Saturday, August 3, 2019

जब एसपी की शैली को पीत पत्रकारिता की श्रेणी में लाने की कोशिश की गई



पटना में डाक बंगला चौराहे के एक होटल में प्रसिद्ध साहित्यकार और ‘दिनमान’ के संपादक रहे अज्ञेय जी और ‘रविवार’ के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह के बीच लंबी संवादनुमा बहस हुई


संतोष भारतीय, वरिष्ठ पत्रकार।।

पत्रकारिता के इतिहास में 1977 को एक ऐसे वर्ष के रूप में जाना जाएगा, जहां से रास्ता बदलता है। सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय, प्रफुल्लचंद्र ओझा मुक्त, धर्मवीर भारती, मनोहर श्याम जोशी, विद्यानिवास मिश्र, रघुवीर सहाय, कन्हैयालाल नंदन जैसे बड़े साहित्यकार हिंदी पत्रिकाओं के या दैनिक अखबारों के संपादक हुआ करते थे। कोई नहीं सोच सकता था कि जिसकी उम्र 25 साल के आसपास है और जो साहित्यकार भी नहीं है, वह भी हिंदी की किसी पत्रिका का या दैनिक अखबार का संपादक हो सकता है।

पहली बार साहित्यकार और पत्रकार के बीच एक रेखा खिंची और ‘रविवार’ के पहले संपादक एमजे अकबर बने, जिन्होंने कुछ ही महीनों में यह जिम्मेदारी सुरेंद्र प्रताप सिंह (एसपी) को दे दी। व्यावहारिक रूप से सुरेंद्र प्रताप सिंह ही ‘रविवार’ के पहले संपादक थे। ‘आनंद बाजार पत्रिका’ ने हिंदी के इतिहास में जब हिंदी पत्रिका निकालने का निश्चय किया, तब अंग्रेजी साप्ताहिक ‘संडे’ को निकालने का भी निर्णय लिया, जिसके लिए उन्होंने एमजे अकबर को नियुक्त किया। अकबर की सलाह पर ही एसपी सिंह ‘धर्मयुग’ छोड़कर ‘रविवार’ के संपादक बने।

तब हिंदी जगत के सभी पुराने संपादकों को यह फैसला पसंद नहीं आया। उनका मानना था कि अच्छा साहित्यकार ही अच्छा पत्रकार हो सकता है। सुरेंद्र प्रताप सिंह ने हिंदी पत्रकारिता में एक नया अध्याय शुरू किया और उन्होंने 20 से 25 साल की उम्र के लोगों को सक्रिय पत्रकार बनाने की परंपरा शुरू की। उन्होंने उदयन शर्मा को विशेष संवाददाता बनाकर फील्ड रिपोर्ट कितनी महत्वपूर्ण होती है हिंदी पत्रकारिता में, यह साबित कर दिया। यही वो विभाजन का साल है, जहां से साहित्य और पत्रकारिता अलग हुई। इसने साबित कर दिया कि सुरेंद्र प्रताप सिंह का फैसला एक क्रांतिकारी फैसला था, जिसने हिंदी पत्रकारिता में 20 वर्ष के नौजवानों के लिए बहुत कुछ कर दिखाने के मौके उपलब्ध कराने के दरवाजे खोल दिए।

इसके बाद तो पत्रकारिता में विशेषकर हिंदी पत्रकारिता में अद्भुत उदाहरण बने। पहली बार हिंदी के नौजवान पत्रकारों की वजह से सत्ता दबाव में आई, मंत्रियों ने अपने को सुधारा, कुछ के त्यागपत्र हुए, मुख्यमंत्री भी दबाव में आए और इन नौजवान पत्रकारों की रिपोर्ट पर मुख्यमंत्रियों तक के त्यागपत्र हुए। पटना में डाक बंगला चौराहे के एक होटल में प्रसिद्ध साहित्यकार और ‘दिनमान’ के संपादक रहे अज्ञेय जी और ‘रविवार’ के नए बने नौजवान संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह के बीच इसी विषय पर एक लंबी संवादनुमा बहस हुई। अज्ञेय जी ने सुरेंद्र प्रताप सिंह की पत्रकार शैली की जमकर आलोचना की और उसे पीत पत्रकारिता की श्रेणी मैं लाने की कोशिश की, जिसका सुरेंद्र प्रताप सिंह ने भरपूर विरोध किया। अज्ञेय जी के जीवन काल में ही पत्रकारिता को लेकर सुरेंद्र प्रताप सिंह का दृष्टिकोण सही साबित हो गया। हिंदी पत्रकारिता ने सफलतापूर्वक पत्रकारिता की ऐसी धार विकसित की, जिसने सत्ता पर जनता की अनदेखी करने से पैदा डर का आविष्कार कर दिया।

1977 से ही पत्रकारिता की एक दूसरी धारा भी विकसित हुई, जो अंग्रेजी पत्रकारिता की विशेषता बनी हुई थी, वह थी पीआर जर्नलिज्म। हिंदी के कुछ बड़े संपादक और पत्रकारों का एक वर्ग इस धारा का चेहरा बन गए। उनकी पहचान थी कि वो कितने बड़े राजनेताओं के मित्र हैं और उनके हक मैं पत्रकारिता करते हैं। हिंदी के इन पत्रकारों का जोर शोर से समर्थन अंग्रेजी के वरिष्ठ पत्रकार और संपादक करते थे।

