एसपी ”मूर्ख-मूर्खाओं” को ही रखते थे क्योंकि वे सवाल नहीं पूछते! पुण्यतिथि पर एक स्मरण…
June 29, 2013 - by जितेन्द्र कुमार
भारत में टीवी पत्रकारिता के गॉडफादर माने जाने वाले सुरेन्द्र प्रताप सिंह उर्फ़ एसपी की आज पुण्यतिथि है. 1997 में उनकी मौत के बाद बीते दो दशक से ज्यादा वक़्त में भले एसपी के शिष्य और शिष्याएं टीवी चैनलों के सर्वेसर्वा बन चुके हैं और मीडिया की दिशा तय कर रहे हैं, लेकिन इसी अवधि में टीवी मीडिया जितना नैतिक और वैचारिक पतन का शिकार हुआ वह भी अद्भुत है. आखिर इसकी वजह क्या है? मूल शीर्षक “टेलीविज़न पत्रकारिता: सन्दर्भ एसपी सिंह” से लिखा गया यह लेख इस बात की पड़ताल करता है कि टीवी पत्रकारिता की सड़ांध बुनियाद में थी, स्तंभों में या फिर उस चूने-पेंट में है जिसे आज के संपादक खुलेआम दोषी ठहरा रहे हैं। यह लेख 2013 में इसी दिन जनपथ पर छपा था. इस लेख में अनामित व्यक्तियों और पदों को 2007 जनवरी के हिसाब से पढ़ें और समझें। (संपादक)
अपनी बात शुरू करने से पहले एक कहानी। बात उन दिनों की है जब दिल्ली में मेट्रो रेल शुरू ही हुई थी। मेरे एक मित्र मेट्रो से घर जा रहे थे। उन्हें कश्मीरी गेट पर मेट्रो का टिकट खरीदना था। उन्होंने टिकट खरीदते समय 50 रुपए का नोट दिया। टिकट लेते समय ही ट्रेन आ गई और वे हड़बड़ी में मेट्रो में बैठ गए। मेट्रो में बैठने के बाद उनको याद आया कि अरे, बकाया पैसे तो उन्हें मिले ही नहीं। अगले स्टेशन पर उतर कर उन्होंने इस बात की शिकायत ‘शिकायत कक्ष’ में की। थोड़ी देर पूछताछ और दरियाफ्त करने के बाद यह पाया गया कि सचमुच उनके पैसे वहीं रह गए हैं, अतः वे आकर अपने बचे हुए पैसे ले जाएं।
खैर, अगले दिन सवेरे उनसे मिलना था लेकिन उन्होंने फोन करके मुझसे आग्रह किया कि दोपहर के बाद मिलने का कार्यक्रम रखा जाए। जब हम मिले तो उन्होंने बताया कि वह कल वाली घटना की शिकायत मेट्रो प्रमुख सहित इससे जुड़े देश के तमाम लोगों से कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि जब आपको पैसे मिल गए हैं तो फिर शिकायत किस बात की कर रहे थे? इस पर उनका जवाब था- ”देखिए, मेट्रो अभी बनने की प्रक्रिया में है, अभी जो भी खामियां हैं, अगर नीति-निर्माता और इसके कर्ता-धर्ता ईमानदारीपूर्वक चाहें तो वे खामियां दूर की जा सकती है। मैंने उन्हें सुझाव दिया है कि दिल्ली मेट्रो को ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए जिसमें यात्रियों को टिकट (टोकन) के साथ ही बचे हुए पैसे वापस कर दिए जाएं।” और थोड़े दिनों के बाद ही मेट्रो में यह व्यवस्था बन गई कि टोकन के साथ ही पैसे भी वापस किए जाने लगे।
बात उन दिनों की है जब भारत में टेलीविज़न पत्रकारिता की शुरुआत हो रही थी- वर्ष 1993/94/95, एस.पी. सिंह (सुरेन्द्र प्रताप सिंह) कोलकाता से निकलने वाले अंग्रेजी दैनिक ‘द टेलीग्राफ’ के राजनीतिक संपादक से उठाकर ‘आजतक’ (तब तक यह चैनल नहीं बना था, दूरदर्शन पर सिर्फ एक समाचार का कार्यक्रम था) के प्रमुख ‘बना दिए’ गए थे। (‘बना दिए गए थे’ का जुमला एस.पी. का था। उनका कहना था कि वह इसके लिए तैयार नहीं थे, बस ए.पी. यानी अरुण पुरी ने जबरदस्ती उन्हें वीपी हाउस के लॉन से कंपीटेंट हाउस में लाकर बैठा दिया था)। इस प्रोग्राम के लिए स्लॉट तो मिल गया था लेकिन कार्यक्रम अभी तक शुरू नहीं हुआ था। ढेर सारे बेहतरीन प्रोफेशनल और सामाजिक सरोकार रखने वाले पत्रकार (एस.