sitting by him when he received a call from a very powerful chief minister, complaining against an adverse personal report in the bulletin the day before. SP calmly replied that he was planning to use the story again that evening. And sure he did. When all of north India was celebrating Lord Ganesha’s milk drinking feat, SP got a scientist to explain surface tension in the evening bulletin. He dragged me into television, after reading my articles in the Economic and Political Weekly, for he thought Hindi media needed election experts.
Yet his professionalism was not apolitical. A man of deep political convictions and a political animal to the core, SP held his own against the communal wave that threatened to drown the Hindi media. Unabashedly pro-Mandal, he translated his conviction by recruiting and training a large number of non-upper caste Hindu journalists.
The day I heard about the sudden announcement of Pratibha Patil’s candidature, I surfed all the Hindi channels for more news about her. Her candidature was not important news for any of the prime-time bulletins. One leading channel had a special programme on how Rampur ka nawab was caught distributing sewing machines. There was a promo for a special programme on wife swapping. My mother shared my frustration: “ab to khabar ki channel par bhi khabar nahin dikhate”. I thought of SP once again and wondered if Hindi television would still show all this if he was still around?
The writer is a political scientist at CSDS, New Delhi

बात एसपी-डीएम की, न्यूज़ चैनलों की

अनिल
यहां एसपी का मतलब आजतक की शुरुआत करनेवाले सुरेद्र प्रताप सिंह से है और डीएम का मतलब आजतक से स्टार न्यूज़ होते हुए सीएनबीसी आवाज़ तक पहुंचे दिलीप मंडल से है जिनकी राय में, ‘ये कहना तथ्यों से परे है कि कभी पत्रकारिता का कोई स्वर्ण युग था या कि पहले कोई महान पत्रकारिता हुआ करती थी।’ वैसे, मंडल जी पर एसपी का प्रभाव इतना ज्यादा है कि उनकी वेशभूषा, चेहरे-मोहरे और हाव-भाव से एसपी की छाया-सी छलकती है। उनके लिखने से भी यह ज़ाहिर हो जाता है। तभी तो वे कहते हैं, ‘पुराने एसपी से नए जमाने के पत्रकार बहुत कुछ सीख सकते हैं। लेकिन एसपी जितने मॉडर्न थे, उस समय की पत्रकारिता उतनी मॉडर्न नहीं थी।’मंडल जी की यही बात मेरे गले नहीं उतरती। पेड़ बड़ा मॉडर्न था, जंगल उतना मॉडर्न नहीं था। जंगल से पेड़ अलग, पेड़ से जंगल अलग। हकीकत ये है कि आज हिंदी न्यूज़ चैनलों में जो भी अच्छाई या बुराई है, उसके बीज एसपी सिंह की कार्यशैली में ही छिपे हैं। वैसे भी, आज की हिंदी टेलिविजन पत्रकारिता में एसपी के ही तो चेले-चापड़ हर जगह विराजमान हैं।सच कहें तो एसपी आज एक कल्ट बन चुके हैं। समाचार चैनलों के संपादक उनके फोटो सजाते हैं। पाल, प्रकाश, प्रसाद, प्रताप जैसे मध्य नामों वाले खुद को एपी, एनपी, केपी, जीपी, सीपी जैसा कुछ कहलाना पसंद करते हैं। एसपी के पत्रकार भाई सत्येंद्र खुद को एसपी ही कहलवाते हैं। बहरहाल-हालांकि का फेंटा लगाने वाले ‘सर्वश्रेष्ठ’ चैनल के ‘सर्वश्रेष्ठ’ राजनीतिक एंकर डेस्क वालों पर रौब जमाते हैं कि एसपी होते तो ऐसी कॉपी उठाकर फेंक देते हैं। हर तरफ एसपी की तारीफों के पुल बांधे जाते हैं। अर्ध-पत्रकार समाज विश्लेषक भी, एसपी होते तो क्या होता, की बात सोचते-गुनते रहते हैं।मेरा एसपी के साथ कोई सीधा ताल्लुक नहीं रहा है। टाइम्स रिसर्च फाउंडेशन में क्रैश कोर्स के दौरान उन्होंने इंटरव्यू लिया था और क्रैश कोर्स बीच में छोड़ने पर उन्होंने रोका था। लेकिन रविवार से लेकर नवभारत टाइम्स और आजतक में उनके साथ काम करनेवाले कुछ लोगों ने जो मुझे बताया, उसके मुताबिक एसपी का टीम बनाने में कोई यकीन नहीं था। वे जब जिसे चाहा, चढ़ाते थे और उतनी ही निर्ममता से गिरा भी देते थे। टीम न बनने देने की उनकी फितरत उनके चेलों में निरंतर बह रही है।