दरअसल, हिंदी के युवा पत्रकारों के धारदार तेवर से अंग्रेजी पत्रकारिता परेशान थी और इसे समाप्त करना चाहती थी। यहीं पर एमजे अकबर ने ऐतिहासिक रोल निभाया। उन्होंने प्रसिद्ध अंग्रेजी सप्ताहिक ‘संडे’ को हिंदी पत्रकारिता के तेवर से जोड़ दिया। उन्होंने पहली बार हिंदी के पत्रकारों की फील्ड रिपोर्ट को अनुवादित कर ‘संडे’ में छापा। उन्होंने हिंदी के पत्रकारों से ‘संडे’ के लिए रिपोर्टिंग कराई और पूरी अंग्रेजी पत्रकारिता पर एक ऐसा दबाव बना दिया कि उसने अंग्रेजी पत्रकारिता में भी एक नई धारा पैदा कर दी। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की पत्रकारिता ऐतिहासिक तो थी ही, पर उसमें नए फ्लेवर जुड़ गए। ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ में खुशवंत सिंह के बाद बने संपादक प्रीतीश नंदी ने अंग्रेजी पत्रकारिता का चेहरा बदलने की सफल कोशिश की।

इसके बाद तो हिंदी पत्रकारिता ने देश में और राज्यों में सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित किए। अगर हम विषय आधारित विश्लेषण करें तो हिंदी पत्रकारिता ने हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और जन सरोकारों के सवाल पर अपनी संवेदना के आधार पर देश का ध्यान खींचा। सुरेंद्र प्रताप सिंह की विकसित की हुई शैली ने हिंदी पत्रकारों को पहली बार स्टार स्टेटस दिलवाया। उन दिनों कुछ ऐसे पत्रकार थे, जो किसी राज्य में रिपोर्ट के लिए जाते थे तो राज्य सरकारें परेशान हो जाती थीं और कोशिश करती थीं कि जितनी जल्दी हो सके यह पत्रकार उनके राज्य से बाहर चले जाएं।

पत्रकारिता का यह चेहरा कैसे बना, इसकी जानकारी आज के नए पत्रकारों को नहीं है। यह भी नहीं पता कि इस चेहरे को बनाने में कितनी मेहनत और कितना प्रयास हुआ है। आज एक और चेहरा हमारे सामने खड़ा है, जो पत्रकारिता में आते ही बिना मेहनत किए ग्लैमरस स्टेटस चाहता है। इसे न विषय की पहचान है और न सामाजिक अंतर्विरोध की। इसे संभवतः यह भी नहीं पता कि किसी भी रिपोर्ट के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक पहलू भी होते हैं, जिनके बिना वह रिपोर्ट अधूरी है। ऐसा नहीं है कि 100 फीसदी ऐसा होता हो, पर 80 प्रतिशत ऐसा होता है। यही सत्य है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)
समाचार4मीडिया ब्यूरो।।

ये 4 घटनाएं आपको एसपी के व्यक्तित्व से कराती है रूबरू



वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह ने कहा था- क्षमा बड़न को चाहिए...


निर्मलेंदु

वरिष्ठ पत्रकार

वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह ने कहा था- क्षमा बड़न को चाहिए। संयम ही एसपी का बहुत बड़ा गुण था। दरअसल, उनको इस बात का अहसास था कि बदला लेने की भावना से या किसी को कटु शब्द कहकर अंतत: कुछ ΄प्राप्त नहीं होता, इसलिए वे हमेशा मुझे यही समझाते रहते थे कि मुख से हमे कभी भी ऐसा शब्द नहीं निकालना चाहिए, जिससे दूसरों का दिल दुखे। शायद यही कारण था कि बड़ी-बड़ी गलतियों को भी वे हंसते हुए नजरंदाज कर दिया करते थे- जी हां, माफ कर देना उनके स्वभाव का अभिन्न अंग था।

शायद उसी में उन्हें आत्मसंतोष होता था, लेकिन डांट नहीं मिलने के कारण कुछ ऐसे लोग भी हुआ करते थे रविवार में, जो बहुत ज्यादा दुखी हो जाया करते थे। इस बात को लेकर परेशान हो जाते थे कि एसपी ने इतनी बड़ी गलती पर कुछ कहा क्यों नहीं? ऐसा क्यों करते थे एसपी? एक बार मैंने ΄पूछा भैया आप गलतियों को माफ क्यों कर देते हैं, तो उन्होंने मुझसे कहा, निर्मल, कोई जान-बूझ कर गलती नहीं करता। गलlतियां हो जाती हैं, कभी नासमझी की वजह से, तो कभी असर्तकता के कारण। कोई भी जान-बूझ कर डांट खाना नहीं चाहेगा और यदि ऐसा आदमी कोई है, तो मैं समझता हूं कि वह पागल होगा। मैंने कई बार बड़ी गलतियां रविवार में रहते हुए की हैं, लेकिन उन्होंने मुझे कभी नहीं डांटा। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो क्रोध और कठोर वाणी को नियंत्रण में नहीं रखना जानते, जो सदा दूसरों की भूलों को तलाशने में लगे रहते है, बहाने तलाशते हैं क्रोध निकालने का, ताकि दूसरों को समझ में आ जाए कि वे बड़े हैं और सच तो यही है कि जब ऐसे लोगों को बहाने नहीं मिलते, तो वे अपने अपने तरीके से बहाने बना भी लेते हैं, लेकिन एसपी ने ऐसा कभी नहीं किया।

