Thursday, March 21, 2024

एसपी सिंह के बाद की टीवी पत्रकारिता

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एसपी सिंह के बाद की टीवी पत्रकारिता

16 जून 1997। सुबह का समय। सुरेंद्र प्रताप सिंह अचानक घर पर गिर पड़े। दोपहर होते होते पता चला कि ये साधारण बेहोशी नहीं थी। कोमा में थे एसपी। ब्रेन हेमरेज हो गया था। एसपी अपने जीवन के चौथे दशक में ही थे। 27 जून को अपोलो अस्पताल के डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। दिल्ली के लोदी रोड शवदाह गृह में उनके भतीजे और पत्रकार चंदन प्रताप सिंह ने शव को मुखाग्नि दी।
ग्यारह साल बाद आज पत्रकारिता, खासकर हिंदी टीवी न्यूज पत्रकारिता एक रोचक दौर में है। भारत में टीवी पत्रकारिता में मॉडर्निटी की शुरुआत आप एसपी के आज तक से मान सकते हैं। जिन लोगों ने एसपी का काम देखा है, या सुना है, या उनसे जुड़ी किसी चर्चा में शामिल हुए हैं, या उनके बारे में कोई राय रखते हैं, उनकी और बाकी सभी की प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं।

ये एस पी को श्रद्धांजलि देने का समय नहीं है। इसकी जरूरत भी नहीं है। एसपी मठ तोड़ने के हिमायती थे। ये क्या कम आश्चर्य की बात है कि एसपी के लगभग पांच सौ या उससे भी ज्यादा लेख और इंटरव्यू यहां-वहां बिखरे हैं, लेकिन उनका संकलन अब तक नहीं छप पाया है। एसपी कहते थे - जो घर फूंके आपनो, चले हमारे साथ। एसपी कोई चेला मंडली नहीं छोड़ गये। एसपी किसी चेलामंडली के बिना ही कल्ट बन गये। भारत में पत्रकारिता के अकेले कल्ट फिगर।

ऐसे एसपी की याद में आप स्मारक नहीं बना सकते, लेकिन मौजूदा पत्रकारिता पर बात ज़रूर रख सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि हिंदी टीवी पत्रकारिता में ये घटाटोप अंधकार का दौर है और कि ये घनघोर पतन का दशक साबित हुआ।

आपके पास शायद रोशनी की कोई किरण हो।

मेरी एसपी सिंह से मुलाकात संतोष भारतीय के माध्यम से हुई : कमर वहीद नकवी

 

मेरी एसपी सिंह से मुलाकात संतोष भारतीय के माध्यम से हुई : कमर वहीद नकवी

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Category: आवाजाही, कानाफूसी...
Created on Tuesday, 22 May 2012 13:55
Written by पुष्कर पुष्प
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आजतक चैनल एस.पी.सिंह का ही चमत्कार था :  शुरुआत में सुरेन्द्र प्रताप सिंह से परिचय 'रविवार' पत्रिका के माध्यम से हुआ. उन दिनों मैं बनारस में था. बनारस के अखबारों में छपे विज्ञापनों से यह पता चला कि हिन्दी की एक नई पत्रिका 'रविवार' नाम से छपने वाली है. उस समय की बड़ी पत्रिका 'दिनमान' थी और प्रायः सभी बुद्धिजीवी और पत्रकार दिनमान को ही पढ़ते थे. रविवार के बारे में जानने के बाद मैंने यह देखने के लिए पहला अंक ख़रीदा कि देखें कौन सी और कैसी पत्रिका है. रविवार के पहले अंक में बतौर संपादक एम.जे.अकबर का नाम था. लेकिन उसके बाद के अंकों में सुरेन्द्र प्रताप सिंह का नाम आया और फिर वह पत्रिका अच्छी लगने लगी.

अच्छी लगने का सबसे बड़ा कारण यह था कि उस समय हिन्दी में ऐसी कोई पत्रिका नही थी. जैसा कि मैंने पहले भी जिक्र किया कि उस समय की सबसे स्थापित पत्रिका दिनमान थी लेकिन वह बहुत ही अधिक गंभीर और विश्लेषण पर आधारित पत्रिका थी. उसके किसी भी लेख को समझने के लिए कम-से-कम तीन बार पढ़ना पड़ता था. नहीं तो यह समझ में ही नही आता था कि आख़िर लिखा क्या है. फिर भी यह एक बहुत ही अच्छी पत्रिका थी और इससे काफी कुछ सिखने को मिला. यह हमलोगों का सौभाग्य था कि जब हम कुछ करने के लिए तैयार हो रहे थे उस समय दिनमान जैसी पत्रिका मौजूद थी.

दूसरा जो बड़ा सौभाग्य था वह रविवार जैसी पत्रिका की मौजूदगी. रविवार के माध्यम से जैसी पत्रकारिता की शुरुआत हुई वह अपने आप में बेमिसाल थी. मेरी राय में आधुनिक पत्रकारिता का बीज कही था तो वह रविवार था. आज जो कुछ भी हिन्दी पत्रकारिता का स्वरुप है वह रविवार की ही देन है. उन दिनों हिन्दी के अखबार अनुवाद के अखबार हुआ करते थे उस समय के बड़े पत्र - पत्रिकाओं में भी साहित्य को छोड़कर बाकी सबकुछ अनुवादित सामग्री ही हुआ करता थी हिन्दी के अखबारों के लिए अलग से रिपोर्टर नही रखे जाते थे और न ही फील्ड रिपोर्टिंग जैसी कोई परंपरा थी. पीआईबी और हिन्दी की समाचार एजेंसियों के भरोसे हिन्दी के अखबार और पत्र-पत्रिकाएं चलते थे. लेकिन रविवार ने नई शुरुआत की और हिन्दी के पत्रकार रिपोर्टिंग के लिए फील्ड में जाने लगे और इस तरह एक नई शुरुआत हुई.

वह दौर ऐसा था जब दंगे बहुत हुआ करते थे. रविवार में उदयन शर्मा और संतोष भारतीय की ऐसी-ऐसी ज़बरदस्त रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसे पढ़कर रोमांचित हुए बिना नही रह सकते. इन रिपोर्ट्स को पढ़कर सहजता से अनुमान लगाया जा सकता था कि रिपोर्टर ने अपनी जान को कितने बड़े खतरे में डालकर इस रिपोर्ट को 

नकवी जी

नकवी जी

तैयार किया है. हिन्दी पत्रकारिता के लिहाज़ से यह एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था और हिन्दी के जो भी पत्रकार है उनको इस बात के लिए एस.पी.सिंह का ऋणी होना ही चाहिए. पत्रकारिता को एक नया स्वरुप देने का श्रेय उन्ही को जाता है. एस.पी.सिंह ने पत्रकारिता को न केवल नई दिशा दी बल्कि हिन्दी के पत्रकारों में इस आत्मबल को जगाया कि हिन्दी के पत्रकार भी अच्छी रिपोर्टिंग कर सकते हैं. उदयन शर्मा की रिपोर्ट का जब अंग्रेज़ी में अनुवाद करके संडे मैगजीन में छापा जाने लगा तो हिन्दी के पत्रकारों को पहली बार एहसास हुआ कि हिन्दी की अच्छी रिपोर्ट का भी अंग्रेज़ी में अनुवाद हो सकता है और यह अपने आप में एक बड़ा परिवर्तन था.

मेरी एस.पी.सिंह से औपचारिक मुलाकात संतोष भारतीय के माध्यम से हुई. संतोष भारतीय ने ही उनसे मेरा परिचय करवाया इसके बाद जब वे नवभारत टाईम्स में संपादक बन कर आए तब मैं नवभारत टाईम्स, लखनऊ में न्यूज़ एडिटर हुआ करता था वहां पर सीधे तौर पर तो उनके साथ काम करने का मौका नही मिला उनके साथ काम करने का मौका तब मिला जब वे आजतक में संपादक बन कर आए. हिन्दी प्रिंट मीडिया में जो परिवर्तन उन्होंने किया था वही कहानी टेलीविजन में दुहरायी गई ऐसा बहुत कम होता है कि एक व्यक्ति जिसने एक बहुत बड़ा काम किसी एक क्षेत्र में कर दिया हो , वही व्यक्ति उतना ही बड़ा काम उतनी ही सफलता से दुबारा दुहराए .

आज अंग्रेज़ी और हिन्दी टेलीविजन न्यूज़ का जो बूम है उसके पीछे आजतक की लोकप्रियता एक बहुत बड़ा कारण है क्योंकि आजतक ख़बरों का एक ऐसा कार्यक्रम बन गया कि जिंदगी उसके आगे - पीछे होने लगी पहले आजतक 9.30 बजे आता था. तब लोग आजतक देखकर 10.00 बजे सो जाते थे बाद में दूरदर्शन ने कहा कि 9.30 बजे प्राईम टाईम स्लाट है और इसमें हमलोग धारावाहिकों का प्रसारण करेंगे. आपलोग 10.00 बजे का टाईम ले लें. इस बात पर हम सब लोग बड़े चिंतित हुए और हमलोगों ने सोंचा कि यह कार्यक्रम अब बैठ जाएगा. यह चल नही पायेगा और इसकी लोकप्रियता ख़त्म हो जाएगी. 10 बजे तक तो सारे लोग सो जाते हैं इस कार्यक्रम को कौन देखेगा. लेकिन यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जब 10 बजे कार्यक्रम की शुरुआत हुई तब लोगों ने अपने सोने के समय की आदत को एसपी सिंहबदल दिया और आजतक की लोकप्रियता बरक़रार रही. यह एक अनोखा परिवर्तन था.

समय के साथ आजतक की लोकप्रियता और बढ़ी और बाद में यह 24 घंटे के न्यूज़ चैनल में तब्दील हो गया. आजतक की इसी लोकप्रियता की वजह से कई और चैनल आए और धीरे - धीरे यह क्रम बढ़ता गया. आजतक ने देश में एक नए तरह के न्यूज़ टेलीविजन की शुरुआत की जिसने देखते - देखते पुरी दुनिया बदल दी. एसपी सिंह का ही यह चमत्कार था.

एसपी सिंह जनमानस के बीच बेहद लोकप्रिय थे. एस पी सिंह ने लोगों के दिलों को प्रभावित किया. उनके निधन के बाद हमलोगों ने आजतक पर इस समाचार को प्रसारित किया और जगह - जगह पर अपने कैमरे भेजे और लोगों को उनके लिए फूट - फूटकर रोते हुए देखा . आज भी जब कई लोगों को हम अपना परिचय देते है तो सामने वाला के जुबां पर एस.पी.सिंह का नाम आ जाता है वैसे उनकी कामयाबी की दो प्रमुख वजह उनकी ईमानदारी और न्यूज़ के लिए न्यूज़ रूम में वातावरण तैयार करने की उनकी अदम्य क्षमता थी. सुबह 10 बजे के न्यूज़ मीटिंग से लेकर ,रिपोर्टर को निर्देश देने और छोटी -से- छोटी खबर पर भी उनकी नज़र रहती थी. किसी ख़बर की सूक्ष्म - से - सूक्ष्म जानकारी भी वे रखते थे.

कई बार हमलोगों से चूक हो जाती थी पर उनकी नज़र हर ख़बर पर रहती थी . पीटीआई मॉनिटर करना मेरा काम था लेकिन कई बार एस.पी.सिंह आकर बताते थे कि पीटीआई पर यह ख़बर आ गई है और आपलोगों को इसे करना चाहिए. ऐसा एक दो बार नही कई बार हुआ . यह इस बात को दर्शाता है कि ख़बरों को लेकर वे कितने सचेत (एलर्ट) रहते थे. दिनभर में वह 18 - 20 अखबार पढ़ लेते थे. उन्हें कई भाषाओँ की जानकारी थी . हिन्दी और अंग्रेज़ी के अलावा वह बांग्ला , मराठी और गुजराती के अखबार भी पढ़ते थे. यही कारण था कि उनकी जानकारी व्यापक थी और दूर - दराज़ के किसी इलाके की सूक्ष्म -से- सूक्ष्म जानकारी भी वह रखते थे. वे हर चीज़ की गहराई में जाकर उसे समझने की कोशिश करते थे जो उनकी सबसे बड़ी खासियत थी. देखा जाय तो एस.पी.सिंह की हिन्दी पत्रकारिता में जो देन है उसे शब्दों में बयान नही किया जा सकता।

(फरवरी 2008 में सुरेन्द्र प्रताप सिंह की याद में आयोजित एक संगोष्ठी में आजतक के न्यूज़ डायरेक्टर कमर वहीद नकवी के दिए गए भाषण का संपादित अंश. इसे संपादित-संयोजित पुष्कर पुष्प ने किया है)

20 साल पुरानी एक शाही शादी

 