यही वजह है कि हमारे हिंदी चैनलों के संपादक गुट बनाने में उस्ताद है, जबकि टीम के बनते ही उनको अपनी अक्षुण्ण सत्ता के खंडित होने का डर सताने लगता है। फिर इन संपादकों के इर्दगिर्द बन जाता है बौद्धिक काहिली और शातिर दुनियादारी से ग्रस्त चालाक चेलों का मंडल, जिनको इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि नीचे के लोग क्या सोच रहे हैं, साथी पत्रकार क्या सोच रहे हैं, दर्शक क्या सोच रहे हैं। उनकी जवाबदेही सिर्फ ऊपरवालों की तरफ होती है। नीचे का कोई फीडबैक उनके लिए बेमानी होता है।ज़ाहिर है एसपी में इस तरह की खामियां नहीं रही होंगी। लेकिन खराब मशीन से निकली फोटोकॉपी में ओरिजनल की बस छाया भर होती है। हम ये भी जानते हैं कि इतिहास की छोटी-सी चूक वर्तमान तक आते-आते भयंकर भूल बन जाती है। एसपी के उत्तराधिकार का डंका बजानेवालों को ये बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए। अनुकृति के चक्कर में पड़ने के बजाय नई ज़मीन तलाशनी चाहिए। और, कुछ लोग ऐसा कर भी रहे हैं क्योंकि धरती कभी वीरों से सूनी नहीं होती।

ये प्रलाप क्यों ?

अशोक कुमार कौशिक
ये एसपी का नहीं टीआरपी का ज़माना हैवरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह यानी एसपी सिंह की पुन्यतिथी पर दो वरिष्ठ पत्रकारों के लेख अलग-अलग अखबारों में पढे। दोनों ही मौजूदा टीवी पत्रकारिता के दिग्गज। दोनों ही एसपी स्कूल ऑफ़ जर्न्लिस्म के स्नातक। दोनों ही लेखों में एक समान चिन्ता नज़र आई, वो ये टीवी पत्रकारिता अपने मूल्यों, सरोकारों और अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हट रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो ये टीवी पत्रकारिता के लिए नैतिक गिरावट का दौर है। अगर आज एसपी होते तो ये होता, एसपी होते तो वो होता। और एसपी होते तो ये नहीं होता, एसपी होते तो वो नहीं होता। लब्बोलुआब ये कि एसपी मौजूदा टीवी पत्रकारिता से कतई सन्तुष्ट नहीं होते। लेकिन दोनों लेख पढ़ने के बाद मेरे ज़हन में कुछ सवालों ने सहज ही सिर उठा लिया। मसलन- क्या गारंटी है कि एसपी होते तो बिना ड्राइवर की कार टीवी स्क्रीन पर दौड़ नहीं रही होती?- बदला लेने पर आमदा कोई नागिन(जिसे इछाधारी कहा जाता है ) टीवी कीtop story नहीं बनती ?- स्कूल में विद्यार्थियों की जगह भूत ना पढ़ रहे होते?- आये दिन टीवी पर आत्मा और परमात्मा के खेल ना चल रहे होते? विचलित कर देने वाले दृश्य यूँ धर्ल्ले से ना दिखते और ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम पर ऊल-जुलूल खबरें ना परोसी जाती? हो सकता है कि एसपी के साथ काम कर चुके पत्रकारों को मेरे ये सवाल शूल की तरह चुभें. लेकिन ये सवाल पत्रकारिता के इन धुरंधरों के विवेक और aditorial जजमेंट की कसोती हैं. अगर वो कहेंगे कि हाँ-एसपी के ज़माने में ऐसा कभी नहीं हुआ- और वो होते तो eऐसा नहीं होता. तो फिर सवाल ये है कि अब ये सब क्यों हो रह है?? ज़्यादातर टीवी चैनलों की कमान एसपी की टीम में शामिल रहे पत्रकारों के हाथ है, फिर ये गिरावट क्यों जारी है?दूसरी तरफ अगर, ये लोग बदले हुए हालात कि दलील दे कर मौजूदा टीवी पत्रकारिता को सही ठहराने की कोशिश करें, तो फिर एक सवाल उठता है. वो ये कि- जब आप बदले हुए दौर कि दुहाई दे कर एसपी सिंह के आदर्शों की ही तिलांजलि दे चुके हैं, तो उन्हें याद करने के बहाने ये प्रलाप क्यों...??दरअसल मामला साफ है- एसपी सिंह ने लोगों से जुडे मुद्दे उठाये, बड़ी बेबाकी के साथ तल्ख़ से तल्ख़ टिपण्णी की और अपने बुलेटिन मे आस्था और अंधविश्वास का घालमेल नहीं किया. शायद इसीलिये उनका अंदाज़ कम समय में ही लोगों के दिल में बस गया. लेकिन ती-आर-पी कि ज़ंग में अब वो जज्बा हाशिये पर चला गया है. शायद इसलिये कि आज टॉप बॉस बने बैठे एसपी के साथी ख़ूब सम्झ्तें हैं कि ये एसपी का नहीं- ती-आर-पी का ज़माना है...