पी. के ‘सरोकार’ को ध्यान में रखकर) उनसे नौकरी मांगने और वैसे ही मिलने के लिए आते-जाते रहते थे। इन्हीं दोनों सिलसिले में मैं भी उनसे मिलता रहता था (हालांकि हमारी जान-पहचान 1992 से थी जब तथाकथित ‘राष्ट्रवादियों’ द्वारा बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश के हजारों संवेदनशील लोगों का समूह सड़कों पर उतर आया था और हम लोग सीलमपुर के दंगा प्रभावित क्षेत्र में काम कर रहे थे)।
यह एस.पी. के जीवन का वह दौर था जब वे प्रिंट मीडिया में अपना परचम फहराकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पांव रख रहे थे। इसी बीच दूरदर्शन पर ‘आजतक’ शुरू हो गया और वह कार्यक्रम धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगा। जानने वालों के लिए एस.पी. और आम लोगों के लिए एस.पी. सिंह अपने पत्रकारीय जीवन के शिखर पर विराजमान हो गए।
जिस रफ्तार से आजतक ‘सफल’ हो रहा था उसी तेजी से एस.पी. से मिलने वालों की भीड़ भी बढ़ती जा रही थी, लेकिन वह भीड़ सामाजिक सरोकार व चाहने वालों की ही नहीं थी बल्कि टीवी पर दिखने वाले उस ‘सफल’ पत्रकार की थी जिसने ‘खबरों’ को ‘बिकाऊ’ बना दिया था। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि मिलने वालों के साथ-साथ नौकरी मांगने वालों की भीड़ भी उसी अनुपात में बढ़ रही थी। ‘आजतक’ की ‘सफलता’ के साथ-साथ लोगों को रोजगार भी मिल रहे थे और टेलीविज़न में अधिकांश रोजगार देने वाले एस.पी. ही थे।
इसी बीच एस.पी. के चाहने वाले एक सज्जन से मेरी मुलाकात ‘आजतक’ के पहले वाले दफ्तर कनॉट प्लेस में ‘कंपीटेंट हाउस’ की सीढ़ी पर हुई। ये वह सज्जन थे जिनके बारे में एस.पी. का कहना था कि उत्तर भारत की वर्तमान राजनीति पर इससे बेहतर समझ वाला व्यक्ति उन्हें नहीं मिला है। मैं ऊपर न जाकर उनके साथ ही नीचे उतर आया। इधर आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि वह किसी की सिफारिश लेकर आए थे लेकिन एस.पी. ने साफ-साफ कह दिया कि टेलीविज़न पत्रकारिता में पढ़े व समझदार लोगों की ज़रूरत नहीं है। अगर वह चाहते हैं तो वह उनके वार्ड को किसी अखबार में रखवा सकते हैं। उसके बाद मैं जब भी एस.पी. से मिलने जाता, यह जानने की कोशिश करता कि वे पढ़े-लिखे व समझदार लोगों से इतना परहेज़ क्यों करते हैं, जबकि खुद वे पढ़े-लिखे व समझदार व्यक्ति माने जाते थे? अंत में बहुत झिझक के बाद एक बार मैंने उनसे पूछ ही लिया कि आप पढ़े-लिखे और समझदार लोगों से इतना परहेज़ क्यों करते हैं? इस पर उनका जवाब था- ‘वे प्रश्न बहुत पूछते हैं। इसलिए मैं मूर्ख-मूर्खाओं (मूर्खाओं का तात्पर्य बेवकूफ़ लड़कियों से था) को रखता हूं और उनसे जो भी काम कहता हूं वे तत्काल करके ला देते हैं।’
एक बार मैं एस.पी. से मिलने गया था और अपनी बारी का इंतजार कर रहा था। जब मैं उनके केबिन में दाखिल हुआ तो वे काफी गुस्से में थे। मुझे देखते ही झल्लाकर बोलने लगे- ”अभी जो सज्जन निकले हैं उन्हें नौकरी चाहिए! अब बताओ भला, इस विजुअल मीडिया में खादी पहनकर थोड़े न काम होगा! यू हैव टु बी स्मार्ट, सुंदर दिखना पड़ेगा!” एस.पी. उस समय इतने चिढ़े हुए थे कि उन्हें यह भी ध्यान नहीं था कि वे जिस व्यक्ति से यह बात कर रहे हैं वह खुद खादी पहने हुआ है और गाहे-बगाहे उनसे अपनी नौकरी की बात करता रहा है (यह संयोग है कि उस दिन मैंने उनसे इस संदर्भ में यह बात नहीं की थी)। इतने वर्षों के बाद जाकर उनकी बातों का अर्थ अब समझ में आने लगा है।