आनंद स्‍वरूप वर्मा
एसपी पर कई संदर्भों में चर्चा चल रही है। एक लाइन यह है कि एसपी ने हिंदी पत्रकारिता की कुछ जकड़नों को तोड़ा और नये मानक गढ़े। एक लाइन यह है कि एसपी भाषाई पत्रकारिता के उस महीन बिंदु पर थे, जहां उनकी काबिलियत और कुछ संयोगों ने उन्‍हें शिखर पर पहुंचाया - लेकिन ये शिखर आदर्श का शिखर नहीं था। एसपी की मौत पर कथाकार उदय प्रकाश ने एक बहुत ही मार्मिक ज़‍िक्र हमें सौंपा है, जिसे हम जल्‍द ही आपसे साझा करेंगे। अभी आनंद स्‍वरूप वर्मा की एक रपट हम प्रकाशित कर रहे हैं, जो उन्‍होंने आज से बीस साल पहले एसपी की शादी पर लिखी थी। इसे उपलब्‍ध कराया है हमारे दोस्‍त विश्‍वदीपक ने, जिनका गिरिराज किशोर से लिया गया एक इं‍टरव्‍यू आपको याद होगा। खैर, आनंद स्‍वरूप वर्मा की यह रपट नयी पत्रकारिता की नैतिकता के पीछे छुपी ढोंग जैसी किसी चीज़ को खोजने में मददगार हो सकती है।
9 मार्च, 1988 को राजधानी दिल्‍ली के पत्रकारों एवं अतिविशिष्‍ट जनों ने एक संपादक की शादी की अवसर पर आयोजित जिस भोज में हिस्‍सा लिया, वह अविस्‍मरणीय है। किसी पत्रकार के लिए ऐसा शाही इंतज़ाम अब तक के इतिहास में कभी नहीं हुआ था। दिल्‍ली के पांचसितारा होटल मौर्या शेरटन के सबसे महंगे हिस्‍से नांदिया गार्डेन में इस पार्टी का आयोजन था। इस भव्‍य समारोह में सत्ता और विपक्ष के राजनेता, चोटी के अभिनेता, खिलाड़ी, उद्योगपति और अनेक राज्‍यों के मुख्‍यमंत्रियों सहित हिंदी के अनेक कवि, लेखक और पत्रकार थे। वे पत्रकार भी बड़े उत्‍साह के साथ व्‍यवस्‍था संभालने में लगे थे, जिन्‍होंने कुछ ही दिनों पहले माधवराव सिंधिया की शादी पर की गयी फिज़ूलख़र्ची के ख़‍िलाफ लिखने और छापने मे कोई कसर न छोड़ी थी। नांदिया गार्डेन के अलावा होटल के चार कमरो मे उन लोगो के लिए उत्तम व्‍यवस्था की गयी थी, जिंनकी मदिरा पान मे रुचि थी। कुल मिलाकर दो से हज़ार लोगो ने खांनपान मे हिस्सा लिया और वर-वधू को आशीर्वाद दिया। इस सारे आयोजन पर लगभग ढाई लाख रुपये व्‍यय हुए। अगर यह गोविंद निहलानी या श्याम बेनेगल की किसी फिल्म का दृश्‍य होता तो कोई भी दर्शक इसे अतिरंजनापूर्ण चित्रण मानता। हो सकता है, इन पंक्तियो को पढ़ते समय उन लोगो को भी यह विवरण कुछ अतिशयोक्ति लगे, जो वहां मौजूद नहीं थे।

यह शादी नवभारत टाइम्स दिल्ली के स्थानीय संपादक सुरेंद्र प्रताप सिह की थी। वही एसपी सिंह, जिन्‍होंने 1977 मे फणीश्वर नाथ रेणु की कवर स्‍टोरी वाले रविवार के प्रवेशांक के साथ हिंदी पत्रकारिता मे एक नयी क्रांति का सूत्रपात किया था। यह और बात है कि जयप्रकाश नारायण की सपूर्ण क्रांति की तरह इसका हश्र भी कुछ बहुत सुखद नही रहा और इनके द्वारा रोपे गये पौधे के ढेर सारे फूल या तो असमय मुरझा गये या सत्ता के गलियारों मे रखे गुलदस्तो की शोभा बढ़ाने लगे।

यह आयोजन अपने आप में ही आज की पत्रकारिता (ख़ास तौर से हिंदी पत्रकारिता) और आज की राजनीति पर एक फूहड़ टिप्‍पणी थी। देवी लाल से लेकर एचकेएल भगत तक जिस बेताबी के साथ इस आयोजन में अपनी हाज़‍िरी दर्ज कराने के लिए बेचैन दिखाई दे रहे थे, उससे लगता था कि सचमुच हिंदी का पत्रकार अब फोर्थ स्‍टेट वाला हो गया है। राज बब्बरशत्रुघ्‍न सिन्हाकपिलदेव के अलावा तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिह, बिहार के मुख्यमंत्री भागवत झा आज़ाद, हरियाणा के मुख्यमंत्री देवीलाल, मध्यप्रदेश के तत्‍कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा, राजस्थान के मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर, कर्नाटक के मुख्यमंत्री रामकृष्‍ण हेगड़े, गुजरात के मुख्यमंत्री अमर सिह चौधरी, केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह, जनमोर्चा नेता वीपी सिंहआरिफ़ मोहम्मद ख़ानसतपाल मल्लिक, लोकदल नेता हेमवती नंदन बहुगुणाशरद यादवकेसी त्यागी सहित हर पार्टी के नेता अपने-अपने उपहार के साथ मौजूद थे। उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ मंत्री ख़ास तौर से इसी काम के लिए आये थे। मंत्रियों और मुख्‍यमंत्रियों के साथ आये सैकड़ों आईएएस अधिकारियों की फौज अलग थी। शायद राजीव गांधी भी अपने कार्यक्रम में इतनी विविधता नहीं जुटा सकते। समारोह के समय ही प्रधानमंत्री की कैबिनेट की मीटिंग चल रही थी और बार-बार कुछ मंत्रियों का संदेश होटल तक पहुंच रहा था कि मजबूरीवश हाज़‍िर नहीं हो पा रहे हैं। रात में क़रीब साढ़े दस बजे मीटिंग ख़त्‍म होते ही एचकेएल भगत मौर्या शेरेटन की ओर रवाना हुए और रास्‍ते भर वायरलेस से संदेश भेजते रहे कि अब इतनी दूर तक पहुंच गये हैं। अपने ब्‍लैक कैट कमांडोज़ के साथ एचकेएल भगत ने समारोह का समापन किया।

9 मार्च को ही दिल्‍ली में लोकदल की एक बहुत बड़ी रैली थी। नयी दिल्‍ली का समूचा इलाक़ा हरी कमीज़ और हरी टोपी वाले हरियाणा के लोकदल कार्यकर्ताओं से भर गया था। इस रैली को संबोधित करते हुए हरियाणा के मुख्‍यमंत्री चौधरी देवीलाल ने यूपी के मुख्‍यमंत्री को खूब गालियां दी थीं। वह महेंद्र सिंह टिकैत आंदोलन के संदर्भ में बोल रहे थे और बता रहे थे कि ‘वीर बहादुर गदहा है। उसे शासन करना आता ही नहीं।’ कह रहे थे कि अगर उनके हाथ में उत्तर प्रदेश का शासन आ जाए, तो गन्‍ने की क़ीमत 35 रुपये क्विंटल कर दें। देवीलाल वीर बहादुर सिंह को जितनी ही गालियां देते, जनता उतनी ही ताली पीटती। वोटक्‍लब की सभा से सीधे देवीलाल जी मौर्या शेरेटन पहुंचे थे, जहां यूपी निवास से वीर बहादुर भी पहुंच चुके थे। वोट क्‍लब की जनता को क्‍या पता कि उनका नेता अभी जिसको जी भर गालियां दे रहा था, एक घंटे बाद ही उसके साथ मौर्या में चाय पी रहा है। समारोह में इन दोनों की ‘अश्‍लील उपस्थिति’ मौजूदा राजनीति पर एक व्‍यंग्‍य थी।

समारोह के आयोजक (जिन्‍होंने मंत्रियों और मुख्‍यमंत्रियों को बुलाने की ज़‍िम्‍मेदारी ली थी) अपनी सफलता पर मुग्‍ध थे। इनमें मुख्‍य रूप से दो ऐसे संपादक थे, जो काफी समय तक रिपोर्टर रह चुके थे। एक ने सत्ता पक्ष को संभाल लिया था, दूसरे ने विपक्ष को। वैसे, इस विशाल आयोजन से पहले कई मिनी आयोजन हो चुके थे और यह सिलसिला कई दिनों से चल रहा था। मौर्या की पार्टी से एक ही दिन पहले दोनों में से एक संपादक के घर पर भोर के चार बजे तक जश्‍न मनाया गया था। इसमें नारायण दत्त तिवारी, मुरली देवड़ा जैसे कांग्रेसियों के साथ लोकदल के शरद यादव और केसी त्‍यागी भी थे।

सुरेंद्र प्रताप सिंह के मित्रों ने एक बातचीत में कहा कि इसे किसी व्‍यक्ति विशेष की नहीं, बल्कि एक बड़े घराने से निकलने वाले राष्‍ट्रीय दैनिक के संपादक की शादी का आयोजन माना जाए। इन पंक्तियों के पाठकों से भी अनुरोध है कि वे इस टिप्‍पणी को किसी व्‍यक्ति विशेष के ख़‍िलाफ़ न मान कर आज की पत्रकारिता के संदर्भ में देखें। किसी पत्रकार की हैसियत इतना पैसा ख़र्च करने की नहीं है - हो सकता है कि यह सारा ख़र्च बेनेट कोलमैन कंपनी ने वहन किया हो या कंपनी के इशारे पर किसी उद्योगपति ने दे दिया हो। सवाल यह है कि क्‍या अज्ञेय या रघुवीर सहाय जैसे संपादकों के यहां कोई आयोजन होता तो वे मंत्रियों की इस उपस्थिति को पसंद करते? अव्‍वल तो वे इन्‍हें निमंत्रित ही नहीं करते और सौजन्‍यवश अगर कोई मंत्री या मंत्रीगण आ जाते तो वे ख़ुद के अंदर झांक कर देखते कि गड़बड़ी कहां है! मैं समझता हूं कि राजेंद्र माथुरप्रभाष जोशी या अरुण शौरी भी इसे पसंद नहीं करते। जिन मंत्रियों के भ्रष्‍टाचार के ख़‍िलाफ़ आपसे लगातार लिखते रहने की अपेक्षा की जाती है, उनसे अगर इतने मधुर संबंध दिखाई देते हैं, तो यह चिंता की बात है।

दूसरी तरफ राजनेताओं ने भी अब जान लिया है कि अख़बार के दफ़्तरों में कुछ प्रमुख लोगों को ‘पटाकर’ रखो और निश्चिंत होकर भ्रष्‍टाचार करते रहो। पिछले वर्ष मई में मेरठ से पकड़कर लाये गये मुसलमानों को जब पीएसी ने मार कर नहर में फ़ेंक दिया और ‘चौथी दुनिया’ ने ‘लाइन में खड़ा किया, गोली मारी और लाश बहा दी’ शीर्षक से समाचार प्रकाशित किया तो इसे दिल्‍ली के किसी राष्‍ट्रीय हिंदी दैनिक ने ‘लिफ्ट’ नहीं दिया। ज़रूरी नहीं कि ऐसा करने के लिए वीर बहादुर सिंह ने पत्रकारों को फोन किया हो - आपके संबंध इतने मधुर हैं कि आपका अवचेतन इन ख़बरों के प्रति उदासीन हो जाता है।

इस समारोह के बाद दिल्‍ली में हिंदी के दो और पत्रकारों के यहां शादी से संबंधित आयोजन हुए और उन्‍होंने भी उसी परंपरा का निर्वाह किया। अब मंत्रियों को जुटाना हिंदी पत्रकारों के लिए एक स्‍टेटस सिंबल हो गया है। हिंदी का पत्रकार वर्षों से अंग्रेज़ी पत्रकारों की उद्दंड उपेक्षा का शिकार होता रहा है और इससे उसके अंदर जो हीन ग्रंथि विकसित हुई, उसकी भरपाई अब वह शायद इन्‍हीं तरीक़ों से करना चाहता है।

मार्च में ही जम्‍मू कश्‍मीर के एक युवा मंत्री की शादी हुई, जिसमें उसने अपने किसी सहयोगी को नहीं आमंत्रित किया। अपने सहयोगियों की शिकायत पर उसने जवाब दिया कि यह उसक व्‍यक्तिगत और पारिवारिक मामला था, इसलिए उसने बंद रिश्‍तेदारों को बुला कर बड़ी सादगी के साथ विवाह किया। क्‍या हम इससे कुछ सबक ले सकेंगे?

समकालीन तीसरी दुनिया, नई दिल्‍ली, सितंबर-अक्‍टूबर, 1988 में छपी रपट

S.P.Singh : Icon of Hindi media

 

Tribute SP : Legacy of Ethics and courage in the media By Vidya Bhushan RawatSurendra Pratap Singh or SP as he was popularly known was one of the most iconic journalists of Hindi media at the time when it was opening up to new realities of television journalism. At the time when media particularly the vernacular media and its journalists were openly hobnobbing with the Hindutva lobby in the corporate and enjoyed the patronage, he was sharply different and committed to the profession of journalism. Yes, unlike many other veterans in the Hindi world, who crossed the thin line between journalism and politics, SP was clear about his motive and work. He never pretended to be a mass leader, nor was he a preacher. Those were the days of Indian media when many of the editors had the habit of coming to the front page under their by-line yet these temptations did not attract SP. He was happy with his contents and stood with the ethics of journalism. We all know that the vernacular journalists are habitual of political patronage and feel proud of their linkages. At the time when Hindi newspapers converted themselves to Hindu newspapers and the way they reported the entire Ramjanmbhumi-babari masjid controversy to say the least was shocking. The newspapers baron was playing tricks. Most of them owned both vernacular and English dailies and hence they cleverly allowed ‘freedom’ to their editors. So that was an interesting phase when the owners put different breed of Secularists and Hindutva sympathisers for their Hindi and English News papers. Many brought them in the name of literature. SP was not enamoured by literary figures. The fact is that after the demise of Rajendra Mathur, perhaps the most respected editors of his time, who actually was editor in chief of Navbharat Times when SP was editor, the Times Management brought a veteran Brahmin Vidya Niwas Mishra as the Editor in Chief of the newspaper and that brought a complete down fall of Navbharat Times, a newspaper who every body would subscribe. He knew how the journalists have openly joined hand with political parties and later Rajya Sabha seat was not a far away job but it was not surprising for him. He always mentioned that this has been happening since independence and journalists and writers were always ‘Promoted’ and ‘awarded’ the state for their own purposes. However, in the Ramjanmbhumi-Ayodhya matter even the owners of various newspapers jumped in and became ‘writers and journalists’. Their writing was completely irrational and unethical. They forced their reporters to twist the facts and distort the news. Even the press council reprimanded many of these newspapers. The Hinduisation or brahmanisation of Indian media is a continuation process with SP a victim of it. He stood against it and provided opportunities to budding journalists in his institution. He had faith in the youths and was that way an iconoclast who never believed in big names of the literature to be the best journalists. He always said that one can be a good writer but may not be a great journalist. And it proved when Vidya Niwas Mishra proved to be disastrous for Navbharat Times, which was a great institution before SP left it. SP continued with his writings and many of them appeared in English press also. However, his best days were yet to come. As Doordarshan allowed a half an hour news based programme Aaj Tak to India Today group with SP its head, the meaning of news changed for many of us. It was a sharply different news style than the boring faces of Doordarshan who would only report about the inauguration and death ceremonies of the political leaders and ministers. (Today, doordarshan seems to be better option than our preachy and self conscious anchors of the private channels). Aaj tak became very popular and SP synonymous to it. People would wait every night to here his voice and analysis. The best quality in him was that he was not judgemental and always left to his viewers to decide. As he said many time, his did not do journalism to fulfil any fixed agenda. He was committed to journalism and its ethics. For him, news should be ethical and should not promote mass hysteria. At a time when the entire country witness the ‘drinking of milk’ by Ganesha, SP had the capacity to send his reporter to a very ordinary shoemaker in Delhi and seek his opinion and explain the science behind the Ganesha drinking milk. He never appreciated such acts which were being promoted in the name of news. Upahar cinema tragedy in June, 1997 at Delhi, shook every one of us. We waited that night to listen to him. As he started speaking and narrating the entire sequence and we saw dead bodies, burnt corpus of young old being taken, people in distress, SP’s voice was choked on TV. He became philosophical too how the administration could be so callous that such kind of things can happen in the capital city of the country. The trauma of the cries of people was too much for him to bear. He struggled for life many days and finally succumbed to it on June 27th. SP is not there but his smiling face always remind us that news can not be just for sale or production. News must be ethical. One important point that our friends must learn from his experience is that not everything that brings crowd is great. It can make great news but there must be news behind the news too. Therefore, he not only showed the news of people queuing up to offer Ganesha milk but also exposed it showing how a common Dalit does not believe in all these miracles by showing an interview of a shoemaker. When Delhi was burning against Mandal Commission report, SP stood strong and refused to toe line of his peers in the media who came out openly asking students to come on the street and immolate themselves. Today, when we remember SP for his immense contribution to India media and how he changed the perception of media and how important it is for the budding journalists not to worship their elders but believe in getting into the depth of the news. He started various products right from Ravivar from Kolkata to Aaj Tak in Delhi and converted them into credible brands. People read him and watched his channel out of deep respect for him and credibility that he brought. You can not build credibility on compromise. It is built on ethics. Nobody ask you to have a particular ideology but commitment to truth and values and SP believed in it. Yes, whatever one say, he proved with his hard work that nothing is invincible and age does not matter. At a young age his left behind a credible legacy to us and hope those who worked with him or read him will actually take forward his legacy of commitment and impartiality to the news.
Posted 27th June 2011 by 

