राजेश त्रिपाठी | |
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मुझ जैसे कई पत्रकारों को हिंदी साप्ताहिक 'रविवार' में 10 साल तक एसपी के साथ काम करने और सार्थक पत्रकारिता से जुड़ने का अवसर मिला। हमने उस व्यक्तित्व को समीप से जाना-पहचाना जो साहसी व सुलझा हुआ था और जिसे खबरों की सटीक और अच्छी पहचान थी। सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता की उन्होंने जो शुरुआत इस साप्ताहिक से की, वह पूरे देश में प्रशंसित-स्वीकृत हुई। यह उनकी सशक्त पत्रकारिता का ही परिणाम था कि 'रविवार' ने सत्ता के उच्च शिखरों तक से टकराने में हिचकिचाहट न दिखायी। इसके चलते 'रविवार' के खिलाफ कोई न कोई मामला दर्ज होता ही रहता था। लेकिन विश्ववसनीयता इतनी थी कि विधानसभाओं तक में इसके अंक प्रमाण के तौर पर लहराए जाते थे। खबरों की उनकी पकड़ का एक प्रमाण भागलपुर आंखफोड़ कांड की घटना से समझा जा सकता है। यह खबर 'आर्यावर्त' के भीतरी पृष्ठ पर इस तरह से उपेक्षित ढंग से छपी थी कि कहीं किसी की नजर न पड़ सके। एसपी को यह बहुत खराब लगा। पत्रकार धर्म की यह उदासीनता उन्हें भीतर तक कचोट गई। उन्होंने हमारे एक साथी अनिल ठाकुर को (जो भागलपुर के ही रहने वाले हैं) तत्काल भागलपुर भेजा और भागलपुर आंखफोड़ कांड का काला अध्याय 'रविवार' की आमुख कथा बना। जैसा स्वाभाविक है, तहलका मच गया। इसके बाद अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं ने भी इसे प्रमुखता से छापा। अफसोस इस बात का है कि अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं को तो इस पर पुरस्कार मिले लेकिन 'रविवार' जिसने इस स्टोरी को प्रमुखता से ब्रेक किया, के हिस्से सिर्फ पाठकों और चहानेवालों की शुभकामनाएं ही आईं। यहां कहना पड़ता है कि अगर हिंदी अब भी दासी है तो इसके दोषी शायद हम हिंदीभाषी या कहें हिंदीप्रेमी भी हैं। मैंने जिक्र किया कि 'रविवार' व्यवस्था विरोधी (सारी व्यवस्था नहीं, वह जो भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हो) पत्र था इसलिए मामले उस पर होते ही रहते थे। इसी तरह का एक प्रसंग याद आता है। हम सभी आनंद बाजार प्रकाशन समूह के प्रफुल्ल सरकार स्ट्रीट स्थित कार्यालय में काम कर रहे थे। एसपी अपने चेंबर में थे। अचानक कुछ पुलिस अधिकारी उनसे मिलने आए। स्थानीय पुलिस अधिकारी अक्सर उनसे मिलने आते रहते थे। हम लोगों ने सोचा, वैसे ही कोई अधिकारी होंगे। कार्य में व्यस्त रहने के कारण हम लोग उनका परिचय नहीं पूछ सके और उनको एसपी के चेंबर में जाने दिया। थोड़ी देर में एसपी चेंबर से उन लोगों के साथ निकले और बोले-'अरे, भइया जरा पूछ लिया करो कि कौन हैं, कहां से हैं, ये मध्य प्रदेश पुलिस के अधिकारी हैं। मैं गिरफ्तार हो चुका हूं और अब जमानत लेने जा रहा हूं।' हमें याद आया कि मध्य प्रदेश विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष पर एक स्टोरी 'रविवार' में छपी थी और उन्होंने मामला कर दिया था। उसके बाद से एसपी ने अग्रिम जमानत ही ले रखी थी। सहजता तो जैसे उनका अभिन्न अंग था। 'रविवार' ज्वाइन करने के बाद मैं उनके गृहनगर श्यामनगर के पास गारुलिया गया तो पाया वे चंदन प्रताप सिंह को दुलार रहे हैं। चंदन तब छोटे थे। थोड़ी देर तक उनसे बातें होती रहीं फिर बोले- 'चलो भइया, तुमको फुटबाल दिखाते हैं।' हमने समझा कि कहीं फुटबाल मैच हो रहा होगा, उसे दिखाने ले जा रहे हैं। लेकिन यह क्या? गारुलिया में हुगली के तट पर बरसात के उस मौसम में कीचड़ से भरे एक मैदान में एसपी दा अपने बड़े भाई नरेंद्र प्रताप सिंह व अन्य लोगों के साथ फुटबाल खेलने उतर गए। कुछ देर बाद कीचड़ से वे इचने लथपथ हो गए कि उनको पहचान पाना मुश्किल हो रहा था। उनमें बाल सुलभ सहजता और सरलता थी। बहुत कुछ कहती थी हलकी दाढ़ी वाले रोबीले चेहरे पर