आज टेलीविज़न पत्रकारिता बाजार में ताल ठोककर खड़ी है, समाचार पहले से ज्यादा बिकाऊ है, न्यूज़ से करोड़ों की कमाई हो रही है और सैकड़ों लोगों को इस ‘इंडस्ट्री’ में रोजगार मिला है, तब यह प्रश्न उठता है कि बहस किस बात को लेकर हो? इसलिए एस.पी. आज बहस के केन्द्र में हैं, गुज़रने के इतने वर्ष के बाद भी।
आखिर एस.पी. को प्रश्न पूछने वालों या खादी पहनने वालों से इतना परहेज़ क्यों था? क्या इसे एक ‘ट्रेंड’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है? या इसका कोई वैचारिक धरातल भी है? इन सब बातों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। जिस समय एस.पी. हिन्दुस्तान में टेलीविज़न पत्रकारिता की ज़मीन तैयार कर रहे थे, वे बहुत अच्छी तरह जानते थे कि आने वाले दिनों में आज के ‘ट्रेंड’ का ही अनुसरण किया जाएगा। इसलिए वे पत्रकारों की ऐसी पीढ़ी तैयार करना चाह रहे थे जो पूरी तरह बाजारोन्मुखी हो और बाजार के सामने कोई भी समझौता करने को तैयार हो (व्यक्तिगत जीवन में वह खुद उदारीकरण के बड़े पैरोकार और समर्थक थे)। उन्हें पता था कि यह काम सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध और पढ़े-लिखे पत्रकारों से वह नहीं करवा सकते थे, क्योंकि समझदार पत्रकार उनसे कई तरह के प्रश्न पूछ सकते थे। निश्चय ही जब वे उनसे प्रश्न पूछते तो सवाल व्यक्तिगत तो नहीं ही होते बल्कि समाज की चिंता से जुड़ी बातें ही वे पूछ रहे होते जिसमें उदारीकरण, बाजार, सामाजिक दुर्दशा और सामाजिक सरोकार से जुड़े न जाने कितने अन्य प्रश्न होते और यहीं पर एस.पी. अपने को असहज महसूस करते। कल्पना कीजिए कि एस.पी. ने सामाजिक सरोकार से जुड़े सभी काबिल पत्रकारों को नौकरी पर रख लिया होता और वे मीडिया में महत्वपूर्ण पदों पर होते तो क्या बाजार उन्हें उसी तरह अपनी जद में ले पाता जैसा कि एस.पी. के बनाए ‘बड़े-बड़े महारथी पत्रकारों’ को अपनी जद में उसने ले लिया है? शायद एस.पी. का यही ‘विज़न’ था जो उन्हें एक साथ सामाजिक सरोकार का पुरोधा भी बनाता था और बाजार का प्रबल समर्थक भी!
दूसरी बात उनकी खादी पहनने वालों से चिढ़ने की है। उस वक्त मैं सोचता था कि आज अगर गांधी या लोहिया होते तो क्या एस.पी. उनसे भी उतना ही चिढ़ते! लेकिन धीरे-धीरे मेरी इस सोच में बदलाव आया और मैंने जाना कि वह उन्हीं प्रतिबद्ध, ग्रामीण, गरीब और मजबूर खादी पहनने वालों से चिढ़ते हैं जो उनसे कुछ मांगने (रोजगार, पैसे नहीं) आते हैं। जो उनसे कुछ मांगने नहीं आता था बल्कि प्रतिबद्धता के साथ-साथ शौक से भी खादी पहनता था उनकी वे इज्जत ही करते थे। इसका एक उदाहरण योगेन्द्र यादव हैं।
तीसरी बात, जब प्रतिबद्ध और सामाजिक सरोकारों से जुड़े पत्रकार टेलीविज़न मीडिया में होते तो आज की स्थिति कैसी होती, यह एक बार फिर काल्पनिक प्रश्न है। लेकिन अगर सचमुच ऐसा हुआ होता तो क्या इस बात को कोई भी इस विश्वास के साथ कह पाता कि टेलीविज़न पत्रकारिता में एकमात्र प्रतिबद्ध व्यक्ति एस.पी. सिंह ही हुए!