Sunday, January 29, 2023

एसपी ”मूर्ख-मूर्खाओं” को ही रखते थे क्योंकि वे सवाल नहीं पूछते!

 एसपी ”मूर्ख-मूर्खाओं” को ही रखते थे क्योंकि वे सवाल नहीं पूछते! पुण्यतिथि पर एक स्मरण…

June 29, 2013 - by जितेन्द्र कुमार  

भारत में टीवी पत्रकारिता के गॉडफादर माने जाने वाले सुरेन्द्र प्रताप सिंह उर्फ़ एसपी की आज पुण्यतिथि है. 1997 में उनकी मौत के बाद बीते दो दशक से ज्यादा वक़्त में भले एसपी के शिष्य और शिष्याएं टीवी चैनलों के सर्वेसर्वा बन चुके हैं और मीडिया की दिशा तय कर रहे हैं, लेकिन इसी अवधि में टीवी मीडिया जितना नैतिक और वैचारिक पतन का शिकार हुआ वह भी अद्भुत है. आखिर इसकी वजह क्या है? मूल शीर्षक “टेलीविज़न पत्रकारिता: सन्दर्भ एसपी सिंह” से लिखा गया यह लेख इस बात की पड़ताल करता है कि टीवी पत्रकारिता की सड़ांध बुनियाद में थी, स्‍तंभों में या फिर उस चूने-पेंट में है जिसे आज के संपादक खुलेआम दोषी ठहरा रहे हैं। यह लेख 2013 में इसी दिन जनपथ पर छपा था. इस लेख में अनामित व्‍यक्तियों और पदों को 2007 जनवरी के हिसाब से पढ़ें और समझें। (संपादक)

अपनी बात शुरू करने से पहले एक कहानी। बात उन दिनों की है जब दिल्ली में मेट्रो रेल शुरू ही हुई थी। मेरे एक मित्र मेट्रो से घर जा रहे थे। उन्हें कश्मीरी गेट पर मेट्रो का टिकट खरीदना था। उन्होंने टिकट खरीदते समय 50 रुपए का नोट दिया। टिकट लेते समय ही ट्रेन आ गई और वे हड़बड़ी में मेट्रो में बैठ गए। मेट्रो में बैठने के बाद उनको याद आया कि अरे, बकाया पैसे तो उन्हें मिले ही नहीं। अगले स्टेशन पर उतर कर उन्होंने इस बात की शिकायत ‘शिकायत कक्ष’ में की। थोड़ी देर पूछताछ और दरियाफ्त करने के बाद यह पाया गया कि सचमुच उनके पैसे वहीं रह गए हैं, अतः वे आकर अपने बचे हुए पैसे ले जाएं।

खैर, अगले दिन सवेरे उनसे मिलना था लेकिन उन्होंने फोन करके मुझसे आग्रह किया कि दोपहर के बाद मिलने का कार्यक्रम रखा जाए। जब हम मिले तो उन्होंने बताया कि वह कल वाली घटना की शिकायत मेट्रो प्रमुख सहित इससे जुड़े देश के तमाम लोगों से कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि जब आपको पैसे मिल गए हैं तो फिर शिकायत किस बात की कर रहे थे?  इस पर उनका जवाब था- ”देखिए, मेट्रो अभी बनने की प्रक्रिया में है, अभी जो भी खामियां हैं, अगर नीति-निर्माता और इसके कर्ता-धर्ता ईमानदारीपूर्वक चाहें तो वे खामियां दूर की जा सकती है। मैंने उन्हें सुझाव दिया है कि दिल्ली मेट्रो को ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए जिसमें यात्रियों को टिकट (टोकन) के साथ ही बचे हुए पैसे वापस कर दिए जाएं।” और थोड़े दिनों के बाद ही मेट्रो में यह व्यवस्था बन गई कि टोकन के साथ ही पैसे भी वापस किए जाने लगे। 

बात उन दिनों की है जब भारत में टेलीविज़न पत्रकारिता की शुरुआत हो रही थी- वर्ष 1993/94/95, एस.पी. सिंह (सुरेन्द्र प्रताप सिंह) कोलकाता से निकलने वाले अंग्रेजी दैनिक ‘द टेलीग्राफ’ के राजनीतिक संपादक से उठाकर ‘आजतक’ (तब तक यह चैनल नहीं बना था, दूरदर्शन पर सिर्फ एक समाचार का कार्यक्रम था) के प्रमुख ‘बना दिए’ गए थे। (‘बना दिए गए थे’ का जुमला एस.पी. का था। उनका कहना था कि वह इसके लिए तैयार नहीं थे, बस ए.पी. यानी अरुण पुरी ने जबरदस्‍ती उन्हें वीपी हाउस के लॉन से कंपीटेंट हाउस में लाकर बैठा दिया था)। इस प्रोग्राम के लिए स्लॉट तो मिल गया था लेकिन कार्यक्रम अभी तक शुरू नहीं हुआ था। ढेर सारे बेहतरीन प्रोफेशनल और सामाजिक सरोकार रखने वाले पत्रकार (एस.पी. के ‘सरोकार’ को ध्यान में रखकर) उनसे नौकरी मांगने और वैसे ही मिलने के लिए आते-जाते रहते थे। इन्‍हीं दोनों सिलसिले में मैं भी उनसे मिलता रहता था (हालांकि हमारी जान-पहचान 1992 से थी जब तथाकथित ‘राष्ट्रवादियों’ द्वारा बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश के हजारों संवेदनशील लोगों का समूह सड़कों पर उतर आया था और हम लोग सीलमपुर के दंगा प्रभावित क्षेत्र में काम कर रहे थे)।

यह एस.पी. के जीवन का वह दौर था जब वे प्रिंट मीडिया में अपना परचम फहराकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पांव रख रहे थे। इसी बीच दूरदर्शन पर ‘आजतक’ शुरू हो गया और वह कार्यक्रम धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगा। जानने वालों के लिए एस.पी. और आम लोगों के लिए एस.पी. सिंह अपने पत्रकारीय जीवन के शिखर पर विराजमान हो गए।

जिस रफ्तार से आजतक ‘सफल’ हो रहा था उसी तेजी से एस.पी. से मिलने वालों की भीड़ भी बढ़ती जा रही थी, लेकिन वह भीड़ सामाजिक सरोकार व चाहने वालों की ही नहीं थी बल्कि टीवी पर दिखने वाले उस ‘सफल’ पत्रकार की थी जिसने ‘खबरों’ को ‘बिकाऊ’ बना दिया था। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि मिलने वालों के साथ-साथ नौकरी मांगने वालों की भीड़ भी उसी अनुपात में बढ़ रही थी। ‘आजतक’ की ‘सफलता’ के साथ-साथ लोगों को रोजगार भी मिल रहे थे और टेलीविज़न में अधिकांश रोजगार देने वाले एस.पी. ही थे।

इसी बीच एस.पी. के चाहने वाले एक सज्जन से मेरी मुलाकात ‘आजतक’ के पहले वाले दफ्तर कनॉट प्लेस में ‘कंपीटेंट हाउस’ की सीढ़ी पर हुई। ये वह सज्जन थे जिनके बारे में एस.पी. का कहना था कि उत्तर भारत की वर्तमान राजनीति पर इससे बेहतर समझ वाला व्यक्ति उन्हें नहीं मिला है। मैं ऊपर न जाकर उनके साथ ही नीचे उतर आया। इधर आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि वह किसी की सिफारिश लेकर आए थे लेकिन एस.पी. ने साफ-साफ कह दिया कि टेलीविज़न पत्रकारिता में पढ़े व समझदार लोगों की ज़रूरत नहीं है। अगर वह चाहते हैं तो वह उनके वार्ड को किसी अखबार में रखवा सकते हैं। उसके बाद मैं जब भी एस.पी. से मिलने जाता, यह जानने की कोशिश करता कि वे पढ़े-लिखे व समझदार लोगों से इतना परहेज़ क्यों करते हैं, जबकि खुद वे पढ़े-लिखे व समझदार व्यक्ति माने जाते थे? अंत में बहुत झिझक के बाद एक बार मैंने उनसे पूछ ही लिया कि आप पढ़े-लिखे और समझदार लोगों से इतना परहेज़ क्यों करते हैं? इस पर उनका जवाब था- ‘वे प्रश्न बहुत पूछते हैं। इसलिए मैं मूर्ख-मूर्खाओं (मूर्खाओं का तात्पर्य बेवकूफ़ लड़कियों से था) को रखता हूं और उनसे जो भी काम कहता हूं वे तत्काल करके ला देते हैं।’ 

एक बार मैं एस.पी. से मिलने गया था और अपनी बारी का इंतजार कर रहा था। जब मैं उनके केबिन में दाखिल हुआ तो वे काफी गुस्से में थे। मुझे देखते ही झल्लाकर बोलने लगे- ”अभी जो सज्जन निकले हैं उन्हें नौकरी चाहिए! अब बताओ भला, इस विजुअल मीडिया में खादी पहनकर थोड़े न काम होगा! यू हैव टु बी स्मार्ट, सुंदर दिखना पड़ेगा!” एस.पी. उस समय इतने चिढ़े हुए थे कि उन्हें यह भी ध्यान नहीं था कि वे जिस व्यक्ति से यह बात कर रहे हैं वह खुद खादी पहने हुआ है और गाहे-बगाहे उनसे अपनी नौकरी की बात करता रहा है (यह संयोग है कि उस दिन मैंने उनसे इस संदर्भ में यह बात नहीं की थी)। इतने वर्षों के बाद जाकर उनकी बातों का अर्थ अब समझ में आने लगा है।

आज टेलीविज़न पत्रकारिता बाजार में ताल ठोककर खड़ी है, समाचार पहले से ज्यादा बिकाऊ है, न्यूज़ से करोड़ों की कमाई हो रही है और सैकड़ों लोगों को इस ‘इंडस्ट्री’ में रोजगार मिला है, तब यह प्रश्न उठता है कि बहस किस बात को लेकर हो? इसलिए एस.पी. आज बहस के केन्द्र में हैं, गुज़रने के इतने वर्ष के बाद भी।

आखिर एस.पी. को प्रश्न पूछने वालों या खादी पहनने वालों से इतना परहेज़ क्यों था? क्या इसे एक ‘ट्रेंड’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है? या इसका कोई वैचारिक धरातल भी है? इन सब बातों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। जिस समय एस.पी. हिन्दुस्तान में टेलीविज़न पत्रकारिता की ज़मीन तैयार कर रहे थे, वे बहुत अच्छी तरह जानते थे कि आने वाले दिनों में आज के ‘ट्रेंड’ का ही अनुसरण किया जाएगा। इसलिए वे पत्रकारों की ऐसी पीढ़ी तैयार करना चाह रहे थे जो पूरी तरह बाजारोन्मुखी हो और बाजार के सामने कोई भी समझौता करने को तैयार हो (व्यक्तिगत जीवन में वह खुद उदारीकरण के बड़े पैरोकार और समर्थक थे)। उन्हें पता था कि यह काम सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध और पढ़े-लिखे पत्रकारों से वह नहीं करवा सकते थे, क्योंकि समझदार पत्रकार उनसे कई तरह के प्रश्न पूछ सकते थे। निश्चय ही जब वे उनसे प्रश्न पूछते तो सवाल व्यक्तिगत तो नहीं ही होते बल्कि समाज की चिंता से जुड़ी बातें ही वे पूछ रहे होते जिसमें उदारीकरण, बाजार, सामाजिक दुर्दशा और सामाजिक सरोकार से जुड़े न जाने कितने अन्‍य प्रश्न होते और यहीं पर एस.पी. अपने को असहज महसूस करते। कल्पना कीजिए कि एस.पी. ने सामाजिक सरोकार से जुड़े सभी काबिल पत्रकारों को नौकरी पर रख लिया होता और वे मीडिया में महत्वपूर्ण पदों पर होते तो क्या बाजार उन्हें उसी तरह अपनी जद में ले पाता जैसा कि एस.पी. के बनाए ‘बड़े-बड़े महारथी पत्रकारों’ को अपनी जद में उसने ले लिया है? शायद एस.पी. का यही ‘विज़न’ था जो उन्हें एक साथ सामाजिक सरोकार का पुरोधा भी बनाता था और बाजार का प्रबल समर्थक भी!