दरअसल, जिस पद-अधिकार, धन-ऐश्वर्य, मान-बड़ाई और यश-कीर्ति के लिए हम पागल हो रहे होते हैं, सच तो यही है कि इनमे से कोई भी हमें ‘तृप्ति’ नहीं दे सकता। जो तृप्ति दे सकता है, वह है लोगों को क्षमा कर देना और बदले में ΄यार बटोरना'। जी हां, एसपी यही करते थे। वे क्षमा करके ΄यार' और 'इज्जत' कमाते थे, जिसकी कद्र इंसान के मरने के बाद भी होती है। एसपी को शायद इस बात का अहसास था कि मान-सम्मान और ΄यार-मुहब्बत' से बड़ी कमाई और कुछ है ही नहीं। यही वह जीवन भर कमाते रहे। ऐसे तो अनगिनत ऐसी-ऐसी घटनाएं हैं, जहां एसपी मुझे डांट सकते थे, लेकिन उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया। इसी सिलसिले में कुछ घटनाओं का जिक्र करना यहां उचित हो जाता है।

घटनाक्रम 1

उन दिनों रविवार का कवर पृष्ठ अमूमन मैं ही बनवाया करता था। यानी कवर जिडाइन कैसी होगी, टीपी कौन सी जाएगी और उसका डिजाइन कैसे बनेगा, इन सभी बिंदुओं पर मैं आर्टिस्ट से बोल करके कवर बनवाया करता था। उस अंक में राजस्थान की राजनीति पर कवर स्टेरी थी, इसीलिए एसपी जयपुर गए हुए थे। जाने से पहले उन्होंने मुझसे कहा, निर्मल मैं जयपुर से फोन करके तुम्हें बता दूंगा कि कवर स्टोरी कौन सी होगी और कवर कैसे बनाना है। दो दिन बाद वहां से फोन आया और उन्होंने कवर स्टोरी तथा कवर कैसे बनाया जाए, उसकी एक सम्यक रूपरेखा बता दी। तत्पश्चात मैंने कवर बनाकर भेज दिया। अंक छप करके निकल आया। एसपी तब तक जयपुर से लौट कर आ भी गए थे। अमूमन गुरुवार को मद्रास ΄प्रेस से कवर पेज छप कर आ जाया करता था।

उस दिन भी गुरुवार था। मैं अपने काम में व्यस्त था। शायद अगले अंक के फाइनल पेज चेक कर रहा था। मैं अपने काम में इतना मगन था कि मैं देखा ही नहीं कि एसपी मेरे पीछे खड़े हैं। फिर जब ध्यान गया, तो उन्होंने मुझसे कहा, निर्मल, जरा अंदर (केबिन में) आओ। केबिन के अंदर ΄प्रवेश करते वक्त मैंने देखा कि उनके हाथ में रविवार का कवर पेज है। मैंने उत्सुकता जताई कि भैया कैसा है? उत्तर में उन्होंने कवर ΄पृष्ठ को मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, मैंने जैसा कहा था, तुमने ठीक उसका उल्टा कर दिया। मैंने जिस कवर स्टोरी बनाने के लिए कहा था, तुमने उसे विशेष रिपोर्ट बना दिया और विशेष रिपोर्ट को ...। सुनते ही मैं परेशान हो गया। उनको पता था कि मैं छोटी-छोटी चीजों से परेशान हो जाता हूं, शायद इसीलिए उन्होंने तुरंत कहा, कोई बात नहीं ऐसा हो जाता है। मैं बाहर आया। सोचा, इतनी बड़ी बात हो गई और उन्होंने मुझे कुछ भी नहीं कहा। मेरी आंखों में आंसू आ गए। मुझे अब इस बात का डर सताने लगा कि अभी सभी स्टाफ को पता चल जाएगा कि निर्मल से कोई गलती हुई है।

इसीलिए मैं तुरंत विभाग से बाहर निकल गया। थोड़ी देर बाद जब मन शांत हुआ, तो मैं अपनी सीट पर लौट आया। काफी देर तक इसी उधेड़बुन पर फंसा रहा कि उन्होंने मुझे डांटा क्यों नहीं? मैं बहुत भावुक इंसान हूं। उस दिन, मुझे याद है, मैं रात भर सो नहीं सका। पत्नी मुझसे ΄पूछती रही कि तुम्हें हुआ क्या है? मैंने उससे कुछ भी नहीं कहा। दूसरे दिन मैं सीधे एसपी के घर गया और कहा, भैया मुझे माफ कर दीजिए। वे हंसने लगे। कहा, तुम बेवकूफ हो! तुम काम करते हो, इसीलिए तुमसे गलती हुई है। और भविष्य में भी तुमसे गलतियां होती रहेंगी। अगर इसी तरह सिर्फ एक गलती पर हम किसी को बुरा भला कहना शुरू कर देंगे, तो वह और ज्यादा गलती करेगा। लेकिन कुछ नहीं कहने पर वह भविष्य में हमेशा उसी तरह का काम दोबारा करते वक्त सचेत रहेगा। इस तरह उन्होंने वहां से समझा बुझाकर और खाना खिलाकर तुरंत ऑफिस जाने के लिए कहा।

घटना नं- 2

गलतियां हर पत्रिका में होती हैं, इसलिए एक बार फिर मुझसे एक गलती हो गई। हुआ यूं कि एक दिन ‘रविवार’ के हम सभी साथी बाहर लॉन पर बैठे शाम की चाय पी रहे थे। चूंकि मैगजीन एक दिन पहले पैकअप कर दी थी, इसीलिए रिलैक्स मूड में थे। हम लोग बैठे-बैठे हंसी मजाक कर रहे थे कि इतने में एसपी अंदर आए और हंसते हुए मुझसे पूछा कि निर्मल, तुम्हारी राशि कौन सी है? मैंने कहा, मेरी दो राशि है। नाम के अनुसार, वृश्चिक और जन्म समय के अनुसार सिंह। उनके हाथ में रविवार का नया अंक था। उन्होंने तुरंत अंक को आगे बढ़ाया और हंसते हुए कहा कि देखो जरा तुम्हारी राशि में क्या है? मैंने शुरू से आखिर तक अच्छी तरह से देखा, तो बात समझ में आ गई। उसमें सिंह राशि गायब थी। फिर उन्होंने कहा- मैं सबसे पहले अपनी राशि देखता हूं। इसीलिए पलटते ही जब मैंने देखा कि मेरी राशि नहीं है, तो पहले तो मैं चौंका, फिर समझ में आ गया कि एक राशि कम है। इस वाकये के बाद उन्होंने केवल इतना कहा कि हमेशा बारह राशियां गिन लिया करो। और यह कहते हुए वे अंदर चले गए। आज भी मैं हमेशा बारह राशियां गिन लेता हूं।