एस पी जिंदा होते तो आजतक देखकर मर जाते




संजय तिवारी
एस पी सिंह भारत में टेलीविजन पत्रकारिता के जनक थे. आधे घंटे के न्यूज बुलेटिन “आज तक” का उनका प्रयोग दस साल में सवा सौ करोड़ रूपये का खबर उद्योग हो गया है. उनकी पिछली पुण्यतिथि पर कई सारे चेलों ने अपने संस्मरण लिखे और कहा कि आज अगर एसपी होते तो क्या कहते? कुछ ने लिखा था कि समय के साथ बदलावों को सच्चाई मानकर सबकुछ स्वीकार कर लेते. कुछ ने कहा कि वे ऐसी लकीर खींच देते कि लोग इधर-उधर जाते ही नहीं. मैं कहता हूं, आज अगर एसपी जिंदा होते तो आजतक देखकर मर जाते.एस पी की अकाल मृत्यु को सही नहीं कहा जा सकता लेकिन क्या वे बर्दाश्त कर पाते कि उनके खून-पसीने से खड़ा हुआ एक समाचार माध्यम इतना पतित हो गया है कि खबरों के नाम पर नंगई और बेहूदगी परोस रहा है. और किसी चैनल की बात मत करिए. उनके अपने खड़े किये चैनल आजतक को ही देखिए. वह आधे घंटे का कार्यक्रम यह दिखाता है कि करीना कपूर के हाथ में एक अंगूठी है और सैफ अली खान उसे छोड़ने किसी पार्टी में जाते हैं. कैमरामैन पकड़ लेता है कि सैफ के हाथ पर करीना कपूर लिखा हुआ है. अब इस बात खबर बनाने के लिए वहां एक बेचारी टाईप रिपोर्टर खड़ी की जाती है. उससे फोन पर बात होती है और इन्पुट लिया जाता है.
आज तक का ऐसा घोर पतन देखकर बहुत दुख होता है. इतना पतन शायद किसी और चैनल का नहीं हुआ हो क्योंकि लोगों ने उस शीर्ष से शुरूआत ही नहीं की थी जिससे आजतक ने शुरू किया था. अनगिनत अंट-शंट बातों को दिखाकर क्या हम टीवी को मूर्खों का माध्यम बनाना चाहते हैं? और अगर यह सचमुच मूर्खों का माध्यम हुआ तो उसमें काम करनेवाले सीनियर-जूनियर क्या कहे जाएंगे? बुद्धिमान?
टीवीवालों ने खबरों की दशा बिगाड़कर रख दी है. इस इंडस्ट्री में काम करनेवाले शायद इस बात का अंदाजा नहीं लगा पा रहे हैं कि यहां समूहगत रूप से लोगों को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता. देश की जनता हमारी आपकी समझ से ज्यादा समझदार है. जनता ने समय-समय पर इसे साबित भी किया है. ये करीना कपूर और भालू बंदर गाशिप हैं और उनके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए. अभी तो जनता मजा ले रही है लेकिन अगर आप यही सब खबर बनाते रहे तो धीरे-धीरे जनता आपका साथ छोड़ देगी. फिर जिसके साथ जनता नहीं विज्ञापनदाता उसका साथ क्यों होगा?