दूसरी बात उनकी खादी पहनने वालों से चिढ़ने की है। उस वक्त मैं सोचता था कि आज अगर गांधी या लोहिया होते तो क्या एस.पी. उनसे भी उतना ही चिढ़ते! लेकिन धीरे-धीरे मेरी इस सोच में बदलाव आया और मैंने जाना कि वह उन्‍हीं प्रतिबद्ध, ग्रामीण, गरीब और मजबूर खादी पहनने वालों से चिढ़ते हैं जो उनसे कुछ मांगने (रोजगार, पैसे नहीं) आते हैं। जो उनसे कुछ मांगने नहीं आता था बल्कि प्रतिबद्धता के साथ-साथ शौक से भी खादी पहनता था उनकी वे इज्जत ही करते थे। इसका एक उदाहरण योगेन्द्र यादव हैं।

तीसरी बात, जब प्रतिबद्ध और सामाजिक सरोकारों से जुड़े पत्रकार टेलीविज़न मीडिया में होते तो आज की स्थिति कैसी होती, यह एक बार फिर काल्पनिक प्रश्न है। लेकिन अगर सचमुच ऐसा हुआ होता तो क्या इस बात को कोई भी इस विश्वास के साथ कह पाता कि टेलीविज़न पत्रकारिता में एकमात्र प्रतिबद्ध व्यक्ति एस.पी. सिंह ही हुए!

एस.पी. सिंह के पत्रकारीय जीवन को देखा जाय तो आपको एक भी ऐसा व्यक्ति नज़र नहीं आएगा जो सीधे तौर पर सामाजिक सरोकार से जुड़ा रहा हो या फिर एस.पी. ने किसी प्रतिबद्ध पत्रकार की व्यावसायिक जीवन में किसी तरह की मदद की हो। वे हमेशा ऐसे लोगों को ही प्रश्रय देते और प्रोत्साहित करते रहे जो पूरी तरह मूढ़ और सामाजिक सरोकारों से बिल्कुल कटे हुए थे। उदाहरण के लिए ‘आजतक’ में एस.पी. ने एक ऐसे व्यक्ति को नौकरी दी थी जो वहां काम करने वालों में सबसे अधिक संवेदनशील और राजनीतिक समझदारी वाले थे लेकिन उन्हें टेलीप्रिंटर पर टिकर देखने का काम दिया गया था जिसे वह एस.पी. निधन के बाद भी करते रहे और यह काम उन्होंने तकरीबन सात वर्षों तक किया। लेकिन एस.पी. ने उन्हें कभी रिपोर्टिंग के लिए नहीं भेजा।

इसी तरह उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति को नौकरी दी जिनके बारे में मशहूर है कि वह ‘बिकनी किलर’ चार्ल्स शोभराज का इंटरव्यू करने के लिए छोटा-मोटा अपराध कर के गोवा की जेल में चला गया जहां शोभराज को कैद करके रखा गया था और वहां से उसने शोभराज का इंटरव्यू किया। यह एक अलग तरह की पत्रकारिता हो सकती है और इसे शायद पत्रकारीय सरोकार ही कहा जाना चाहिए। लेकिन चार्ल्‍स शोभराज को तिहाड़ जेल से भगाने में मदद करना (आईबी की रिपोर्ट में यह बात दर्ज है) सिर्फ अपराध ही है। लेकिन एस.पी. ने उस व्यक्ति को इतना अधिक प्रश्रय दिया कि वह आज हिंदी के बड़े चैनल का प्रमुख बना हुआ है। दुखद ये है कि एस.पी. के पास ऐसे पत्रकारों की लंबी सूची थी जिन्‍हें वे बड़ा पत्रकार मानते थे और उन सबके साथ ‘मिलकर-जुलकर काम’ करते थे। बड़े पत्रकारों की सूची में प्रभु चावला सबसे ऊपर थे!

जब देश में टेलीविज़न पत्रकारिता की शुरुआत हो रही थी तो एस.पी. उसे दिशा दे सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसका कारण यह नहीं है कि उनमें यह करने का माद्दा नहीं था बल्कि इसका कारण यह है कि वह काफी ‘होशियार’ व्यक्ति थे और जो करना चाहते थे उसे कर लेते थे। ऐसा वह नवभारत टाइम्स में आंशिक रूप से ब्राह्मणवाद के वर्चस्व को कमजोर करके दिखा चुके थे (यह अलग बात है कि उनके निधन के इतने वर्षों बाद हिन्दी पत्रकारिता एक बार फिर उसी ब्राह्मणवाद की गिरफ्त में आ गई है क्योंकि आज के दिन उस काट का कोई केन्द्र नहीं रह गया है)। इसे एस.पी. ने पत्रकारिता की दूसरी पारी में फिर से प्रमाणित करके दिखा दिया जब उन्होंने सारे मीडियॉकर लेकिन गैर-ब्राह्मणों को टेलीविज़न पत्रकारिता का ‘स्टार’ बना दिया जो आज किसी न किसी रूप में देश के लगभग सभी हिन्दी चैनलों के  कर्ता-धर्ता की हैसियत में हैं। लेकिन टेलीविज़न पत्रकारिता की कमान प्रगतिशील, समाजोन्मुख और प्रतिबद्ध पत्रकारों के हाथ में जाए यह उन्हें कतई गवारा नहीं था। उनकी ऐसी इच्छा ही नहीं थी कि पत्रकारिता की कमान कभी ऐसे लोगों के हाथ में आए। वे वैचारिक रूप से दूसरी पंक्ति के पत्रकारों के खिलाफ थे (पहली पंक्ति के तो खुद थे) जो शायद उन्होंने ‘मालूला’ (मायावती, मुलायम और लालू)  से सीखी थी, जिसके वे बड़े प्रशंसक थे।

एस.पी. ने ‘समकालीन जनमत’ के पत्रकारिता विशेषांक में कृष्ण सिंह द्वारा किए गए साक्षात्कार में साफ-साफ पूछा था कि किसी को क्यों लगता है कि कोई सेठ क्रांति करने के लिए अखबार निकालेगा। उनका मानना था कि सेठ पैसा मुनाफा कमाने के लिए लगाता है। एस.पी. सिंह स्पष्ट तौर पर मानते थे कि अगर किसी को क्रांति करनी है तो पत्रकारिता करने की क्या जरूरत है! शायद एक सच यह भी है क्योंकि क्रांति और पत्रकारिता का क्या रिश्ता हो सकता है? लेकिन वे यह मानने को तैयार नहीं थे कि प्रतिबद्धता के साथ पत्रकारिता करके समाज निर्माण में सकारात्मक सहयोग किया सकता है।

यह बात दीगर है कि एस.पी. ने अपना एक ‘स्कूल’ बना लिया था (एस.पी. सिंह स्कूल ऑफ जनर्लिज्म) और उनके अनुयायी आज टेलीविज़न पत्रकारिता में चारों ओर भरे पड़े हैं। उसी स्कूल ऑफ थॉट के सबसे बड़े पैरोकार वर्तमान में (2007 में) आजतक के संपादक हैं। अगर आप उनसे मिलने जाते हैं और जब वह खाली होते हैं तो दो-तीन मीटिंग के बाद यह बताना कतई नहीं भूलते हैं कि वे गांव के एक बहुत ही ‘मामूली’ (‘गरीब’ शब्द का प्रयोग वह एकदम नहीं करते हैं) परिवार से आए हैं जिसने अपनी जिंदगी की शुरुआत बनारस में होटल मैनेजरी से की है और ‘प्रतिभा की बदौलत’ इस मुकाम तक पहुंचे हैं। उनकी प्रतिभा क्या थी या है यह ज्यादातर लोग नहीं जानते, लेकिन वह भी एस.पी. की तरह खादी पहनने वालों से गहरे चिढ़ते हैं और ग्रामीण को गंवार समझते हैं। एस.पी. खादी पहनने वालों से चिढ़ते थे यह बात तो थोड़ी बहुत समझ में आती है (हालांकि यह समझ पूरी तरह गलत है) क्योंकि उनकी परवरिश गांव में नहीं बल्कि कलकत्ता के ‘भद्रलोकों’ के बीच हुई थी लेकिन वे तो गांव के हैं, फिर वे ऐसे लोगों से क्यों चिढ़ते हैं? क्या इस देश में उदारीकरण शुरू होने से पहले भी ‘लुई फिलिप’,’एलेन सॉली’, ‘कलरप्‍लस’,’वैन ह्यूजन’ या फिर ’फैब इंडिया’ जैसे मशहूर ब्रांड के कपड़े मिलते थे जिसे पहनने का संस्कार उनमें था?

दुष्यंत कुमार के कुछ शब्दों को अगर उधार लूं और कहूं कि “मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है”, तो मैं यह कहना चाहता हूं कि यहां एस.पी. को एक व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक ‘फेनोमेनन’ के रूप में देखें, जिनकी टेलीविज़न पत्रकारिता में जबरदस्त पैठ है और जिनके अनुयायी एम.जे. अकबर सहित देश के बड़े-बड़े पत्रकार हैं। वे जब कहीं भाषण देने जाते हैं तो बताते हैं कि आज पत्रकारिता में पढ़े-लिखे लोगों की कमी है और जब कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति वहां पहुंचता है तो खुद अकबर जैसे लोगों का जवाब होता है कि अब पत्रकारिता में पढ़े लिखे लोगों की जरूरत क्या है? तो लोगों को समझना पड़ेगा कि इस दुनिया को बनाने में उनके जैसे लोगों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है, और शायद इसे और आगे ले जाएं तो कह सकते हैं कि वे वही लोग हैं जिन्होंने पत्रकारिता खासकर हिन्दी पत्रकारिता को गर्त में पहुंचाया है और आज भी हम उनकी दुहाई देते फिर रहे हैं।

एस.पी. के ढेर सारे अनुयायियों के बारे में गौर कीजिएगा कि वे जब आपसे मिलेंगे तो यह बताना नहीं भूलते हैं कि अफसोस तो इस बात का है कि एस.पी. टेलीविज़न पत्रकारिता के आरंभ में ही गुज़र गए, नहीं तो इस पत्रकारिता की दशा-दिशा बदल गई होती। यह सुनकर मैं चुप्पी लगा जाता हूं क्योंकि वे उनकी राजनीति और उनके विरोधाभास को नहीं समझ पाते हैं। एस.पी. बाजार के बड़े समर्थक थे और सांप्रदायिकता के कट्टर विरोधी। सामान्यतया विद्वानों का कहना है कि बाजार, सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद तीनों एक साथ चलते हैं। अगर वे होते तो इतने वर्षों में पूरी तरह फल-फूल चुके बाजार, उदारीकरण और सांप्रदायिक पार्टी के सत्ता पर विराजमान हो जाने के बाद एस.पी. क्या करते? यह सोचकर मैं डर जाता हूं और दिमाग को सोचने से मना कर देता हूं। यह डर मेरा है… क्योंकि इससे किसी की प्रतिमा टूट सकती है।  

   

17 Comments on “एसपी ”मूर्ख-मूर्खाओं” को ही रखते थे क्योंकि वे सवाल नहीं पूछते! पुण्यतिथि पर एक स्मरण…”

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून says:June 30, 2013 at 1:16 am

बहुत बढ़ि‍या. ब्‍लॉग इसी लि‍ए तो हैं. अपनी बात रखि‍ए बेहि‍चक. बहुत अच्‍छा लगा पढ़ कर. आपके नज़रि‍ये में भी अलग बात है.


बेनामी says:June 30, 2013 at 2:35 am

अच्छे लेख के धन्यवाद.


अविनाश दास says:June 30, 2013 at 5:10 am

यह लेख मैंने पढ़ा। सवाल ये है कि पत्रकारिता के मौजूदा या अब तक मौजूद मुख्‍यधारा पत्रकारिता के परिदृश्‍य को देखा कैसे जाए? हम टाइम्‍स ऑफ इंडिया या इंडियन एक्‍सप्रेस या आनंद बाजार पत्रिका या टीवी टुडे ग्रुप की पत्रकारिता को सूचना-सरोकार के संदर्भ में देखें या मुनाफे के लिए सूचना-व्‍यापार के संदर्भ में देखें? एसपी या प्रभाष जोशी या बारपुते या माथुर या यहां तक कि अज्ञेय-सहाय भी… इस देश की पूंजीवादी पत्रकारिता के शिखर रहे। इनकी निजी मेधाओं ने अपना काम किया। आप उनके पाले में जैसे सरोकार की तलाश करते हैं और कोफ्त होते हैं, वह नाजायज है। वैकल्पिक पत्रकारिता का कोई मॉडल हमारे देश में पनप नहीं पाया। निबंध और विचारों का परचम पत्रकारिता का एक जरूरी रूप है, लेकिन सूचना सबसे जरूरी शर्त है। वैकल्पिक पत्रकारिता के हमारे स्‍वयंभू इसी फर्क को अब तक नहीं समझ पाये और कोई बड़ा विकल्‍प नहीं दे पाये। वरना जनता तो तैयार है अपने हक में जेब और जान की कुर्बानी देने के लिए।