एस.पी. सिंह के पत्रकारीय जीवन को देखा जाय तो आपको एक भी ऐसा व्यक्ति नज़र नहीं आएगा जो सीधे तौर पर सामाजिक सरोकार से जुड़ा रहा हो या फिर एस.पी. ने किसी प्रतिबद्ध पत्रकार की व्यावसायिक जीवन में किसी तरह की मदद की हो। वे हमेशा ऐसे लोगों को ही प्रश्रय देते और प्रोत्साहित करते रहे जो पूरी तरह मूढ़ और सामाजिक सरोकारों से बिल्कुल कटे हुए थे। उदाहरण के लिए ‘आजतक’ में एस.पी. ने एक ऐसे व्यक्ति को नौकरी दी थी जो वहां काम करने वालों में सबसे अधिक संवेदनशील और राजनीतिक समझदारी वाले थे लेकिन उन्हें टेलीप्रिंटर पर टिकर देखने का काम दिया गया था जिसे वह एस.पी. निधन के बाद भी करते रहे और यह काम उन्होंने तकरीबन सात वर्षों तक किया। लेकिन एस.पी. ने उन्हें कभी रिपोर्टिंग के लिए नहीं भेजा।
इसी तरह उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति को नौकरी दी जिनके बारे में मशहूर है कि वह ‘बिकनी किलर’ चार्ल्स शोभराज का इंटरव्यू करने के लिए छोटा-मोटा अपराध कर के गोवा की जेल में चला गया जहां शोभराज को कैद करके रखा गया था और वहां से उसने शोभराज का इंटरव्यू किया। यह एक अलग तरह की पत्रकारिता हो सकती है और इसे शायद पत्रकारीय सरोकार ही कहा जाना चाहिए। लेकिन चार्ल्स शोभराज को तिहाड़ जेल से भगाने में मदद करना (आईबी की रिपोर्ट में यह बात दर्ज है) सिर्फ अपराध ही है। लेकिन एस.पी. ने उस व्यक्ति को इतना अधिक प्रश्रय दिया कि वह आज हिंदी के बड़े चैनल का प्रमुख बना हुआ है। दुखद ये है कि एस.पी. के पास ऐसे पत्रकारों की लंबी सूची थी जिन्हें वे बड़ा पत्रकार मानते थे और उन सबके साथ ‘मिलकर-जुलकर काम’ करते थे। बड़े पत्रकारों की सूची में प्रभु चावला सबसे ऊपर थे!
जब देश में टेलीविज़न पत्रकारिता की शुरुआत हो रही थी तो एस.पी. उसे दिशा दे सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसका कारण यह नहीं है कि उनमें यह करने का माद्दा नहीं था बल्कि इसका कारण यह है कि वह काफी ‘होशियार’ व्यक्ति थे और जो करना चाहते थे उसे कर लेते थे। ऐसा वह नवभारत टाइम्स में आंशिक रूप से ब्राह्मणवाद के वर्चस्व को कमजोर करके दिखा चुके थे (यह अलग बात है कि उनके निधन के इतने वर्षों बाद हिन्दी पत्रकारिता एक बार फिर उसी ब्राह्मणवाद की गिरफ्त में आ गई है क्योंकि आज के दिन उस काट का कोई केन्द्र नहीं रह गया है)। इसे एस.पी. ने पत्रकारिता की दूसरी पारी में फिर से प्रमाणित करके दिखा दिया जब उन्होंने सारे मीडियॉकर लेकिन गैर-ब्राह्मणों को टेलीविज़न पत्रकारिता का ‘स्टार’ बना दिया जो आज किसी न किसी रूप में देश के लगभग सभी हिन्दी चैनलों के कर्ता-धर्ता की हैसियत में हैं। लेकिन टेलीविज़न पत्रकारिता की कमान प्रगतिशील, समाजोन्मुख और प्रतिबद्ध पत्रकारों के हाथ में जाए यह उन्हें कतई गवारा नहीं था। उनकी ऐसी इच्छा ही नहीं थी कि पत्रकारिता की कमान कभी ऐसे लोगों के हाथ में आए। वे वैचारिक रूप से दूसरी पंक्ति के पत्रकारों के खिलाफ थे (पहली पंक्ति के तो खुद थे) जो शायद उन्होंने ‘मालूला’ (मायावती, मुलायम और लालू) से सीखी थी, जिसके वे बड़े प्रशंसक थे।
एस.पी. ने ‘समकालीन जनमत’ के पत्रकारिता विशेषांक में कृष्ण सिंह द्वारा किए गए साक्षात्कार में साफ-साफ पूछा था कि किसी को क्यों लगता है कि कोई सेठ क्रांति करने के लिए अखबार निकालेगा। उनका मानना था कि सेठ पैसा मुनाफा कमाने के लिए लगाता है। एस.पी. सिंह स्पष्ट तौर पर मानते थे कि अगर किसी को क्रांति करनी है तो पत्रकारिता करने की क्या जरूरत है! शायद एक सच यह भी है क्योंकि क्रांति और पत्रकारिता का क्या रिश्ता हो सकता है? लेकिन वे यह मानने को तैयार नहीं थे कि प्रतिबद्धता के साथ पत्रकारिता करके समाज निर्माण में सकारात्मक सहयोग किया सकता है।