घटना नं-3

उस दिन हम लोग रिलैक्स मूड में बैठे थे, बल्कि यह कहना उचित होगा कि हम लोग सब शाम को भेल (बांग्ला भाषा में इसे मूड़ि कहते हैं) खा रहे थे। हंसी मजाक में एक दूसरे पर टिका टिप्पणी भी कर रहे थे। तभी एसपी हंसते हुए आए। उस दिन भी उनके हाथ में रविवार का ताजा अंक था। मेरी नजर उनके चेहरे पर पड़ी, तो वे मुस्कुराने लगे। फिर उन्होंने राजकिशोर जी की ओर मुड़कर उनसे ΄पूछा, कि राजकिशोर जी, सुना है आपके यहां कोई नया एडिटर आ रहा है। पहले तो राजकिशोर जी चौंक गए, फिर उन्होंने पूछा, क्या, क्या कह रहे हैं सुरेंद्रजी! एसपी ने मैगजीन आगे बढ़ाते हुए व्यंग्य करते हुए टिप्पणी की- लगता है, मैनेजमेंट ने मुझे निकाल दिया है। इस बार राजकिशोर की ओर मुखातिब होकर कहा कि अब आपके सपने साकार हो जाएंगे। एक निश्छल हंसी थी उनके चेहरे पर। क्योंकि मेरे बाद तो आप ही संपादक बनने के हकदार हैं। हम सभी यह सुनकर परेशान हो गए, क्योंकि हम में से किसी को भी यह समझ में नहीं आ रहा था कि एसपी ऐसा क्यों कह रहे हैं?

खैर, थोड़ी देर बाद उन्होंने मैगजीन का पहला पन्ना खोला। और हम सभी को दिखाते हुए कहा, अब सुरेंद्र प्रताप सिंह इस रविवार के संपादक नहीं रहे। आप लोग अपना अपना बायोडाटा मैनेजमेंट को भेज सकते हैं और यह कह कर वे खूब ठहाके मार मार कर हंसने लगे। मैंने उनके हाथ से मैगजीन ले ली। पहला पन्ना पलटा। देखा कि वहां संपादक के तौर पर एसपी का नाम नहीं है, लेकिन एक स्पेस जरूर छूट गया है। मुझे बात समझ में आ गई। उन दिनों पेस्टिंग का जमाना था। नाम हर बार पेस्टिंग करके लगवाया जाता था। गैली काटकर लगाना होता था। छूटा हुआ स्पेस देखकर मुझे यह समझने में कहीं कोई दिक्कत नहीं हुई कि नाम कहीं गिर गया है। हालांकि आश्चर्य की बात तो यही है कि एसपी ने इस बड़ी बात को भी बिल्कुल नजरंदाज कर दिया, इस तरह से मानो कुछ हुआ ही न हो। वे चाहते, तो इस बात पर पेस्टिंग विभाग से लेकर सभी को लाइनहाजिर करवा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि उन्हें पता था कि इससे नाम तो ΄प्रिंट नहीं हो सकता।

घटना नं-4

घटनाएं तो कई हैं, इसलिए सभी घटनाओं का जिक्र करना यहां संभव नहीं है। हां, एक घटना जरूर ऐसी है, जिसका जिक्र करना यहां बहुत ही आवश्यक है, एसपी के व्यक्तित्व को समझने के लिए।

यह वाक्या सन् 1982 का है। तब रविवार में विज्ञापन परिशिष्ट का सारा काम मैं ही देखता था। उन्हीं दिनों मध्य प्रदेश पर 40 पेज के विज्ञापन परिशिष्ट का काम चल रहा था। तब मुझे दमे की भयानक शिकायत रहती थी। अमूमन परिशिष्ट की टीम में दो और सहयोगी मेरे साथ होते थे। परिशिष्ट का काम चल रहा था, तभी मेरी तबियत खराब होनी शुरू हो गई। धीरे धीरे मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि मुझे अंतत: छुट्टी लेनी पड़ी। ऐसी स्थिति में मैं अपना काम अपने दोनों साथियों (राजेश त्रिपाठी और हरिनारायण सिंह) को समझा बुझा कर चला गया। मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि मुझे 15 दिनों की छुट्टी लेनी पड़ी। छुट्टी से लौटकर आया, तो मैंने परिशिष्ट के एवज में बिल बनाकर विज्ञापन विभाग के सीनियर मैनेजर आलोक कुमार को भेज दिया और उसके बाद मैं अपने दैनिक काम में लग गया। अचानक एक दिन राजेश ने मुझसे पूछा कि निर्मल विज्ञापन का पैसा अभी तक नहीं आया क्या? मुझे भी लगा कि काफी देर हो चुकी है। अब तक तो चेक आ जाने चाहिए थे।

मैं तुरंत आलोक कुमार से मिला और उनसे पूछा, आलोक दा, इस बार हमें अभी तक मध्य प्रदेश विज्ञापन परिशिष्ट के ΄पैसे नहीं मिले? पहले उनको शायद समझ में नहीं आया, इसीलिए उन्होंने पूछा, वॉट?