अभिषेक श्रीवास्‍तव says:June 30, 2013 at 5:15 am

अविनाश जी, ऐसा है कि वैकल्पिक पत्रकारिता पर बहस एक बिल्‍कुल अलग बहस है, उसे मुख्‍यधारा के पेशे में ''पत्रकारिता'' की तलाश के साथ रखकर नहीं देखना चाहिए। यहां एसपी के बहाने जो बहस उठी है, वह दरअसल इस बात की पड़ताल कर रही है कि मुख्‍यधारा के नाम पर जो हो रहा है/होता रहा है, उसमें पत्रकारिता का अनुपात कितना/क्‍यों/कैसे घटता गया, उसके लिए जिम्‍मेदार कौन है/था आौर क्‍या यह संकट (अगर है तो, विशेषकर टीवी के संदर्भ में) बुनियाद में ही था? इस सवाल को समझने के लिए हम ''पूंजीवादी पत्रकारिता के शिखरों'' में निजी स्‍तर पर ''सरोकार की तलाश'' नहीं करते, बल्कि यह जानने में ज्‍यादा दिलचस्‍पी रखते हैं कि (बकौल दिलीप खान, देखें लिंक https://www.facebook.com/kyagroo/posts/10200743531244724) क्‍या ''वाकई कोई बड़ा पत्रकार सिर्फ़ कलम चलाकर मुद्दों पर बात कर रहा है या फिर पत्रकारिता के भीतरखाने को दुरुस्त करने की कोई योजना भी पेश कर रहा है, ख़ास कर तब, जब वो इसे दुरुस्त करने की पोजिशन में हो/रहा हो।'' जहां तक वैकल्कि पत्रकारिता के मॉडल और उसके ''स्‍वयंभू'' लोगों की समझ का सवाल है, तो भाई पहला पत्‍थर वो उछाले जिसने कोई पाप न किया हो, बोले तो, क्‍या मैं पूछ सकता हूं कि जो भी बची-खुची जैसी भी वैकल्पिक पत्रकारिता इस देश में है, उसमें कौन कितना योगदान दे रहा है निजी स्‍तर पर? वैकल्पिक मॉडल नहीं है न सही, किसी एक सरोकारी लघुपत्रिका को जिंदा रखने के लिए कितने मुख्‍यधारा के या स्‍वतंत्र ''सरोकारी'' पत्रकारों/संपादकों ने बिना मेहनताने की उम्‍मीद किए कंट्रीब्‍यूट किया है/कर रहे हैं? योगदान भी छोडि़ए, वैकल्पिक के नाम पर जितने प्रकाशन निकलते हैं, उनमें कितने आप खरीद कर पढ़ते हैं, सब्‍सक्राइब करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर उनके लिए लेख/अनुवाद/साक्षात्‍कार मुफ्त में कर देते हैं? जब वैकल्पिक के नाम पर किए जा रहे पूंजीविहीन न्‍यूनतम प्रयासों में आप/हम एक छटांक योगदान नहीं दे पा रहे, तो कम से कम इतनी नैतिकता रखें कि उन्‍हें मॉडल जैसी भारी-भरकम कसौटी पर कस कर मुख्‍यधारा के ''मूर्ख/मूर्खाओं'' के सामने ज़लील तो ना करें। सूचना ज़रूरी शर्त है, तो इसी पर परख लीजिए कि कौन कैसी सूचनाएं दे रहा है, छोटे-छोटे वैकल्कि प्रयास पूंजीवादी शार्कों पर भारी पड़ जाएंगे। और जनता किसके लिए तैयार है और किसके लिए नहीं, यह दावा तो वे भी नहीं करते जो जनता के बीच ही रहते हैं… इसलिए ऐसे लोकरंजक बयानों से बहस को डाइल्‍यूट मत करिए।


अविनाश दास says:June 30, 2013 at 7:44 am

यह बिल्‍कुल अलग बहस नहीं है अभिषेक जी। आप "मुख्‍यधारा मीडिया में पत्रकारिता की तलाश" का जो मुहावरा चलाने की कोशिश कर रहे हैं, वही भ्रामक और विसंगतिपूर्ण है। ऐसा लग रहा है, जैसे आप अंबानी के घर में अरविंद केजरीवाल को खोज रहे हैं। और वैकल्पिक पत्रकारिता का मतलब लघुपत्रिकाएं नहीं हैं। वैकल्पिक पत्रकारिता का मतलब है TOI जैसा ही एक अखबार, जिसका मुनाफा सिर्फ जैन साहब या कंपनी के चंद शेयर होल्‍डरों को न जाता हो। हम वैकल्पिक पत्रकारिता का मतलब कंटेंट को समझ बैठे हैं। जैसे मैं समकालीन तीसरी दुनिया का ही नाम लूंगा। या समयांतर का। ऐसी पत्रिकाएं या प्रयास भी एक आदमी की अपनी पूंजी है। इन पत्रिकाओं के मालिक इनके संपादक हैं। जब तक निर्माण का हुलिया (मोड ऑफ प्रोडक्‍शन) एकल (कैपिटलिस्‍ट) से सामूहिक (सोशलिस्‍ट) में नहीं बदलेगा, विकल्‍प की बात बेमानी है। दिल्‍ली में ही जितने लोग वैकल्पिक पत्रकारिता की बात कर रहे हैं, अगर वो मिल कर कॉपरेटिव तरीके से एक अखबार या टीवी चलाने के लिए आगे आएं, तो आप पूंजीवादी मीडिया का एक विकल्‍प खड़ा कर सकते हैं। एक कयास लगा रहा हूं। मुलाहिजा फरमाइएगा। दिल्‍ली की आबादी करीब 17 करोड़ है। मान लीजिए आप एक नागरिक से दस रुपये लेते हैं, तो 17 करोड़ आबादी से 170 करोड़ रुपये इकट्ठा कर लेंगे। आप कहेंगे मुश्किल है – फट कर हाथ में आ जाएगा। मैं कहता हूं कि आप इसके लिए साल भर दीजिए। और घर से चार पांच की टोली में रोज निकल कर लोगों से यथाशक्ति पैसे लीजिए। कोई दस देगा, कोई सौ देगा, कोई हजार देगा और कोई पांच हजार देगा। कोई कोई दस हजार और पचास हजार भी दे सकता है। इस तरह टारगेट पॉपुलेशन कम हो जाएगा और पैसे पूरे आ जाएंगे। फिर इस शर्त पर अखबार निकालिए कि उसमें विज्ञापन नहीं छापेंगे। अखबार का दाम दस रुपये या बीस रुपये रखिए। इस तरह वैकल्पिक मीडिया का निर्माण होगा। एसपी या डीएसपी या मंडल या कमंडल अपनी निजी प्रतिभाओं के बूते जिस जमीन पर पत्रकारिता करते रहे हैं, उसमें वही होना था, जो हुआ। उसका विश्‍लेषण आप अपने फ्रेमवर्क में करेंगे तो आपके मुंह से सिर्फ गाली निकलेगी – विकल्‍प नहीं।


अभिषेक श्रीवास्‍तव says:June 30, 2013 at 8:43 am

अविनाश जी, अगर मुख्‍यधारा मीडिया में पत्रकारिता की तलाश ''भ्रामक और विसंगतिपूर्ण'' है, तब तो ''एसपी या प्रभाष जोशी या बारपुते या माथुर या यहां तक कि अज्ञेय-सहाय का इस देश की पूंजीवादी पत्रकारिता के शिखर'' होना भी भ्रामक और विसंगतिपूर्ण ही है। क्‍यों, इसे विस्‍तार से देखिए। पत्रकारिता/मुख्‍यधारा की पत्रकारिता/पूंजीवादी पत्रकारिता तीनों एक ही चीज़ है जहां स्‍वामित्‍व की प्रकृति पूंजीवादी होती है और उसके भीतर सूचना सम्‍प्रेषण/विचार प्रसारण का काम जनहित की दृष्टि से किया जाता है। पत्रकारिता नाम के उद्यम का उद्गम किसी कम्‍युनिस्‍ट/समाजवादी/सहकारी मॉडल में नहीं हुआ है। पत्रकारिता का पूरा इतिहास ही पूंजीवादी पत्रकारिता का इतिहास रहा है, इसलिए हम जब ''पत्रकारिता की तलाश'' की बात कहते हैं तो वह जस्टिफाइड है, विसंगतिपूर्ण नहीं। आपको विसंगतिपूर्ण इसलिए लग रहा है क्‍योंकि आप ''सेठ की दुकान में क्रांति'' वाले एसपी के मुहावरे से शुरुआत कर रहे हैं जहां सेठ और क्रांति को juxtapose कर के अतीत से भी बेईमानी बरती गई है और भविष्‍य की संभावनाओं को भी खत्‍म किया गया है। इस तरह तो एंगेल्‍स के पैसे पर पनपे मार्क्‍सवाद और बिड़ला के पैसे पर मिली आज़ादी (चाहे जैसी हो) दोनों को आप खारिज कर देंगे। अब आइए वैकल्पिक पर। 17 करोड़ की आबादी से पैसे जुटाना आप ऐसे कह रहे हैं जैसे वह आबादी पत्रकारिता/आर्थिकी से निरपेक्ष मंगल ग्रह पर हो। अगर उस आबादी से 10-10 रुपये जुटाना इतना ही सहज हो, तो आप आइडिया देने के बजाय अब तक क्रांति कर चुके होते। बहरहाल, मैं जानना चाहता हूं कि पूंजीवादी मॉडल के विकल्‍प को विकसित करने के लिए सहकारी मॉडल का जो प्रयास पिछले डेढ़ साल से अनिल चमडि़या, राजेश वर्मा, जितेन्‍द्र कुमार, धीरेंद्र झा आदि करीब 50 लोग लगातार करने में जुटे हैं, आपकी उसमें क्‍या भागीदारी है। सलाह देना अच्‍छा काम हो सकता है, लेकिन at the end of the day आप क्‍या कर रहे हैं, यह भी मायने रखता है। ठीक है कि लघुपत्रिकाओं के संपादक ही उनके मालिक हैं लेकिन वे क्‍या कर रहे हैं इसे भी देखिए। वैसे जानकारी दे दूं कि समयांतर एक ट्रस्‍ट बन चुका है और तीसरी दुनिया में उसके संपादक की निजी पूंजी नहीं लगी है, लोकतांत्रिक तरीके से जुटाए गए चंदे का योगदान है। जो हुआ और जो हो रहा है उसका विश्‍लेषण तो अपने फ्रेमवर्क में ही करना होगा क्‍योंकि बनारस में एक गाना चलता है, ''हम थे जिनके सहारे, वो हुए ना हमारे/ डूबी जब दिल की नैया, सामने थे छिनारे।'' छिनरों के फ्रेमवर्क से तो आप परिचित होंगे ही?


अविनाश दास says:June 30, 2013 at 9:03 am

अभिषेक भाई, ज्ञानपीठ भी एक ट्रस्‍ट है 🙂 अक्षर प्रकाशन भी एक ट्रस्‍ट है 🙂 बहरहाल… आप पत्रकारिता के इतिहास को पूंजीवादी पत्रकारिता का इतिहास कह रहे हैं – मैं सहमत हूं। हमारी सभ्‍यता का सामाजिक इतिहास भी सामंती और स्‍त्रीविरोधी समाज का इतिहास है। लेकिन लड़ाइयों का भी एक इतिहास है। उसी तरह जनपक्षधर पत्रकारिता की कोशिशों का भी एक इतिहास है। बेहतर होगा, अगर हम ऐतिहासिक गलियों में पत्रकारिता के विमर्श की पड़ताल न करें। और आप एंगेल्‍स के पैसे से क्रांति के विचार का उदाहरण देकर अपनी समझ को थोड़ा संकीर्ण तरीके से पेश कर रहे हैं। अमीर होने और पूंजीवादी होने में अंतर है। फिर डी-कास्‍ट और डी-क्‍लास जैसी अवधारणाओं के लिए कोई जगह नहीं बचेगी। मैं ये नहीं कह रहा कि जब आप 17 करोड़ जनता से चंदा मांगने जाएं, तो उसमें वर्ग-विभेद करके जाएं। अमीर और गरीब दोनों के पास जाएं। और आपकी मुश्किलों का हल पहले कर दिया है कि दस, बीस, सौ, हजार, पांच हजार, दस हजार और पचास हजार की श्रेणियों में पैसे आएंगे तो संभव है जो 17 करोड़ जनता तक जाने के बजाय दस लाख जनता तक पहुंचते पहुंचते ही आपका टार्गेट पूरा हो जाए। रही इस बाबत मेरे ज्ञान देने की बात – तो सूचना-मीडिया में मेरी दिलचस्‍पी न्‍यून हो चुकी है। जिस माध्‍यम को अपनाने की तैयारी कर रहा हूं – देर, सबेर कॉपरेटिव मॉडल वहां भी विकसित करने की कोशिश करूंगा। आपलोग वैकल्पिक मीडिया के लिए जो कोशिश कर रहे हैं, उसके लिए मेरी शुभकामनाएं हैं, समय नहीं। मैं वह अखबार जरूर खरीदूंगा, चाहे उसकी कीमत सौ रुपये ही क्‍यों न हो। [किनारे को आपने छिनारे जान-बूझ कर किया है या टाइपिंग एरर है?]