यह बात दीगर है कि एस.पी. ने अपना एक ‘स्कूल’ बना लिया था (एस.पी. सिंह स्कूल ऑफ जनर्लिज्म) और उनके अनुयायी आज टेलीविज़न पत्रकारिता में चारों ओर भरे पड़े हैं। उसी स्कूल ऑफ थॉट के सबसे बड़े पैरोकार वर्तमान में (2007 में) आजतक के संपादक हैं। अगर आप उनसे मिलने जाते हैं और जब वह खाली होते हैं तो दो-तीन मीटिंग के बाद यह बताना कतई नहीं भूलते हैं कि वे गांव के एक बहुत ही ‘मामूली’ (‘गरीब’ शब्द का प्रयोग वह एकदम नहीं करते हैं) परिवार से आए हैं जिसने अपनी जिंदगी की शुरुआत बनारस में होटल मैनेजरी से की है और ‘प्रतिभा की बदौलत’ इस मुकाम तक पहुंचे हैं। उनकी प्रतिभा क्या थी या है यह ज्यादातर लोग नहीं जानते, लेकिन वह भी एस.पी. की तरह खादी पहनने वालों से गहरे चिढ़ते हैं और ग्रामीण को गंवार समझते हैं। एस.पी. खादी पहनने वालों से चिढ़ते थे यह बात तो थोड़ी बहुत समझ में आती है (हालांकि यह समझ पूरी तरह गलत है) क्योंकि उनकी परवरिश गांव में नहीं बल्कि कलकत्ता के ‘भद्रलोकों’ के बीच हुई थी लेकिन वे तो गांव के हैं, फिर वे ऐसे लोगों से क्यों चिढ़ते हैं? क्या इस देश में उदारीकरण शुरू होने से पहले भी ‘लुई फिलिप’,’एलेन सॉली’, ‘कलरप्लस’,’वैन ह्यूजन’ या फिर ’फैब इंडिया’ जैसे मशहूर ब्रांड के कपड़े मिलते थे जिसे पहनने का संस्कार उनमें था?
दुष्यंत कुमार के कुछ शब्दों को अगर उधार लूं और कहूं कि “मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है”, तो मैं यह कहना चाहता हूं कि यहां एस.पी. को एक व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक ‘फेनोमेनन’ के रूप में देखें, जिनकी टेलीविज़न पत्रकारिता में जबरदस्त पैठ है और जिनके अनुयायी एम.जे. अकबर सहित देश के बड़े-बड़े पत्रकार हैं। वे जब कहीं भाषण देने जाते हैं तो बताते हैं कि आज पत्रकारिता में पढ़े-लिखे लोगों की कमी है और जब कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति वहां पहुंचता है तो खुद अकबर जैसे लोगों का जवाब होता है कि अब पत्रकारिता में पढ़े लिखे लोगों की जरूरत क्या है? तो लोगों को समझना पड़ेगा कि इस दुनिया को बनाने में उनके जैसे लोगों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है, और शायद इसे और आगे ले जाएं तो कह सकते हैं कि वे वही लोग हैं जिन्होंने पत्रकारिता खासकर हिन्दी पत्रकारिता को गर्त में पहुंचाया है और आज भी हम उनकी दुहाई देते फिर रहे हैं।
एस.पी. के ढेर सारे अनुयायियों के बारे में गौर कीजिएगा कि वे जब आपसे मिलेंगे तो यह बताना नहीं भूलते हैं कि अफसोस तो इस बात का है कि एस.पी. टेलीविज़न पत्रकारिता के आरंभ में ही गुज़र गए, नहीं तो इस पत्रकारिता की दशा-दिशा बदल गई होती। यह सुनकर मैं चुप्पी लगा जाता हूं क्योंकि वे उनकी राजनीति और उनके विरोधाभास को नहीं समझ पाते हैं। एस.पी. बाजार के बड़े समर्थक थे और सांप्रदायिकता के कट्टर विरोधी। सामान्यतया विद्वानों का कहना है कि बाजार, सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद तीनों एक साथ चलते हैं। अगर वे होते तो इतने वर्षों में पूरी तरह फल-फूल चुके बाजार, उदारीकरण और सांप्रदायिक पार्टी के सत्ता पर विराजमान हो जाने के बाद एस.पी. क्या करते? यह सोचकर मैं डर जाता हूं और दिमाग को सोचने से मना कर देता हूं। यह डर मेरा है… क्योंकि इससे किसी की प्रतिमा टूट सकती है।
17 Comments on “एसपी ”मूर्ख-मूर्खाओं” को ही रखते थे क्योंकि वे सवाल नहीं पूछते! पुण्यतिथि पर एक स्मरण…”
Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून says:June 30, 2013 at 1:16 am
बहुत बढ़िया. ब्लॉग इसी लिए तो हैं. अपनी बात रखिए बेहिचक. बहुत अच्छा लगा पढ़ कर. आपके नज़रिये में भी अलग बात है.