मैंने कहा, मध्य प्रदेश विज्ञापन परिशिष्ट का ΄पैसा ...? मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि उन्होंने जवाब में कहा, वह पैसा तो आत्मानंद सिंह (विज्ञापन प्रतिनिधि) के नाम पर लग गया है।

मैंने पूछा, क्यों? आप तो जानते ही हैं कि यह सारा काम मैं करता हूं। मेरे साथ मेरे दो साथी भी होते हैँ? लेकिन तुम तो बीमार थे, उन्होंने पूछा?

मैंने कहा, मैं बीमार जरूर था, लेकिन मैं स्वयं साठ प्रतिशत काम करके गया था और फिर बाकी काम अपने दो साथियों में बांट कर गया था। फिर मैंने विनम्रतापूर्वक कहा कि बिल में मैंने तीन लोगों के बीच पूरे पैसे बांट कर चेक बनाने के लिए आग्रह किया है। ऐसा करिए, आप मेरे उन दोनों सहयोगियों को पैसे दे दो, क्योंकि उन दोनों ने मेहनत की है, अन्यथा वे भविष्य में हमारा साथ नहीं देंगे। और वैसे भी मैंने वादा किया है। इस पर उन्होंने कहा, चेक बन चुका है, इसलिए अब यह संभव नहीं है। दरअसल, उनकी बातों से लगा कि वे खुद नहीं चाहते, इसलिए मैंने उनसे पूछा कि क्या आत्मानंद सिंह पेज बनवा सकते हैं, संपादन कर सकते हैं, प्रूफ पढ़ सकते हैं, अनुवाद कर सकते हैं? मैंने दृढ़तापूर्वक कहा, वे ये सब नहीं कर सकते। यह सब जान बूझकर किया गया है। मुझे गुस्सा आ गया और गुस्से में मैंने कहा कि आप गलत’ लोगों को शह देते हैं। इस पर उन्होंने मुझे कहा कि तुम्हारे कहने का मतलब यह है कि मैं ‘बायस्ड’ हूं।

मैंने जवाब में कहा, मैंने आपको बायस्ड नहीं कहा। इस पर वे खड़े हो गए और चिल्लाने लगे कि जानते हो तुम किससे बात कर रहे हो? उनके इस तरह से चिल्लाने के बाद मैंने कहा, हां, मैं जानता हूं कि आप विज्ञापन विभाग के सीनियर मैनेजर हैं। इससे क्या होता है? तब तक गुस्सा मेरे सिर पर चढ़ चुका था और मैंने उन्हें फिर चल्लाते हुए कहा कि यदि आपके पिताजी के पास दौलत नहीं होती, तो न ही आप पढ़ लिख पाते और न ही आज आप यहां होते। हो सकता है, आप भी रिक्शा चला रहे होते! गेट आउट कह कर उन्होंने मुझे अपने केबिन से निकाल दिया। मैं अपने विभाग में पहुंचा, तो भक्त दा (सेवा संपादक), जो कि कान से ऊंचे सुनते थे, इशारे से मुझसे कहा कि आपको साहब बुला रहे हैं। मैं एसपी के केबिन में गया, तो देखा कि वे फोन पर कह रहे हैं कि निर्मल से तुमने कुछ उल्टी सीधी बात जरूर की होगी। वैसे भी उसने और उसकी टीम ने ही सारा काम किया है। यहां का रजिस्टर गवाह है। फिर तुम्हारे कहने पर मैं उसे क्यों डांटूं? यह कहकर उन्होंने फोन रख दिया। अब उन्होंने मुझे बैठने के लिए कहा। मैं बैठ गया।

उन्होंने कहा, निर्मल अभी अभी आलोक का फोन आया था। वह बहुत गुस्से में है। अरूप बाबू (उन दिनों आनंद बाजार पत्रिका के जनरल मैनेजर थे। वैसे वे मालिक भी हैं।) से शिकायत करने वाला था, लेकिन मैंने उसे कह दिया कि इसमें तुम्हारे विभाग की ही गलती है। तुम ऊपर जाओ। आलोक से अब अच्छी तरह बात कर लो। मैं ऊपर गया, तो इस क्षण आलोक कुमार का तेवर ही बदला हुआ था। मेरे पहुंचे ही उन्होंने मुझसे उल्टा कहा, निर्मल जो हो गया, उसे भूल जाओ। दोबारा बिल बनाकर दे दो।पैसे मिल जाएंगे। फिर हाथ मिलाया और कोकाकोला भी पिलाया। वैसे, यहां यह बता दें कि बाद के दिनों में आलोक कुमार और मेरे बहुत अच्छे संबंध बन गए थे। उन्होंने मेरे कहने पर मेरे एक दोस्त को नौकरी भी दी थी, विज्ञापन विभाग में।

यह घटना इस बात का सबूत है कि एसपी सच्चाई का साथ देने में कभी पीछे नहीं हटते थे, जबकि हम यह भालीभांति जानते थे कि एसपी और आलोक कुमार में बहुत अच्छी दोस्ती थी। दोनों एक दूसरे के घर में दिन रात पड़े रहते थे, लेकिन बात जब सच्चाई की होती थी, तो एसपी हमेशा सच्चाई का ही साथ देते थे, भले ही इससे उनका बहुत बड़ा नुकसान ही क्यों न हो जाए, या फिर दोस्तों के बीच में दरार पड़ जाए?
समाचार4मीडिया ब्यूरो by समाचार4मीडिया ब्यूरो

आनेवाली पीढ़ी भी एसपी को थोड़ा-बहुत जानें



सुरेंद्र प्रताप सिंह (एसपी) के मौत को बीस साल हो गए...