Unknown says:June 30, 2013 at 9:16 am

एस पी सिंह ,प्रभाष जोशी या फिर अन्य उस मीडिया के बाप होंगे जो उनके साये में फले-फुले या फिर उस मीडिया के जो उनका नाम ले -लेकर अपने हाथों से अपने पीठ ठोंक रही है |अभिषेक भाई मीडिया और मुख्यधारा के मीडियामैन दो अलग अलग चीजें हैं|मुख्यधारा क्या है और उसी में पत्रकारिता की तलाश क्यों की जा रही है ,ये भी बताया जाना चाहिए |जहाँ इस तक ब्लॉग का सवाल है अंक निकालकर या फिर जन्मदिन के बहाने एसपी को याद करना और उस बहाने टेलीविजन पत्रकारिता की चर्चा करना कुछ लोगों का व्यक्तिगत कार्यक्रम है जो वो करते रहेंगे |एसपी सिंह को हम जैसे निचले तबके के पत्रकार एक राजनैतिक विश्लेषक एक तौर पर जानते हैं जो खबरिया चैनलों के शुरूआती दिनों में टीवी पर नजर आता था ,रजत शर्मा को भी हम उसी केटेगरी में गिनते हैं |उनके द्वारा हिंदी पत्रकारिता में किस किस्म का योगदान किया गया आप बेहतर जानते होंगे ,लेकिन यकीन मानिए पत्रकारिता के पूंजीवादी और महानगर केन्द्रित माडल से बाहर जो कुछ नजर आता है ,वो दरिद्रता दुर्दशा और बहाली से भरा हुआ है लेकिन फिर भी सर्वश्रेष्ठ है ,यही माडल हमेशा काम आने वाला है |


अभिषेक श्रीवास्‍तव says:June 30, 2013 at 10:49 am

अविनाश जी, अब आप सही बात पकड़े… जनपक्षधर पत्रकारिता। मेरा मानना है कि जनपक्षधर पत्रकारिता कोई अलग से लड़ी जाने वाली मंजिल नहीं है, क्‍योंकि पत्रकारिता का बुनियादी चरित्र ही जनपक्षधरता और सामाजिक दायित्‍व को अपने भीतर समोए हुए है। जिसे आप जनपक्षधर पत्रकारिता की कोशिशों का इतिहास कह रहे हैं, वैसा बता दीजिए कितना लंबा रहा है कि जिसे अलग से आइडेंटिफाई किया जा सके। दरअसल, जनपक्षधर पत्रकारिता अलग से आइडेंटिफाई किए जाने लायक ही तब बनी जब मुख्‍यधारा की पत्रकारिता पूरी तरह भ्रष्‍ट हो गई (जिसे बाइ डिफॉल्‍ट जनपक्षधर होना था)। मैं इसीलिए पूंजीवादी मोड ऑफ प्रोडक्‍शन के भीतर की जा रही मुख्‍यधारा पत्रकारिता में जनपक्षधरता की तलाश और समानांतर धारा के प्रयास की बात करता हूं। यही वजह है कि मुख्‍यधारा की आलोचना होती है। आप जैसे ही डीबेट को सहकारी/वैकल्पिक आदि श्रेणियों की ओर मोड़ते हैं, नकारवादी हो जाते हैं। हमारे एक मित्र थे जो कहा करते थे कि यह व्‍यवस्‍था गोबर पैदा करने वाली मशीन है, जितना तेज चलाओगे उतना ज्‍यादा गोबर बनेगा। आपका प्रतिवाद इसी श्रेणी का है जो सनातन पावन मार्क्‍सवादी आलस्‍य को तुष्‍ट करता है कि नहीं जी, सब पूंजीवादी है इसलिए हम तो अपनी दुनिया कायम करेगे फिर हरकत में आएंगे। जबकि नई दुनिया, नया मॉडल मुख्‍यधारा के भीतर रह कर आलोचना और संघर्ष की अनिवार्य मांग करता है। आपने सूचना माध्‍यम को छोड़ कर जिस माध्‍यम को चुना है, वहां कोऑपरेटिव मॉडल की लड़ाई उतनी ही मुश्किल है जितनी इधर, बल्कि ज्‍यादा। आपके चुनाव के लिए आपको शुभकामनाएं, लेकिन मुझे लगता है कि आप वही कह रहे हैं जो मैं, बस एजेंडे का फर्क है।


बेनामी says:July 1, 2013 at 3:13 am

अभिषेक और अविनाश जी, आप लोगों की जानकारी के लिए बता दें कि दिल्ली की आबादी 17 करोड़ नही है.1.7 करोड़ हो सकती है.कृपया इसे दुरुस्त कर लें.


SRSHANKAR says:July 1, 2013 at 5:01 am

वैसे भी बड़े पेड़ों के नीचे पौधों का दम तोड़ देना ही नियति होती है..पर छोटे पेड़ तो अगल-बगल में घास-फूस उगने मात्र से ही डरने लगते हैं..जब नाम बडे होने लगते है..दर्शन छोटा होते-२ अद्रश्य हो जाता है..और पत्रकारिता अपनी कीमत जान चुकी है..और तय भी कर ली है..वहां मूर्खो..मुर्खाओं..का ही स्थिर विकास है..क्योंकि ये वे खम्भे साबित होते हैं..जिन पर हमेशा ही भोग-सत्ता-ताकत का मजबूत महल खड़ा होता है..सेठ वाकई क्रांति के लिए नहीं..क्रांति..रोकने के लिए..मीडिया को इंडस्ट्री बनाते हैं..और आज का पत्रकार उनमे बंधुआ मजदूरी करने का एग्रीमेंट करके ही रह सकता है.पूंजीवाद ने सहकारिता भाव का नाश कर दिया है..इसलिए..सहकारी पत्रकारिता..कॉर्पोरेट मीडिया को कभी चुनौती डे पायेगी..मुझे संदेह है..

सिर्फ..एक..ही..माध्यम है..जो एक साथ..सभी चेहरों की नकाब हटा सकता है..वह है..ई-पत्रकारिता…ये फेसबुक..ट्विट्टर..आदि..नयीक्रांति के वाहक हैं..यहाँ कोई न तो बंधुआ..है..न ही..मजदूर..और न ही उसकी अभिब्यक्ति या खबर पर कोई प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है..हाँ..इस स्वतंत्र पत्रकार को परेशां किया जा सकता है..लेकिन..पराजित नहीं..क्योंकि..यहाँ..उसके पास भी दस मुहों वाली ..अराजकता..और बेईमानी का मुकाबला करने के लिए..उतने ही मुंह..चेहरे..और हथियार मौजूद मिल जायेंगे.


अविनाश दास says:July 1, 2013 at 5:43 am

अभिषेक जी … आप मेरी मूल बात नहीं समझ पा रहे हैं। मीडिया मेनस्‍ट्रीम में कई बार जो जनपक्षधरता दिखती है, उसको लेकर हमारी खामखयाली ऐसी होती है कि कभी कभी मीडिया की आत्‍मा जाग जाती है। जबकि मैं ये कहना चाहता हूं कि मीडिया में जनपक्षधरता का दृश्‍य भी इसलिए नजर आता है क्‍योंकि आप उस पर विश्‍वास करें। आपकी खामखयाली फले-फूले। विश्‍वसनीयता ही मीडिया मेनस्‍ट्रीम के प्रसार और व्‍यापार का आधार है। जनपक्षधरता के कायल लोगों को नौकरियां भी मिलती रही है। आप एक नाम बता दीजिए, जिसको इस मीडिया मेनस्‍ट्रीम ने उनकी जनवादिता के चलते घुसने न दिया हो। होता यह रहा है कि वहां भी आप उसी पावर गेम का हिस्‍सा होना चाहते हैं, जिसके लिए आप नाकाबिल हैं। आपकी जनवादिता अगर छद्म हुई तो आप उसके काबिल बनने की कोशिश करते हैं। एक युवा पत्रकार का उदाहरण देता हूं। वो जनता के एजेंडे वाली एक पत्रिका में अच्‍छी-खासी जन-पत्रकारिता कर रहे थे, लेकिन मौका मिलते ही गुलाबी शहर जाकर प्रेम-रस-बुंदिया बरसाने लगे। सवाल नकारात्‍मक होने का नहीं, मुख्‍यधारा मीडिया के ताने-बाने को समझने का है। मैं समझता हूं कि सहकारी जन मीडिया ही असल मायने में जनपक्षधर मीडिया होगा। बाकी जनपक्षधरता का नाटक होगा।


बेनामी भाई … आकंड़ा दुरुस्‍त करके पढ़ा जाए। हड़बड़ी में गड़बड़ी हो गयी। क्षमा।


अभिषेक श्रीवास्‍तव says:July 1, 2013 at 7:59 am

अविनाश जी, एक क्‍या, कई नाम हैं, लेकिन मैं बोलूंगा तो आप कहेंगे कि अमुक को जनवादिता के चलते नहीं, इस या उस वजह से नहीं घुसने दिया गया। नाम लेने में क्‍या रखा है। आपकी बात एक हद तक सही है कि ''विश्‍वसनीयता ही मीडिया मेनस्‍ट्रीम के प्रसार और व्‍यापार का आधार है।'' लेकिन जब मीडिया मेनस्‍ट्रीम आज से पहले किसी भी तारीख में ज्‍यादा विश्‍वसनीय रहा होगा, तो क्‍यया उसका व्‍यापार और प्रसार भी आज से पहले उसी अनुपात में था? ऐसा कतई नहीं है। इसका मतलब कि विश्‍वसनीयता से ही व्‍यापार और प्रसार नहीं आता, वरना ईपीडब्‍लू, सेमिनार, फिलहाल, समयांतर, तीसरी दुनिया, यहां तक कि पब्लिक एजेंडा (जिसे आप जनपक्षधर पत्रिकाओं में गिनवा रहे हैं) वे कहीं आगे होते। पावर गेम का हिस्‍सा होने वाली बात दरअसल टेढ़ी है। जब आप मेनस्‍ट्रीम में घुस कर जनवाद का एजेंडा लागू करना चाहते हैं, तो अपने आप दूसरा पावर सेंटर क्रिएट करने लगते हैं, भले आपकी ऐसी मंशा हो या नहीं। अगर आप सिर्फ नौकरी बजाते हैं, तो मौजूदा पावर गेम में अपनी जगह तलाश रहे होते हैं। पावर डिसकोर्स के नज़रिये से देखने पर तो मामला उत्‍तरआधुनिकता तक पहुंच जाएगा जहां मोहल्‍ले का हर लौंडा अपने को दाउद समझता है और सारी इकाइयां अनिवार्यत: लघु सत्‍ताएं होती हैं जो परस्‍पर एक-दूसरे को काटती हैं। अगर प्रस्‍थान बिंदु ये है, तब तो जनवाद की बात ही बेमानी हो जाएगी। इसलिए ज़रूरी है कि आप अपनी बात कहते वक्‍त पहले ये तय करिए कि आपकी सोशल-पॉलिटिकल लोकेशन क्‍या है। कभी जनवाद, कभी पावर डिसकोर्स, कभी नकारवाद और कभी सह‍कारिता की बैसाखी से पैंतरा बदलना सिर्फ यही दिखाता है कि बात सिर्फ बात के लिए हो रही है। आखिर लाठी भांजने और मीडिया पर बहस करने में कुछ तो दूरी होनी चाहिए।


Dev Kumar says:July 2, 2013 at 11:11 am

जिन्हें जनपक्षधर पत्रिका में शुमार किया गया है, उन्हीें में से एक की 2008 में प्रकाशन की घोषणा हुर्इ थी। मुझे फोन पर स्वर्गीय कृष्णन दूबे जी ने तय तिथि में रांची आने को कहा। इससे पहले में उन्हें नहीं जानता था। मैं जब रांची पहुंचा तो वहां कर्इ दिग्गज पत्रकारों से मुलाकात हुर्इ। दरअसल, पत्रकारों को पत्रिका के चयन के लिए बुलाया गया था। मुझे इसकी जानकारी नहीं थी। रजत जी ने नम्रता से मुझे भी लिखित एवं मौखिक टेस्ट में शामिल होने को कहा। दोनों टेस्ट में मुझे सर्वाधिक नंबर दिये गये। मुझे सीनियर कापी एडिटर के रूप में चुना गया। लेकिन ,इसके बाद जो हुआ, उसकी कल्पना मैने नहीं की थी। तरह-तरह की हास्यास्पद बातें बना कर मुझे नौकरी में नहीं रखा। बाद में मुझे पता चला कि इंटरव्यू के दौरान उन्हें लगा कि मैं एक एक्टीविस्ट हूं और शायद उनकी टीम में फिट नहीं हो पाउंगा। लेकिन मुख्यधारा के अखबार ने मुझे बुला कर नौकर पर रखा। इसे क्या कहेंगे? जनपक्षधर पत्रिका जब डरी हुर्इ है, तो मुख्यधारा की बात करना ही बेमानी है। एक बड़े टीवी न्यूज चैनल के डायरेक्टर एवं मेरे मित्र के भार्इ,जो स्वयं जनवादी होने का दावा करते थे, कभी मुझे अपने यहां काम का आफर नहीं किया। जब इसे कारोबार के नजरिये से देखा जा रहा है, तो विसंगतियों से ऐतराज क्यों। या तो आप विकल्प दीजिए या फिर उसमें शामिल हो कर इसमें शुचिता लाने का प्रयास किजिए। मानना होगा कि दावे और हकीकत के बीच रेखा तो खिंची है।


अविनाश दास says:July 2, 2013 at 5:10 pm

अभिषेक जी, मैं कुछ ठोस विकल्‍प सुझा रहा हूं, जिसे आप "कभी जनवाद, कभी पावर डिसकोर्स, कभी नकारवाद और कभी सह‍कारिता की बैसाखी से पैंतरा बदलना" कह रहे हैं। आप जिस सोशल-पॉलिटिकल लोकेशन से बात कर रहे हैं, वहां वैकल्पिक पत्रकारिता का सफर अस्‍थायी ही बना रहेगा। जो अलग हो जाएंगे, वे पत्रकारिता की एक और कम्‍युनिस्‍ट पार्टी खड़ी करेंगे। क्‍योंकि पुराने समूह में उनका कुछ भी स्‍टेक नहीं होगा।शहरी मध्‍यवर्ग की छाया में हालांकि आप मोड ऑफ प्रोडक्‍शन का शार्ट-कट ही अपनाएंगे, जिसमें जनता को जुटाने से ज्‍यादा मुख्‍य काम भाषण देना होगा। तो देते रहिए भाषण… पूंजीवादी मीडिया का वर्चस्‍व बना रहेगा। वहां आपको भी एकाध कॉलम की जगह मिलती रहेगी। मुझे लगता है कि पूंजीवादी मीडिया के भीतर जनवाद के लिए जगह तलाशने से बड़ी मूर्खता और कुछ नहीं हो सकती… और जिन जनपक्षधर पत्रिकाओं के नाम आपने गिनाये अभिषेक जी, उनकी प्रसार संख्‍या अपनी जद में कायदे से है। और ज्‍यादा प्रसार होगा, तो बंद हो जाएगा। कागज के दाम का हिसाब-किताब आपको पता ही होगा। वे डिमांड और सप्‍लाई का प्रबंधन उन तरीकों से नहीं कर सकते, जैसे कॉरपोरेट मीडिया करता है। पब्लिक एजेंडा जनपक्षधर पत्रिका नहीं है। वो एक खनन माफिया के पैसे से निकलने वाली पत्रिका है और मंगलेश डबराल और आप जैसे उनके चहेते इस गफलत में हैं कि वहां वे सच्‍ची जनरुचि का सामान परोस रहे हैं। और कोई इस पत्रकारिता की आड़ में अपना कॉलर कैसे चमका रहा है – इसको देखने के लिए दंडकारण्‍य से ही किसी कॉमरेड को बुलाना पड़ेगा।