बेनामी says:June 30, 2013 at 2:35 am
अच्छे लेख के धन्यवाद.
अविनाश दास says:June 30, 2013 at 5:10 am
यह लेख मैंने पढ़ा। सवाल ये है कि पत्रकारिता के मौजूदा या अब तक मौजूद मुख्यधारा पत्रकारिता के परिदृश्य को देखा कैसे जाए? हम टाइम्स ऑफ इंडिया या इंडियन एक्सप्रेस या आनंद बाजार पत्रिका या टीवी टुडे ग्रुप की पत्रकारिता को सूचना-सरोकार के संदर्भ में देखें या मुनाफे के लिए सूचना-व्यापार के संदर्भ में देखें? एसपी या प्रभाष जोशी या बारपुते या माथुर या यहां तक कि अज्ञेय-सहाय भी… इस देश की पूंजीवादी पत्रकारिता के शिखर रहे। इनकी निजी मेधाओं ने अपना काम किया। आप उनके पाले में जैसे सरोकार की तलाश करते हैं और कोफ्त होते हैं, वह नाजायज है। वैकल्पिक पत्रकारिता का कोई मॉडल हमारे देश में पनप नहीं पाया। निबंध और विचारों का परचम पत्रकारिता का एक जरूरी रूप है, लेकिन सूचना सबसे जरूरी शर्त है। वैकल्पिक पत्रकारिता के हमारे स्वयंभू इसी फर्क को अब तक नहीं समझ पाये और कोई बड़ा विकल्प नहीं दे पाये। वरना जनता तो तैयार है अपने हक में जेब और जान की कुर्बानी देने के लिए।
अभिषेक श्रीवास्तव says:June 30, 2013 at 5:15 am
अविनाश जी, ऐसा है कि वैकल्पिक पत्रकारिता पर बहस एक बिल्कुल अलग बहस है, उसे मुख्यधारा के पेशे में ''पत्रकारिता'' की तलाश के साथ रखकर नहीं देखना चाहिए। यहां एसपी के बहाने जो बहस उठी है, वह दरअसल इस बात की पड़ताल कर रही है कि मुख्यधारा के नाम पर जो हो रहा है/होता रहा है, उसमें पत्रकारिता का अनुपात कितना/क्यों/कैसे घटता गया, उसके लिए जिम्मेदार कौन है/था आौर क्या यह संकट (अगर है तो, विशेषकर टीवी के संदर्भ में) बुनियाद में ही था? इस सवाल को समझने के लिए हम ''पूंजीवादी पत्रकारिता के शिखरों'' में निजी स्तर पर ''सरोकार की तलाश'' नहीं करते, बल्कि यह जानने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं कि (बकौल दिलीप खान, देखें लिंक https://www.facebook.com/kyagroo/posts/10200743531244724) क्या ''वाकई कोई बड़ा पत्रकार सिर्फ़ कलम चलाकर मुद्दों पर बात कर रहा है या फिर पत्रकारिता के भीतरखाने को दुरुस्त करने की कोई योजना भी पेश कर रहा है, ख़ास कर तब, जब वो इसे दुरुस्त करने की पोजिशन में हो/रहा हो।'' जहां तक वैकल्कि पत्रकारिता के मॉडल और उसके ''स्वयंभू'' लोगों की समझ का सवाल है, तो भाई पहला पत्थर वो उछाले जिसने कोई पाप न किया हो, बोले तो, क्या मैं पूछ सकता हूं कि जो भी बची-खुची जैसी भी वैकल्पिक पत्रकारिता इस देश में है, उसमें कौन कितना योगदान दे रहा है निजी स्तर पर? वैकल्पिक मॉडल नहीं है न सही, किसी एक सरोकारी लघुपत्रिका को जिंदा रखने के लिए कितने मुख्यधारा के या स्वतंत्र ''सरोकारी'' पत्रकारों/संपादकों ने बिना मेहनताने की उम्मीद किए कंट्रीब्यूट किया है/कर रहे हैं? योगदान भी छोडि़ए, वैकल्पिक के नाम पर जितने प्रकाशन निकलते हैं, उनमें कितने आप खरीद कर पढ़ते हैं, सब्सक्राइब करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर उनके लिए लेख/अनुवाद/साक्षात्कार मुफ्त में कर देते हैं? जब वैकल्पिक के नाम पर किए जा रहे पूंजीविहीन न्यूनतम प्रयासों में आप/हम एक छटांक योगदान नहीं दे पा रहे, तो कम से कम इतनी नैतिकता रखें कि उन्हें मॉडल जैसी भारी-भरकम कसौटी पर कस कर मुख्यधारा के ''मूर्ख/मूर्खाओं'' के सामने ज़लील तो ना करें। सूचना ज़रूरी शर्त है, तो इसी पर परख लीजिए कि कौन कैसी सूचनाएं दे रहा है, छोटे-छोटे वैकल्कि प्रयास पूंजीवादी शार्कों पर भारी पड़ जाएंगे। और जनता किसके लिए तैयार है और किसके लिए नहीं, यह दावा तो वे भी नहीं करते जो जनता के बीच ही रहते हैं… इसलिए ऐसे लोकरंजक बयानों से बहस को डाइल्यूट मत करिए।