प्रस्तुतकर्ता अनुराग पुनेठा
टीवी पत्रकारिता का रसातल
टीवी पत्रकारिता देखिये, 'कहाँ' से 'कहाँ' पहुँच गयी है! स्वर्गीय एसपी सिंह ने जब 'आजतक' का आधे घंटे का न्यूज बुलेटिन शुरू किया था तह चन्द ही हफ्तों बाद देश के नेताओं का वही हाल हो गया था जो बीबीसी की सिगनेचर ट्यून सुनकर ब्रिटेन और अमेरिका के शीर्ष नेताओं का हुआ करता था. अंगरेजी समाचारों को अखंड सत्य मानने और जानने वाले धुरंधरों की धुकधुकी बढ़ जाती थी 'आजतक' की सिगनेचर ट्यून सुनने के बाद! और तो और मेरे साथ एक सांध्य दैनिक के दफ्तर में 'दिल का हाल कहे दिलवाला' गा-गाकर नाचनेवाला एक बन्दा जब एसपी 'आजतक' में चला गया था तो हम लोग उसे अमिताभ बच्चन की तरह देखने लगे थे.कट टू-आजतक चौबीस घंटे का हुआ. उसका कायापलट होना शुरू हो गया. समाचार की जगह गिमिक ने ले ली और उसमें वे सारी बुराइयां आती गयीं जो एक पैसे के पीछे भागने वाले चैनल की हो सकती हैं. एसपी जहाँ बिना बाईट के भी मर्मान्तक कैप्स्यूल तैयार कर लेते थे वहीं अब 'पान की पीक' और 'धूमिल' के शब्दों में कहें तो 'थीक है-थीक है' वाली बाइटें प्रचुर मात्रा में होने के बावजूद बेजान समाचार परोसे जाने लगे.दीगर चौबीस घंटे के समाचार चैनलों में तो जैसे भूत-प्रेत, अंधविश्वास, अपराध और हिंसा परोसने की होड़-सी लग गयी. स्त्री को कम कपड़ों में दिखाने के मामले में तमाम चैनल दुस्सासन और द्रौपदी प्रसंग साक्षात साकार करने लगे. ड्रामा देखने के लिए अब हिन्दी फिल्में देखने की आवश्यकता ही नहीं है. समाचार पर्याप्त नाटकीय हो चुके हैं. अच्छा हुआ जो एसपी चले गए. वरना अब के चैनल देखकर चले जाते. उनकी मृत्यु का एक कारण एक न्यूज कैप्स्यूल तैयार करने के बाद उनके मन में पैदा हुई बेचैनी को भी गिनाया जाता है. वह इतने संवेदनशील थे.कट टू- एक समाचार चैनल है. मुम्बई और महाराष्ट्र का हिन्दी चैनल है. एंकर महाशय पत्रकारिता के कालपुरूष हैं. उन्होंने 'डेली' टेबलोइड में जान फूंकी थी यह सभी जानते हैं. लेकिन यहाँ बैठकर वह सारा समाचार जगत ज्योतिषियों के दम पर चलाते हैं. दो ज्योतिषी उनके परमामेंट हैं. अब एक टैरो कार्ड रीडर भी जुड़ गयी है. उनकी टीवी पत्रकारिता का एक नमूना पेश है:-एंकर- पंडित जी आप बताएं, सचिन तेंदुलकर कितने साल अभी खेल सकेंगे?पंडितजी- सचिन का राहू केतु में, सूर्य धनु राशि में... ब्ला....ब्ला....ब्ला...एंकर- आपने इस चैनल पर पहली बार सुना है.. एकदम पहली बार... (अब दूसरे पंडित से) अच्छा आप बताइये क्या सरबजीत को पाक छोड़ देगा?पंडितजी- सरबजीत की कुंडली तो हमारे पास नहीं है लेकिन भारत और पाकिस्तान की कुंडली है. इससे लगता है कि पाक को छोड़ना पडेगा...एंकर- आपने इस चैनल पर पहली बार सुना है.. एकदम पहली बार... (अब टैरो कार्ड वाली से) आप बताएं अगली सरकार किसकी बनाती दिखती है?तीनों ज्योतिषी एक राय होकर कहते हैं- भाजपा की बनेगी.. क्योंकि सोनिया की कुंडली में अमुक दोष है और आडवाणी जी की कुंडली में फलां शुभ योग है... (यानी देश भर के तमाम ज्योतिषी भाजपा की सरकार बनते देखना चाहते हैं. धर्म का झंडा उसी ने थाम रखा है. वरना पृथ्वी कब की रसातल में चली गयी होती.भाजपा सरकार में अचानक यज्ञों और धर्म सम्मेलनों की बाढ़ आ गयी थी. इसकी जाँच करवाई जाए तो किसी बोफोर्स घोटाले से कम मामला नहीं निकलेगा).यह चंडाल चर्चा घंटे भर रोज चला करती है. इस चैनल पर. दूसरे चैनलों पर भी एक से एक जटाधारी और कास्ट्यूम ड्रामा में भाग लेने आए प्रतियोगियों जैसे बाबा लोग दिन में कई बार भविष्य बताया करते हैं. अब आप ही तय कीजिये कि टीवी पत्रकारिता कहाँ से कहाँ जा पहुँची है?.....और यह भी कि आगे यह किस रसातल में जा गिरेगी!!
विजय शंकर