अविनाश दास says:July 2, 2013 at 5:10 pm

अभिषेक जी, मैं कुछ ठोस विकल्‍प सुझा रहा हूं, जिसे आप "कभी जनवाद, कभी पावर डिसकोर्स, कभी नकारवाद और कभी सह‍कारिता की बैसाखी से पैंतरा बदलना" कह रहे हैं। आप जिस सोशल-पॉलिटिकल लोकेशन से बात कर रहे हैं, वहां वैकल्पिक पत्रकारिता का सफर अस्‍थायी ही बना रहेगा। जो अलग हो जाएंगे, वे पत्रकारिता की एक और कम्‍युनिस्‍ट पार्टी खड़ी करेंगे। क्‍योंकि पुराने समूह में उनका कुछ भी स्‍टेक नहीं होगा।शहरी मध्‍यवर्ग की छाया में हालांकि आप मोड ऑफ प्रोडक्‍शन का शार्ट-कट ही अपनाएंगे, जिसमें जनता को जुटाने से ज्‍यादा मुख्‍य काम भाषण देना होगा। तो देते रहिए भाषण… पूंजीवादी मीडिया का वर्चस्‍व बना रहेगा। वहां आपको भी एकाध कॉलम की जगह मिलती रहेगी। मुझे लगता है कि पूंजीवादी मीडिया के भीतर जनवाद के लिए जगह तलाशने से बड़ी मूर्खता और कुछ नहीं हो सकती।

Saturday, August 3, 2019

जब एसपी की शैली को पीत पत्रकारिता की श्रेणी में लाने की कोशिश की गई



पटना में डाक बंगला चौराहे के एक होटल में प्रसिद्ध साहित्यकार और ‘दिनमान’ के संपादक रहे अज्ञेय जी और ‘रविवार’ के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह के बीच लंबी संवादनुमा बहस हुई


संतोष भारतीय, वरिष्ठ पत्रकार।।

पत्रकारिता के इतिहास में 1977 को एक ऐसे वर्ष के रूप में जाना जाएगा, जहां से रास्ता बदलता है। सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय, प्रफुल्लचंद्र ओझा मुक्त, धर्मवीर भारती, मनोहर श्याम जोशी, विद्यानिवास मिश्र, रघुवीर सहाय, कन्हैयालाल नंदन जैसे बड़े साहित्यकार हिंदी पत्रिकाओं के या दैनिक अखबारों के संपादक हुआ करते थे। कोई नहीं सोच सकता था कि जिसकी उम्र 25 साल के आसपास है और जो साहित्यकार भी नहीं है, वह भी हिंदी की किसी पत्रिका का या दैनिक अखबार का संपादक हो सकता है।

पहली बार साहित्यकार और पत्रकार के बीच एक रेखा खिंची और ‘रविवार’ के पहले संपादक एमजे अकबर बने, जिन्होंने कुछ ही महीनों में यह जिम्मेदारी सुरेंद्र प्रताप सिंह (एसपी) को दे दी। व्यावहारिक रूप से सुरेंद्र प्रताप सिंह ही ‘रविवार’ के पहले संपादक थे। ‘आनंद बाजार पत्रिका’ ने हिंदी के इतिहास में जब हिंदी पत्रिका निकालने का निश्चय किया, तब अंग्रेजी साप्ताहिक ‘संडे’ को निकालने का भी निर्णय लिया, जिसके लिए उन्होंने एमजे अकबर को नियुक्त किया। अकबर की सलाह पर ही एसपी सिंह ‘धर्मयुग’ छोड़कर ‘रविवार’ के संपादक बने।

तब हिंदी जगत के सभी पुराने संपादकों को यह फैसला पसंद नहीं आया। उनका मानना था कि अच्छा साहित्यकार ही अच्छा पत्रकार हो सकता है। सुरेंद्र प्रताप सिंह ने हिंदी पत्रकारिता में एक नया अध्याय शुरू किया और उन्होंने 20 से 25 साल की उम्र के लोगों को सक्रिय पत्रकार बनाने की परंपरा शुरू की। उन्होंने उदयन शर्मा को विशेष संवाददाता बनाकर फील्ड रिपोर्ट कितनी महत्वपूर्ण होती है हिंदी पत्रकारिता में, यह साबित कर दिया। यही वो विभाजन का साल है, जहां से साहित्य और पत्रकारिता अलग हुई। इसने साबित कर दिया कि सुरेंद्र प्रताप सिंह का फैसला एक क्रांतिकारी फैसला था, जिसने हिंदी पत्रकारिता में 20 वर्ष के नौजवानों के लिए बहुत कुछ कर दिखाने के मौके उपलब्ध कराने के दरवाजे खोल दिए।

इसके बाद तो पत्रकारिता में विशेषकर हिंदी पत्रकारिता में अद्भुत उदाहरण बने। पहली बार हिंदी के नौजवान पत्रकारों की वजह से सत्ता दबाव में आई, मंत्रियों ने अपने को सुधारा, कुछ के त्यागपत्र हुए, मुख्यमंत्री भी दबाव में आए और इन नौजवान पत्रकारों की रिपोर्ट पर मुख्यमंत्रियों तक के त्यागपत्र हुए। पटना में डाक बंगला चौराहे के एक होटल में प्रसिद्ध साहित्यकार और ‘दिनमान’ के संपादक रहे अज्ञेय जी और ‘रविवार’ के नए बने नौजवान संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह के बीच इसी विषय पर एक लंबी संवादनुमा बहस हुई। अज्ञेय जी ने सुरेंद्र प्रताप सिंह की पत्रकार शैली की जमकर आलोचना की और उसे पीत पत्रकारिता की श्रेणी मैं लाने की कोशिश की, जिसका सुरेंद्र प्रताप सिंह ने भरपूर विरोध किया। अज्ञेय जी के जीवन काल में ही पत्रकारिता को लेकर सुरेंद्र प्रताप सिंह का दृष्टिकोण सही साबित हो गया। हिंदी पत्रकारिता ने सफलतापूर्वक पत्रकारिता की ऐसी धार विकसित की, जिसने सत्ता पर जनता की अनदेखी करने से पैदा डर का आविष्कार कर दिया।

1977 से ही पत्रकारिता की एक दूसरी धारा भी विकसित हुई, जो अंग्रेजी पत्रकारिता की विशेषता बनी हुई थी, वह थी पीआर जर्नलिज्म। हिंदी के कुछ बड़े संपादक और पत्रकारों का एक वर्ग इस धारा का चेहरा बन गए। उनकी पहचान थी कि वो कितने बड़े राजनेताओं के मित्र हैं और उनके हक मैं पत्रकारिता करते हैं। हिंदी के इन पत्रकारों का जोर शोर से समर्थन अंग्रेजी के वरिष्ठ पत्रकार और संपादक करते थे।

दरअसल, हिंदी के युवा पत्रकारों के धारदार तेवर से अंग्रेजी पत्रकारिता परेशान थी और इसे समाप्त करना चाहती थी। यहीं पर एमजे अकबर ने ऐतिहासिक रोल निभाया। उन्होंने प्रसिद्ध अंग्रेजी सप्ताहिक ‘संडे’ को हिंदी पत्रकारिता के तेवर से जोड़ दिया। उन्होंने पहली बार हिंदी के पत्रकारों की फील्ड रिपोर्ट को अनुवादित कर ‘संडे’ में छापा। उन्होंने हिंदी के पत्रकारों से ‘संडे’ के लिए रिपोर्टिंग कराई और पूरी अंग्रेजी पत्रकारिता पर एक ऐसा दबाव बना दिया कि उसने अंग्रेजी पत्रकारिता में भी एक नई धारा पैदा कर दी। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की पत्रकारिता ऐतिहासिक तो थी ही, पर उसमें नए फ्लेवर जुड़ गए। ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ में खुशवंत सिंह के बाद बने संपादक प्रीतीश नंदी ने अंग्रेजी पत्रकारिता का चेहरा बदलने की सफल कोशिश की।

इसके बाद तो हिंदी पत्रकारिता ने देश में और राज्यों में सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित किए। अगर हम विषय आधारित विश्लेषण करें तो हिंदी पत्रकारिता ने हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और जन सरोकारों के सवाल पर अपनी संवेदना के आधार पर देश का ध्यान खींचा। सुरेंद्र प्रताप सिंह की विकसित की हुई शैली ने हिंदी पत्रकारों को पहली बार स्टार स्टेटस दिलवाया। उन दिनों कुछ ऐसे पत्रकार थे, जो किसी राज्य में रिपोर्ट के लिए जाते थे तो राज्य सरकारें परेशान हो जाती थीं और कोशिश करती थीं कि जितनी जल्दी हो सके यह पत्रकार उनके राज्य से बाहर चले जाएं।

पत्रकारिता का यह चेहरा कैसे बना, इसकी जानकारी आज के नए पत्रकारों को नहीं है। यह भी नहीं पता कि इस चेहरे को बनाने में कितनी मेहनत और कितना प्रयास हुआ है। आज एक और चेहरा हमारे सामने खड़ा है, जो पत्रकारिता में आते ही बिना मेहनत किए ग्लैमरस स्टेटस चाहता है। इसे न विषय की पहचान है और न सामाजिक अंतर्विरोध की। इसे संभवतः यह भी नहीं पता कि किसी भी रिपोर्ट के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक पहलू भी होते हैं, जिनके बिना वह रिपोर्ट अधूरी है। ऐसा नहीं है कि 100 फीसदी ऐसा होता हो, पर 80 प्रतिशत ऐसा होता है। यही सत्य है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)
समाचार4मीडिया ब्यूरो।।

ये 4 घटनाएं आपको एसपी के व्यक्तित्व से कराती है रूबरू



वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह ने कहा था- क्षमा बड़न को चाहिए...


निर्मलेंदु

वरिष्ठ पत्रकार

वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह ने कहा था- क्षमा बड़न को चाहिए। संयम ही एसपी का बहुत बड़ा गुण था। दरअसल, उनको इस बात का अहसास था कि बदला लेने की भावना से या किसी को कटु शब्द कहकर अंतत: कुछ ΄प्राप्त नहीं होता, इसलिए वे हमेशा मुझे यही समझाते रहते थे कि मुख से हमे कभी भी ऐसा शब्द नहीं निकालना चाहिए, जिससे दूसरों का दिल दुखे। शायद यही कारण था कि बड़ी-बड़ी गलतियों को भी वे हंसते हुए नजरंदाज कर दिया करते थे- जी हां, माफ कर देना उनके स्वभाव का अभिन्न अंग था।

शायद उसी में उन्हें आत्मसंतोष होता था, लेकिन डांट नहीं मिलने के कारण कुछ ऐसे लोग भी हुआ करते थे रविवार में, जो बहुत ज्यादा दुखी हो जाया करते थे। इस बात को लेकर परेशान हो जाते थे कि एसपी ने इतनी बड़ी गलती पर कुछ कहा क्यों नहीं? ऐसा क्यों करते थे एसपी? एक बार मैंने ΄पूछा भैया आप गलतियों को माफ क्यों कर देते हैं, तो उन्होंने मुझसे कहा, निर्मल, कोई जान-बूझ कर गलती नहीं करता। गलlतियां हो जाती हैं, कभी नासमझी की वजह से, तो कभी असर्तकता के कारण। कोई भी जान-बूझ कर डांट खाना नहीं चाहेगा और यदि ऐसा आदमी कोई है, तो मैं समझता हूं कि वह पागल होगा। मैंने कई बार बड़ी गलतियां रविवार में रहते हुए की हैं, लेकिन उन्होंने मुझे कभी नहीं डांटा। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो क्रोध और कठोर वाणी को नियंत्रण में नहीं रखना जानते, जो सदा दूसरों की भूलों को तलाशने में लगे रहते है, बहाने तलाशते हैं क्रोध निकालने का, ताकि दूसरों को समझ में आ जाए कि वे बड़े हैं और सच तो यही है कि जब ऐसे लोगों को बहाने नहीं मिलते, तो वे अपने अपने तरीके से बहाने बना भी लेते हैं, लेकिन एसपी ने ऐसा कभी नहीं किया।

दरअसल, जिस पद-अधिकार, धन-ऐश्वर्य, मान-बड़ाई और यश-कीर्ति के लिए हम पागल हो रहे होते हैं, सच तो यही है कि इनमे से कोई भी हमें ‘तृप्ति’ नहीं दे सकता। जो तृप्ति दे सकता है, वह है लोगों को क्षमा कर देना और बदले में ΄यार बटोरना'। जी हां, एसपी यही करते थे। वे क्षमा करके ΄यार' और 'इज्जत' कमाते थे, जिसकी कद्र इंसान के मरने के बाद भी होती है। एसपी को शायद इस बात का अहसास था कि मान-सम्मान और ΄यार-मुहब्बत' से बड़ी कमाई और कुछ है ही नहीं। यही वह जीवन भर कमाते रहे। ऐसे तो अनगिनत ऐसी-ऐसी घटनाएं हैं, जहां एसपी मुझे डांट सकते थे, लेकिन उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया। इसी सिलसिले में कुछ घटनाओं का जिक्र करना यहां उचित हो जाता है।

घटनाक्रम 1

उन दिनों रविवार का कवर पृष्ठ अमूमन मैं ही बनवाया करता था। यानी कवर जिडाइन कैसी होगी, टीपी कौन सी जाएगी और उसका डिजाइन कैसे बनेगा, इन सभी बिंदुओं पर मैं आर्टिस्ट से बोल करके कवर बनवाया करता था। उस अंक में राजस्थान की राजनीति पर कवर स्टेरी थी, इसीलिए एसपी जयपुर गए हुए थे। जाने से पहले उन्होंने मुझसे कहा, निर्मल मैं जयपुर से फोन करके तुम्हें बता दूंगा कि कवर स्टोरी कौन सी होगी और कवर कैसे बनाना है। दो दिन बाद वहां से फोन आया और उन्होंने कवर स्टोरी तथा कवर कैसे बनाया जाए, उसकी एक सम्यक रूपरेखा बता दी। तत्पश्चात मैंने कवर बनाकर भेज दिया। अंक छप करके निकल आया। एसपी तब तक जयपुर से लौट कर आ भी गए थे। अमूमन गुरुवार को मद्रास ΄प्रेस से कवर पेज छप कर आ जाया करता था।