   

दर्पण सिंह

सुरेंद्र प्रताप सिंह (एसपी) के मौत को 21 साल हो गए! आज के बहुत से पत्रकार उनको जानते भी नहीं होंगे। इसमें उनका दोष भी नहीं है। आज मैं हिंदी में लिख रहा हूं, इसके पीछे भी एक कारण है जिसकी चर्चा मैं नीचे करूंगा. आज के retweets और likes वाली generation के लिए ये बुरा नहीं होगा अगर वो एसपी को थोड़ा-बहुत जानें।

यूपी के गाजीपुर जिले में एक छोटा गांव है- पातेपुर जहां उनका जन्म हुआ। प्राइमरी एजुकेशन गांव में ही मिली। उनके पिता जगन्नाथ सिंह, मेरे नाना फौजदार सिंह के भाई, कारोबारी थे और बंगाल के गारोलिया कसबे में बस गए थे। जब मैंने 2001 में पत्रकारिता शुरू की तो नानी (पार्वती देवी) उनके किस्से खूब सुनाया करती थी। एसपी भी बाद में गारोलिया पढ़ने चले गए। एमजे अकबर बचपन के दोस्त थे।

1962 में एसपी ने मैट्रिक सेकेण्ड डिवीजन में पास किया, फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी में मास्टर्स फर्स्ट डिवीजन में और सुरेंद्रनाथ कॉलेज से लॉ ग्रैजुएट। थोड़े समय के लिए AISF से जुड़े और यूनियन की मैगजीन के संपादक भी रहे। पहली नौकरी थी बैरकपुर के नेशनल कॉलेज में हिंदी लेक्चरर की। उस समय की मशहूर राजनितिक पत्रिका दिनमान के वे बड़े शौकीन थे। टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह में पत्रकारों की भर्ती निकली तो आवेदन किया। रिटेन टेस्ट पास किया। उनका इंटरव्यू लिया धर्मवीर भारती ने, नौकरी मिली धर्मयुग में ट्रेनी की। इसी बीच इलाहबाद में स्टेशन मास्टर की नौकरी मिली जो उन्होंने ठुकरा दी। थोड़े दिन के लिए फिल्म पत्रिका माधुरी भेज दिए गए, लेकिन जल्दी धर्मयुग वापस। तब एपी और एम.जे.अकबर जुहू के एक कमरे में किराये पर रहते थे।

1977 में उन्होंने 'रविवार' को चमकाया और पत्रकारिता को नए तरीके से परिभाषित किया। 1985 में राजेंद्र माथुर, जो उस समय नवभारत टाइम्स के चीफ एडिटर थे, उन्होंने एसपी को बॉम्बे का रेजिडेंट एडिटर बनाया जहां वो 1992 तक रहे। एसपी ने 1984 में आई गौतम घोष की फिल्म ‘पार’ के संवाद भी लिखे थे। थोड़े समय तक देव फीचर्स, टेलीग्राफ, इंडिया टुडे और बीबीसी से भी जुड़े. और फिर 1995 में दूरदर्शन पर 'आजतक' के पहले संपादक बने और बहुत पॉपुलर हुए। पहला एपिसोड आया 17 जुलाई को, जो की संयोगवश मेरा जन्मदिन भी है। जैसा कि योगेंद्र यादव ने एक बार कहा, एक समय था जब अंग्रेजी जानना काफी नहीं था। ये भी जरुरी था कि आप को कोई और भाषा न आती हो। अगर ये स्थिति बदली तो इसका काफी क्रेडिट एसपी को जाता है।

एसपी के लेख 'खाते हैं हिंदी का, गाते हैं अंग्रेजी का' की आज भी मिसाल दी जाती है। आर.अनुराधा ने एसपी पे अपनी किताब में लिखा है: 'मॉडर्निटी, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और स्त्री अधिकारों के प्रति असंदिग्ध प्रतिबद्धता उन्हें भीड़ से अलग पहचान देती है। पार्लियामेंट के सामने उनकी स्ट्रीट स्पीच हमने कई बार देखी: "जितना आप लोगो को आतंकित कर सके, उतने ही बड़े आप नेता हैं। आप इस देश की जनता को आतंकित करना चाहते हैं, और हम जो जनता के प्रतिनिधि के तौर पर रिपोर्टिंग करना चाहते हैं, आप हमें भी आतंकित करना चाहते हैं।"

13 जून, 1997 को दिल्ली के उपहार सिनेमा में आग लगी. कई लोगो की मौत हुई। वो बुलेटिन उनका आखिरी साबित हुआ। ब्रेन हैमरेज हुआ। 27 जून को उनकी मौत हो गई। वो पचास साल के भी नहीं थे, तब मैं बीबीसी रेडियो खूब सुना करता था। बिजली होती नहीं हमारे कस्‍बे में कि टीवी पे न्यूज देखा जाए, बीबीसी पर ही उनकी मौत की खबर आई और सही मायने में तब पता चला कि वो कितने बड़े पत्रकार थे। एसपी ने पहले प्रिंट और भी टीवी पत्रकारिता में वो शोहरत पाई, जो आज तक बहुत कम लोगो को मिली है। श्रद्धांजलि।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by समाचार4मीडिया ब्यूरो
Published - Thursday, 27 June, 2019

एसपी को पूरा जानने के लिए जरूर पढ़ें ये लेख



27जून 1997 को हो गया था वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह का निधन