चमकती उनकी भावभरी आंखें। जो भी उनके साथ काम कर चुका है, उनके खुलेपन और अपने सहकर्मियों के प्रति भ्रातृवत व्यवहार को आजीवन याद रखेगा। कभी भी उन्हें किसी सहकर्मी से ऊंची आवाज में बात करते नहीं देखा। कुछ गलती होती तो सहजता से समझाते और कहते-आप अपना लिखा किसी और से भी चेक करा लिया करें। अपने साथी गलती पकड़ेंगे तो उसमें शर्म की कोई बात नहीं। अगर गलती छूट गयी तो कल लाखों लोगों के सामने शर्मशार होना पड़ेगा और जवाबदेह होना पड़ेगा। एक बार की बात है। हम लोग कुछ खाली थे और कार्यालय में रवीन्द्र कालिया जी का उपन्यास 'काला रजिस्टर' पढ़ रहे थे। उन्होंने देखा तो कहा- 'भइया, ऐसे मजा नहीं आएगा। आओ मैं इस उपन्यास के पात्रों का परिचय दे दूं। कालिया जी ने हम लोगों के साथ रहते हुए ही इसे लिखा है और हमें जितना लिखते जाते, सुनाते भी जाते थे। अच्छा है मजा आयेगा।' एसपी पर जितना भी लिखा जाए, कम है। 10 साल की स्मृतियां कम शब्दों में तो सिमट नहीं सकतीं लेकिन दो एक प्रसंग जो उनके संवेदनशील मन को उजागर करते हैं और जिनसे उनका हिंदी प्रेम झलकता है, वह देना आवश्यक समझता हूं। उनकी पत्रकारिता 'न दैन्यम् न पलायनम्' की पक्षधर थी। उन्होंने सच को सच की तरह ही उजागर किया। पत्रकारिता में सुदामा वृत्ति उन्हें पसंद नहीं थी। उनका मानना था कि हिंदी अपने आप में सक्षम और सशक्त भाषा है और हिंदी पत्रकारिता को अंग्रेजी की बैसाखी की कोई आवश्यकता नहीं है। यही वजह है कि आनंद बाजार प्रकाशन समूह के 'रविवार' के बाद एसपी को जब दिल्ली के एक राष्ट्रीय पत्र में जुड़ने का प्रस्ताव आया और बताया गया कि अंग्रेजी अखबार का अनुवाद ही हिंदी अखबार में दिया जाए तो उन्होंने वहां से हटना ही श्रेयस्कर समझा। उसके बाद वे दिल्ली में 'द टेलीग्राफ' के राजनीतिक संपादक और फिर हिंदी के पहले निजी समाचार चैनल 'आज तक' के रूपकारों में रहे। संवेदनशील इतने थे कि लोगों के दर्द को अपना दर्द समझते थे और उसे शिद्दत से महसूस भी करते थे। मेरे खयाल से यह अत्यंत संवेदनशीलता ही उनके असमय निधन का कारण बनी। दिल्ली के 'उपहार' सिनेमा के अग्निकांड में मृत लोगों के परिजनों का दर्द उन्होंने अपनी आंखों से देखा और दिल की गहराइयों से झेला। शनिवार को यह कार्यक्रम 'आज तक' में पेश करते वक्त उनकी आंखें नम थीं। वे कह गये 'ये थीं खबरें आज तक। इंतजार कीजिए सोमवार तक।' फिर वह सोमवार कभी नहीं आया। रविवार के दिन वे मस्तिष्काघात से संज्ञाशून्य हुए और फिर उन्हें बचाया नहीं जा सका। वैसे, एसपी जैसे व्यक्तित्व मरा नहीं करते। वे अपने कार्य से जीवित रहते हैं। भौतिक रूप से वे भले न हों लेकिन जब तक विश्व में सार्थक, सामाजिक सरोकार से जुड़ी पत्रकारिता है एसपी जीवित रहेंगे। लोगों के विचारों, कार्यों में एक सशक्त प्रेरणास्रोत के रूप में जीवित रहेंगे। मेरा उस महान आत्मा को शत-शत नमन। लेखक राजेश त्रिपाठी कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं। वे तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। कोलकाता के लायंस क्लब की ओर से 'श्रेष्ठ पत्रकार', कटक (उड़ीसा) की लालालाजपत राय विचार मंच संस्था से 'श्रेष्ठ हिंदी पत्रकार' के रूप में सम्मानित हो चुके हैं। व्रिक्रमशिला विद्यापीठ भागलपुर (बिहार) से विद्या वाचस्पति की मानद उपाधि। अनेक बाल उपन्यास, उपन्यास, कहानियां, कविताएं पत्र-पत्रकाओं में प्रकाशित। साहित्य अकादमी की 'हूज हू आफ इडियन राइटर्स' में परिचय प्रकाशित। रविवार, जनसत्ता, प्रभातखबर डाट काम में कार्य करने के बाद संप्रति हिंदी दैनिक सन्मार्ग, कोलकाता से संबद्ध। राजेश से संपर्क rajeshtripathi@sify.com के जरिए किया जा सकता है |
Sunday, April 5, 2009
सचमुच ही मीडिया के महानायक थे एसपी सिंह
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