उस दिन भी गुरुवार था। मैं अपने काम में व्यस्त था। शायद अगले अंक के फाइनल पेज चेक कर रहा था। मैं अपने काम में इतना मगन था कि मैं देखा ही नहीं कि एसपी मेरे पीछे खड़े हैं। फिर जब ध्यान गया, तो उन्होंने मुझसे कहा, निर्मल, जरा अंदर (केबिन में) आओ। केबिन के अंदर ΄प्रवेश करते वक्त मैंने देखा कि उनके हाथ में रविवार का कवर पेज है। मैंने उत्सुकता जताई कि भैया कैसा है? उत्तर में उन्होंने कवर ΄पृष्ठ को मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, मैंने जैसा कहा था, तुमने ठीक उसका उल्टा कर दिया। मैंने जिस कवर स्टोरी बनाने के लिए कहा था, तुमने उसे विशेष रिपोर्ट बना दिया और विशेष रिपोर्ट को ...। सुनते ही मैं परेशान हो गया। उनको पता था कि मैं छोटी-छोटी चीजों से परेशान हो जाता हूं, शायद इसीलिए उन्होंने तुरंत कहा, कोई बात नहीं ऐसा हो जाता है। मैं बाहर आया। सोचा, इतनी बड़ी बात हो गई और उन्होंने मुझे कुछ भी नहीं कहा। मेरी आंखों में आंसू आ गए। मुझे अब इस बात का डर सताने लगा कि अभी सभी स्टाफ को पता चल जाएगा कि निर्मल से कोई गलती हुई है।

इसीलिए मैं तुरंत विभाग से बाहर निकल गया। थोड़ी देर बाद जब मन शांत हुआ, तो मैं अपनी सीट पर लौट आया। काफी देर तक इसी उधेड़बुन पर फंसा रहा कि उन्होंने मुझे डांटा क्यों नहीं? मैं बहुत भावुक इंसान हूं। उस दिन, मुझे याद है, मैं रात भर सो नहीं सका। पत्नी मुझसे ΄पूछती रही कि तुम्हें हुआ क्या है? मैंने उससे कुछ भी नहीं कहा। दूसरे दिन मैं सीधे एसपी के घर गया और कहा, भैया मुझे माफ कर दीजिए। वे हंसने लगे। कहा, तुम बेवकूफ हो! तुम काम करते हो, इसीलिए तुमसे गलती हुई है। और भविष्य में भी तुमसे गलतियां होती रहेंगी। अगर इसी तरह सिर्फ एक गलती पर हम किसी को बुरा भला कहना शुरू कर देंगे, तो वह और ज्यादा गलती करेगा। लेकिन कुछ नहीं कहने पर वह भविष्य में हमेशा उसी तरह का काम दोबारा करते वक्त सचेत रहेगा। इस तरह उन्होंने वहां से समझा बुझाकर और खाना खिलाकर तुरंत ऑफिस जाने के लिए कहा।

घटना नं- 2

गलतियां हर पत्रिका में होती हैं, इसलिए एक बार फिर मुझसे एक गलती हो गई। हुआ यूं कि एक दिन ‘रविवार’ के हम सभी साथी बाहर लॉन पर बैठे शाम की चाय पी रहे थे। चूंकि मैगजीन एक दिन पहले पैकअप कर दी थी, इसीलिए रिलैक्स मूड में थे। हम लोग बैठे-बैठे हंसी मजाक कर रहे थे कि इतने में एसपी अंदर आए और हंसते हुए मुझसे पूछा कि निर्मल, तुम्हारी राशि कौन सी है? मैंने कहा, मेरी दो राशि है। नाम के अनुसार, वृश्चिक और जन्म समय के अनुसार सिंह। उनके हाथ में रविवार का नया अंक था। उन्होंने तुरंत अंक को आगे बढ़ाया और हंसते हुए कहा कि देखो जरा तुम्हारी राशि में क्या है? मैंने शुरू से आखिर तक अच्छी तरह से देखा, तो बात समझ में आ गई। उसमें सिंह राशि गायब थी। फिर उन्होंने कहा- मैं सबसे पहले अपनी राशि देखता हूं। इसीलिए पलटते ही जब मैंने देखा कि मेरी राशि नहीं है, तो पहले तो मैं चौंका, फिर समझ में आ गया कि एक राशि कम है। इस वाकये के बाद उन्होंने केवल इतना कहा कि हमेशा बारह राशियां गिन लिया करो। और यह कहते हुए वे अंदर चले गए। आज भी मैं हमेशा बारह राशियां गिन लेता हूं।

घटना नं-3

उस दिन हम लोग रिलैक्स मूड में बैठे थे, बल्कि यह कहना उचित होगा कि हम लोग सब शाम को भेल (बांग्ला भाषा में इसे मूड़ि कहते हैं) खा रहे थे। हंसी मजाक में एक दूसरे पर टिका टिप्पणी भी कर रहे थे। तभी एसपी हंसते हुए आए। उस दिन भी उनके हाथ में रविवार का ताजा अंक था। मेरी नजर उनके चेहरे पर पड़ी, तो वे मुस्कुराने लगे। फिर उन्होंने राजकिशोर जी की ओर मुड़कर उनसे ΄पूछा, कि राजकिशोर जी, सुना है आपके यहां कोई नया एडिटर आ रहा है। पहले तो राजकिशोर जी चौंक गए, फिर उन्होंने पूछा, क्या, क्या कह रहे हैं सुरेंद्रजी! एसपी ने मैगजीन आगे बढ़ाते हुए व्यंग्य करते हुए टिप्पणी की- लगता है, मैनेजमेंट ने मुझे निकाल दिया है। इस बार राजकिशोर की ओर मुखातिब होकर कहा कि अब आपके सपने साकार हो जाएंगे। एक निश्छल हंसी थी उनके चेहरे पर। क्योंकि मेरे बाद तो आप ही संपादक बनने के हकदार हैं। हम सभी यह सुनकर परेशान हो गए, क्योंकि हम में से किसी को भी यह समझ में नहीं आ रहा था कि एसपी ऐसा क्यों कह रहे हैं?

खैर, थोड़ी देर बाद उन्होंने मैगजीन का पहला पन्ना खोला। और हम सभी को दिखाते हुए कहा, अब सुरेंद्र प्रताप सिंह इस रविवार के संपादक नहीं रहे। आप लोग अपना अपना बायोडाटा मैनेजमेंट को भेज सकते हैं और यह कह कर वे खूब ठहाके मार मार कर हंसने लगे। मैंने उनके हाथ से मैगजीन ले ली। पहला पन्ना पलटा। देखा कि वहां संपादक के तौर पर एसपी का नाम नहीं है, लेकिन एक स्पेस जरूर छूट गया है। मुझे बात समझ में आ गई। उन दिनों पेस्टिंग का जमाना था। नाम हर बार पेस्टिंग करके लगवाया जाता था। गैली काटकर लगाना होता था। छूटा हुआ स्पेस देखकर मुझे यह समझने में कहीं कोई दिक्कत नहीं हुई कि नाम कहीं गिर गया है। हालांकि आश्चर्य की बात तो यही है कि एसपी ने इस बड़ी बात को भी बिल्कुल नजरंदाज कर दिया, इस तरह से मानो कुछ हुआ ही न हो। वे चाहते, तो इस बात पर पेस्टिंग विभाग से लेकर सभी को लाइनहाजिर करवा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि उन्हें पता था कि इससे नाम तो ΄प्रिंट नहीं हो सकता।

घटना नं-4

घटनाएं तो कई हैं, इसलिए सभी घटनाओं का जिक्र करना यहां संभव नहीं है। हां, एक घटना जरूर ऐसी है, जिसका जिक्र करना यहां बहुत ही आवश्यक है, एसपी के व्यक्तित्व को समझने के लिए।

यह वाक्या सन् 1982 का है। तब रविवार में विज्ञापन परिशिष्ट का सारा काम मैं ही देखता था। उन्हीं दिनों मध्य प्रदेश पर 40 पेज के विज्ञापन परिशिष्ट का काम चल रहा था। तब मुझे दमे की भयानक शिकायत रहती थी। अमूमन परिशिष्ट की टीम में दो और सहयोगी मेरे साथ होते थे। परिशिष्ट का काम चल रहा था, तभी मेरी तबियत खराब होनी शुरू हो गई। धीरे धीरे मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि मुझे अंतत: छुट्टी लेनी पड़ी। ऐसी स्थिति में मैं अपना काम अपने दोनों साथियों (राजेश त्रिपाठी और हरिनारायण सिंह) को समझा बुझा कर चला गया। मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि मुझे 15 दिनों की छुट्टी लेनी पड़ी। छुट्टी से लौटकर आया, तो मैंने परिशिष्ट के एवज में बिल बनाकर विज्ञापन विभाग के सीनियर मैनेजर आलोक कुमार को भेज दिया और उसके बाद मैं अपने दैनिक काम में लग गया। अचानक एक दिन राजेश ने मुझसे पूछा कि निर्मल विज्ञापन का पैसा अभी तक नहीं आया क्या? मुझे भी लगा कि काफी देर हो चुकी है। अब तक तो चेक आ जाने चाहिए थे।

मैं तुरंत आलोक कुमार से मिला और उनसे पूछा, आलोक दा, इस बार हमें अभी तक मध्य प्रदेश विज्ञापन परिशिष्ट के ΄पैसे नहीं मिले? पहले उनको शायद समझ में नहीं आया, इसीलिए उन्होंने पूछा, वॉट?

मैंने कहा, मध्य प्रदेश विज्ञापन परिशिष्ट का ΄पैसा ...? मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि उन्होंने जवाब में कहा, वह पैसा तो आत्मानंद सिंह (विज्ञापन प्रतिनिधि) के नाम पर लग गया है।

मैंने पूछा, क्यों? आप तो जानते ही हैं कि यह सारा काम मैं करता हूं। मेरे साथ मेरे दो साथी भी होते हैँ? लेकिन तुम तो बीमार थे, उन्होंने पूछा?

मैंने कहा, मैं बीमार जरूर था, लेकिन मैं स्वयं साठ प्रतिशत काम करके गया था और फिर बाकी काम अपने दो साथियों में बांट कर गया था। फिर मैंने विनम्रतापूर्वक कहा कि बिल में मैंने तीन लोगों के बीच पूरे पैसे बांट कर चेक बनाने के लिए आग्रह किया है। ऐसा करिए, आप मेरे उन दोनों सहयोगियों को पैसे दे दो, क्योंकि उन दोनों ने मेहनत की है, अन्यथा वे भविष्य में हमारा साथ नहीं देंगे। और वैसे भी मैंने वादा किया है। इस पर उन्होंने कहा, चेक बन चुका है, इसलिए अब यह संभव नहीं है। दरअसल, उनकी बातों से लगा कि वे खुद नहीं चाहते, इसलिए मैंने उनसे पूछा कि क्या आत्मानंद सिंह पेज बनवा सकते हैं, संपादन कर सकते हैं, प्रूफ पढ़ सकते हैं, अनुवाद कर सकते हैं? मैंने दृढ़तापूर्वक कहा, वे ये सब नहीं कर सकते। यह सब जान बूझकर किया गया है। मुझे गुस्सा आ गया और गुस्से में मैंने कहा कि आप गलत’ लोगों को शह देते हैं। इस पर उन्होंने मुझे कहा कि तुम्हारे कहने का मतलब यह है कि मैं ‘बायस्ड’ हूं।

मैंने जवाब में कहा, मैंने आपको बायस्ड नहीं कहा। इस पर वे खड़े हो गए और चिल्लाने लगे कि जानते हो तुम किससे बात कर रहे हो? उनके इस तरह से चिल्लाने के बाद मैंने कहा, हां, मैं जानता हूं कि आप विज्ञापन विभाग के सीनियर मैनेजर हैं। इससे क्या होता है? तब तक गुस्सा मेरे सिर पर चढ़ चुका था और मैंने उन्हें फिर चल्लाते हुए कहा कि यदि आपके पिताजी के पास दौलत नहीं होती, तो न ही आप पढ़ लिख पाते और न ही आज आप यहां होते। हो सकता है, आप भी रिक्शा चला रहे होते! गेट आउट कह कर उन्होंने मुझे अपने केबिन से निकाल दिया। मैं अपने विभाग में पहुंचा, तो भक्त दा (सेवा संपादक), जो कि कान से ऊंचे सुनते थे, इशारे से मुझसे कहा कि आपको साहब बुला रहे हैं। मैं एसपी के केबिन में गया, तो देखा कि वे फोन पर कह रहे हैं कि निर्मल से तुमने कुछ उल्टी सीधी बात जरूर की होगी। वैसे भी उसने और उसकी टीम ने ही सारा काम किया है। यहां का रजिस्टर गवाह है। फिर तुम्हारे कहने पर मैं उसे क्यों डांटूं? यह कहकर उन्होंने फोन रख दिया। अब उन्होंने मुझे बैठने के लिए कहा। मैं बैठ गया।

उन्होंने कहा, निर्मल अभी अभी आलोक का फोन आया था। वह बहुत गुस्से में है। अरूप बाबू (उन दिनों आनंद बाजार पत्रिका के जनरल मैनेजर थे। वैसे वे मालिक भी हैं।) से शिकायत करने वाला था, लेकिन मैंने उसे कह दिया कि इसमें तुम्हारे विभाग की ही गलती है। तुम ऊपर जाओ। आलोक से अब अच्छी तरह बात कर लो। मैं ऊपर गया, तो इस क्षण आलोक कुमार का तेवर ही बदला हुआ था। मेरे पहुंचे ही उन्होंने मुझसे उल्टा कहा, निर्मल जो हो गया, उसे भूल जाओ। दोबारा बिल बनाकर दे दो।पैसे मिल जाएंगे। फिर हाथ मिलाया और कोकाकोला भी पिलाया। वैसे, यहां यह बता दें कि बाद के दिनों में आलोक कुमार और मेरे बहुत अच्छे संबंध बन गए थे। उन्होंने मेरे कहने पर मेरे एक दोस्त को नौकरी भी दी थी, विज्ञापन विभाग में।

यह घटना इस बात का सबूत है कि एसपी सच्चाई का साथ देने में कभी पीछे नहीं हटते थे, जबकि हम यह भालीभांति जानते थे कि एसपी और आलोक कुमार में बहुत अच्छी दोस्ती थी। दोनों एक दूसरे के घर में दिन रात पड़े रहते थे, लेकिन बात जब सच्चाई की होती थी, तो एसपी हमेशा सच्चाई का ही साथ देते थे, भले ही इससे उनका बहुत बड़ा नुकसान ही क्यों न हो जाए, या फिर दोस्तों के बीच में दरार पड़ जाए?
समाचार4मीडिया ब्यूरो by समाचार4मीडिया ब्यूरो