 निरंजन परिहार, वरिष्ठ पत्रकार।।

शुक्रवार था। काला शुक्रवार। इतना काला कि वह काल बनकर आया और हमारे एसपी को लील गया। 27 जून 1997 को भारतीय मीडिया के इतिहास में सबसे दारुण और दर्दनाक दिन कहा जा सकता है। उस दिन से आज तक पूरे 22 साल हो गए। एसपी सिंह हमारे बीच में नहीं है, ऐसा बहुत लोग मानते हैं, लेकिन अपन नहीं मानते। वे जिंदा हैं, आप में, हम में और उन सब में, जो खबरों को खबरों की तरह नहीं, जिंदगी की तरह जीते हैं। यह हमको एसपी ने सिखाया। वे सिखा ही रहे थे कि...चले गए।

एसपी। जी हां, एसपी। गाजीपुर गांव के सुरेंद्र प्रताप सिंह को इतने बड़े संसार में इतने छोटे नाम से ही यह देश जानता है। वह आज ही का दिन था, जब  टेलिविजन पर खबरों का एकदम नया और गजब का संसार रचने वाला एक शख्स हमारे बीच से सदा के लिए चला गया। तब दूरदर्शन ही था, जिसे पूरे देश में समान रूप से सनातन सम्मान के साथ स्वीकार किया जाता था। देश के इस राष्ट्रीय टेलिविजन के मेट्रो चैनल की इज्जत एसपी की वजह से बढ़ी। क्योंकि वे उस पर रोजाना रात दस बजे खबरें लेकर आते थे। टीवी के परदे से पार झांकता, खबरों को जीता, दृश्यों को बोलता और शब्दों को तोलता वह समाचार पुरुष खबरों की दुनिया में जो काम कर गया, वह आज तक कोई और नहीं कर पाया।

27 जून 1997 को दूरदर्शन के दोपहर के बुलेटिन पर खबर आई– ‘एसपी सिंह नहीं रहे।’  और दुनिया भर को दुनिया भर की खबरें देने वाला एक आदमी एक झटके में खुद खबर बनकर रह गया। मगर, यह खबर नहीं थी। एक वार था, जो देश और दुनिया के लाखों दिलों पर बहुत गहरे असर कर गया। रात के दस बजते ही पूरे देश को जिस खिचड़ी दढ़ियल चेहरे के शख्स से खबरें देखने की आदत हो गई थी, वह शख्स चला गया। देश के लाखों लोगों के साथ अपने लिए भी वह सन्न कर देने वाला प्रहार था।

अपने जीवन के आखिरी न्यूज बुलेटिन में बाकी बहुत सारी बातों के अलावा एसपी ने तनिक व्यंग्य में कहा था, ‘मगर जिंदगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है।’ टेलिविजन पर यह एसपी के आखिरी शब्द थे। एसपी ने यह व्यंग्य उस तंत्र पर किया था जो मानवीय संवेदनाओं को ताक पर रखकर जिंदगी को सिर्फ नफे और नुकसान के तराजू में तोलता है। उस रात का वह व्यंग्य एसपी के लिए विड़ंबना बुनते हुए आया और उन्हें लील गया। इतने सालों बाद भी अपना एसपी से एक सवाल जिंदा है और वह यही है कि-खबरें तो अभी और भी थीं एसपी और जिंदगी भी अपनी रफ्तार से चलती ही रहती, पर आप क्यों चले गए?

इतने सालों बाद आज भी हमको लगता है, कि न्यूज टेलिविजन और एसपी, दोनों पर्याय बन गए थे एक-दूसरे का। ‘आजतक’ को जन्म देने, उसे बनाने, सजाने–संवारने और दृश्य खबरों के संसार में नई क्रांति लाकर खबरों के संसार में नंबर वन बन बैठे एसपी ने ‘आजतक’ को ही अपना पूरा जीवन भी दान कर दिया। जीना-मरना तो खैर अपने हाथ में नहीं है, यह अपन जानते हैं। फिर भी, यह कहते हैं कि एसपी अगर ‘आजतक’ में नहीं होते तो शायद कुछ दिन और जी लेते।

‘बॉर्डर’ फिल्म एसपी की जिंदगी की भी ‘बॉर्डर’ बन आई थी। सनी देओल के बेहतरीन अभिनय वाली यह फिल्म देखने के लिए दिल्ली के ‘उपहार’  सिनेमा में उस दिन बहुत सारे बच्चे आए थे। वहां भीषण आग लग गई और कई बच्चों के लिए वह सिनेमाघर मौत का ‘उपहार’ बन गया। बाकी लोगों के लिए यह सिर्फ एक खबर थी। मगर बेहद संवेदनशील और मानवीयता से भरे मन वाले एसपी के लिए यह जीवन का सच थी। जब बाकी बुलेटिन देश और दुनिया की बहुत सारी अलग-अलग किस्म की खबरें परोस रहे थे, तो उस शनिवार के पूरे बुलेटिन को एसपी ने ‘बॉर्डर’ और ‘उपहार’ को ही सादर समर्पित कर दिया।

टेलिविजन पर खबर परोसने में यह एसपी का अपना विजन था। शनिवार सुबह से ही अपनी पूरी टीम को लगा दिया और शाम तक जो कुछ तैयार हुआ, उस बुलेटिन को अगर थोड़ा तार-तार करके देखें, तो उसमें एसपी का एक पूरा रचना संसार था। मानवीय संवेदनाओं को झकझोरते दृश्यों वाली खबरों को एसपी ने जिस भावुक अंदाज में पेश किया था, उसे इतने सालों बाद भी यह देश भूला नहीं है।

दरअसल, वह न्यूज बुलेटिन नहीं था। वह कला और आग के बीच पिसती मानवीयता के बावजूद क्रूर अट्टहास करती बेपरवाह सरकारी मशीनरी और रुपयों की थैली भरनेवाले सिनेमाघरों के स्वार्थ की सच्चाई का दस्तावेज था। एसपी ने उस रात के अपने इस न्यूज बुलेटिन में इसी सच्चाई को तार-तार किया, जार-जार किया और बुलेटिन जैसे ही तैयार हुआ, एसपी ने बार-बार देखा, फिर जार-जार रोए। जो लोग एसपी को नजदीक से जानते थे, वे जानते थे कि एसपी बहुत संवेदनशील हैं, मगर इतने..?