अविनाश दास says:June 30, 2013 at 7:44 am
यह बिल्कुल अलग बहस नहीं है अभिषेक जी। आप "मुख्यधारा मीडिया में पत्रकारिता की तलाश" का जो मुहावरा चलाने की कोशिश कर रहे हैं, वही भ्रामक और विसंगतिपूर्ण है। ऐसा लग रहा है, जैसे आप अंबानी के घर में अरविंद केजरीवाल को खोज रहे हैं। और वैकल्पिक पत्रकारिता का मतलब लघुपत्रिकाएं नहीं हैं। वैकल्पिक पत्रकारिता का मतलब है TOI जैसा ही एक अखबार, जिसका मुनाफा सिर्फ जैन साहब या कंपनी के चंद शेयर होल्डरों को न जाता हो। हम वैकल्पिक पत्रकारिता का मतलब कंटेंट को समझ बैठे हैं। जैसे मैं समकालीन तीसरी दुनिया का ही नाम लूंगा। या समयांतर का। ऐसी पत्रिकाएं या प्रयास भी एक आदमी की अपनी पूंजी है। इन पत्रिकाओं के मालिक इनके संपादक हैं। जब तक निर्माण का हुलिया (मोड ऑफ प्रोडक्शन) एकल (कैपिटलिस्ट) से सामूहिक (सोशलिस्ट) में नहीं बदलेगा, विकल्प की बात बेमानी है। दिल्ली में ही जितने लोग वैकल्पिक पत्रकारिता की बात कर रहे हैं, अगर वो मिल कर कॉपरेटिव तरीके से एक अखबार या टीवी चलाने के लिए आगे आएं, तो आप पूंजीवादी मीडिया का एक विकल्प खड़ा कर सकते हैं। एक कयास लगा रहा हूं। मुलाहिजा फरमाइएगा। दिल्ली की आबादी करीब 17 करोड़ है। मान लीजिए आप एक नागरिक से दस रुपये लेते हैं, तो 17 करोड़ आबादी से 170 करोड़ रुपये इकट्ठा कर लेंगे। आप कहेंगे मुश्किल है – फट कर हाथ में आ जाएगा। मैं कहता हूं कि आप इसके लिए साल भर दीजिए। और घर से चार पांच की टोली में रोज निकल कर लोगों से यथाशक्ति पैसे लीजिए। कोई दस देगा, कोई सौ देगा, कोई हजार देगा और कोई पांच हजार देगा। कोई कोई दस हजार और पचास हजार भी दे सकता है। इस तरह टारगेट पॉपुलेशन कम हो जाएगा और पैसे पूरे आ जाएंगे। फिर इस शर्त पर अखबार निकालिए कि उसमें विज्ञापन नहीं छापेंगे। अखबार का दाम दस रुपये या बीस रुपये रखिए। इस तरह वैकल्पिक मीडिया का निर्माण होगा। एसपी या डीएसपी या मंडल या कमंडल अपनी निजी प्रतिभाओं के बूते जिस जमीन पर पत्रकारिता करते रहे हैं, उसमें वही होना था, जो हुआ। उसका विश्लेषण आप अपने फ्रेमवर्क में करेंगे तो आपके मुंह से सिर्फ गाली निकलेगी – विकल्प नहीं।
अभिषेक श्रीवास्तव says:June 30, 2013 at 8:43 am
अविनाश जी, अगर मुख्यधारा मीडिया में पत्रकारिता की तलाश ''भ्रामक और विसंगतिपूर्ण'' है, तब तो ''एसपी या प्रभाष जोशी या बारपुते या माथुर या यहां तक कि अज्ञेय-सहाय का इस देश की पूंजीवादी पत्रकारिता के शिखर'' होना भी भ्रामक और विसंगतिपूर्ण ही है। क्यों, इसे विस्तार से देखिए। पत्रकारिता/मुख्यधारा की पत्रकारिता/पूंजीवादी पत्रकारिता तीनों एक ही चीज़ है जहां स्वामित्व की प्रकृति पूंजीवादी होती है और उसके भीतर सूचना सम्प्रेषण/विचार प्रसारण का काम जनहित की दृष्टि से किया जाता