दरअसल, एसपी के दिमाग की नस फट गई थी। जिन लोगों ने शुक्रवार के दिन ‘बॉर्डर’ देखने ‘उपहार’ में आए बच्चों की मौत के मातम भरे मंजर को समर्पित शनिवार के उस ‘आजतक’ को देखा है, उन्होंने इतने साल बाद भी आज तक उस जैसा कोई भी न्यूज बुलेटिन नहीं देखा होगा, यह अपना दावा है। यह भी लगता है कि हृदय विदारक शब्द भी असल में उसी न्यूज बुलेटिन के लिए बना होगा।

एसपी की पूरी टीम ने जो खबरें बुनीं, एसपी ने उन्हें करीने से संवारा। मुंबई से खास तौर से ‘बॉर्डर’ के गीत मंगाए। उन्हें भी उस बुलेटिन में एसपी ने भरा। धू– धू करती आग, जलते मासूम, बिलखते बच्चे, रोते परिजन, कराहते घायल, सम्हालते सैनिक, और मौन मूक प्रशासन को परदे पर लाकर पार्श्व में ‘संदेसे आते हैं...’ की धुन एसपी ने इस तरह सजाई कि क्रूर से क्रूर मन को भी अंदर तक झकझोर दे। फिर एसपी तो भीतर तक बहुत संवेदनशील थे। कोई बात दिमाग में अटक गई। यह न्यूज बुलेटिन नहीं, आधे घंटे की पूरी डॉक्यूमेंट्री थी। और यही डॉक्यूमेंट्रीनुमा न्यूज बुलेटिन एसपी के दिमाग की नस को फाड़ने में कामयाब हो गया।

जिंदगी से लड़ने का जोरदार जज्बा रखनेवाले एसपी अस्पताल में पूरे तेरह दिन तक उससे जूझते रहे। मगर जिंदगी की जंग में आखिर हार गए। सरकारी तंत्र की उलझनभरी गलियों में अपने स्वार्थ की तलाश करनेवालों का असली चेहरा दुनिया के सामने पेश करने वाले अपने आखिरी न्यूज बुलेटिन के बाद एसपी भी आखिर थक गए। बुलेटिन देखकर अपने दिमाग की नस फड़वाने के बाद तेरह दिन आराम किया और फिर विदाई ले ली।

पहले राजनीति की फिर पत्रकारिता में आए एसपी ने 3 दिसंबर 1948 को जन्मने के बाद गाजीपुर में चौथी तक पढ़ाई की। फिर कोलकाता में रहे। 1964 में बीए के बाद राजनीति में आए, पर खुद को खपा नहीं पाए। सो, 1970 में कोलाता में खुद के नामवाले सुरेंद्र नाथ कॉलेज में लेक्चररशिप भी की। पर, मामला जमा नहीं। दो साल बाद ही ‘धर्मयुग’ में प्रशिक्षु उप संपादक का काम शुरू किया। फिर तो रुके ही नहीं। रविवार, नवभारत टाइम्स और टेलीग्राफ होते हुए टीवी टुडे आए। और यहीं आधे घंटे का न्यूज बुलेटिन शुरू करने का पराक्रम किया, जो उनसे पहले इस देश में और कोई नहीं कर पाया। वे कालजयी हो गए। कालजयी इसलिए, क्योंकि दृश्य खबरों के संसार का जो ताना बाना उनने इस देश में बुना, उनसे पहले और उनके बाद और कोई नहीं बुन पाया। 

टेलिविजन खबरों के पेश करने का अंदाज बदलकर एसपी ने देश को एक आदत सी डाल दी थी। आदत से मजबूर उन लोगों में अपने जैसे करोड़ों लोग और भी थे। लेकिन मीडिया में अपन खुद को खुशनसीब इसलिए मानते हैं, क्योंकि अपन एसपी के साथ जब काम कर रहे थे तो उनके चहेते हुआ करते थे। अपन इसे अपने लिए गौरव मानते रहे हैं।

एसपी जब टेलिविजन के काम में बहुत गहरे तक डूब गए थे, तो उन्होंने एक बार अपन से कहा था, जो वे अकसर कई लोगों को कहा करते थे, ‘यह जो टेलिविजन है ना, प्रिंट मीडिया के मुकाबले आपको जितना देता है, उसके मुकाबले आपसे कई गुना ज्यादा वसूलता है।’ एसपी ने बिल्कुल सही कहा था। टेलिविजन ने एसपी को शोहरत और शाबासी बख्शी, तो उसकी कीमत भी वसूली। और  यह कीमत एसपी को अपनी जिंदगी देकर चुकानी पड़ी।

मगर आपने तो आखिरी बार भी यही कहा था एसपी कि ‘जिंदगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है।’ पर, जिंदगी तो थम गई। मगर खबरें अभी और भी हैं, जो आज भी खबर हो जाने के लिए एसपी का इंतजार कर रही हैं।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)
समाचार4मीडिया ब्यूरो by समाचार4मीडिया ब्यूरो
Published - Thursday, 27 June, 2019