है। पत्रकारिता नाम के उद्यम का उद्गम किसी कम्युनिस्ट/समाजवादी/सहकारी मॉडल में नहीं हुआ है। पत्रकारिता का पूरा इतिहास ही पूंजीवादी पत्रकारिता का इतिहास रहा है, इसलिए हम जब ''पत्रकारिता की तलाश'' की बात कहते हैं तो वह जस्टिफाइड है, विसंगतिपूर्ण नहीं। आपको विसंगतिपूर्ण इसलिए लग रहा है क्योंकि आप ''सेठ की दुकान में क्रांति'' वाले एसपी के मुहावरे से शुरुआत कर रहे हैं जहां सेठ और क्रांति को juxtapose कर के अतीत से भी बेईमानी बरती गई है और भविष्य की संभावनाओं को भी खत्म किया गया है। इस तरह तो एंगेल्स के पैसे पर पनपे मार्क्सवाद और बिड़ला के पैसे पर मिली आज़ादी (चाहे जैसी हो) दोनों को आप खारिज कर देंगे। अब आइए वैकल्पिक पर। 17 करोड़ की आबादी से पैसे जुटाना आप ऐसे कह रहे हैं जैसे वह आबादी पत्रकारिता/आर्थिकी से निरपेक्ष मंगल ग्रह पर हो। अगर उस आबादी से 10-10 रुपये जुटाना इतना ही सहज हो, तो आप आइडिया देने के बजाय अब तक क्रांति कर चुके होते। बहरहाल, मैं जानना चाहता हूं कि पूंजीवादी मॉडल के विकल्प को विकसित करने के लिए सहकारी मॉडल का जो प्रयास पिछले डेढ़ साल से अनिल चमडि़या, राजेश वर्मा, जितेन्द्र कुमार, धीरेंद्र झा आदि करीब 50 लोग लगातार करने में जुटे हैं, आपकी उसमें क्या भागीदारी है। सलाह देना अच्छा काम हो सकता है, लेकिन at the end of the day आप क्या कर रहे हैं, यह भी मायने रखता है। ठीक है कि लघुपत्रिकाओं के संपादक ही उनके मालिक हैं लेकिन वे क्या कर रहे हैं इसे भी देखिए। वैसे जानकारी दे दूं कि समयांतर एक ट्रस्ट बन चुका है और तीसरी दुनिया में उसके संपादक की निजी पूंजी नहीं लगी है, लोकतांत्रिक तरीके से जुटाए गए चंदे का योगदान है। जो हुआ और जो हो रहा है उसका विश्लेषण तो अपने फ्रेमवर्क में ही करना होगा क्योंकि बनारस में एक गाना चलता है, ''हम थे जिनके सहारे, वो हुए ना हमारे/ डूबी जब दिल की नैया, सामने थे छिनारे।'' छिनरों के फ्रेमवर्क से तो आप परिचित होंगे ही?
अविनाश दास says:June 30, 2013 at 9:03 am
अभिषेक भाई, ज्ञानपीठ भी एक ट्रस्ट है 🙂 अक्षर प्रकाशन भी एक ट्रस्ट है 🙂 बहरहाल… आप पत्रकारिता के इतिहास को पूंजीवादी पत्रकारिता का इतिहास कह रहे हैं – मैं सहमत हूं। हमारी सभ्यता का सामाजिक इतिहास भी सामंती और स्त्रीविरोधी समाज का इतिहास है। लेकिन लड़ाइयों का भी एक इतिहास है। उसी तरह जनपक्षधर पत्रकारिता की कोशिशों का भी एक इतिहास है। बेहतर होगा, अगर हम ऐतिहासिक गलियों में पत्रकारिता के विमर्श की पड़ताल न करें। और आप एंगेल्स के पैसे से क्रांति के विचार का उदाहरण देकर अपनी समझ को थोड़ा संकीर्ण तरीके से पेश कर रहे हैं। अमीर होने और पूंजीवादी होने में अंतर है। फिर डी-कास्ट और डी-क्लास जैसी अवधारणाओं के लिए कोई जगह नहीं बचेगी। मैं ये नहीं कह रहा कि जब आप 17 करोड़ जनता से चंदा मांगने जाएं, तो उसमें वर्ग-विभेद करके जाएं। अमीर और गरीब दोनों के पास जाएं। और आपकी मुश्किलों का हल पहले कर दिया है कि दस, बीस, सौ, हजार, पांच हजार, दस हजार और पचास हजार की श्रेणियों में पैसे आएंगे तो संभव है जो 17 करोड़ जनता तक जाने के बजाय दस लाख जनता तक पहुंचते पहुंचते ही आपका टार्गेट पूरा हो जाए। रही इस बाबत मेरे ज्ञान देने की बात – तो सूचना-मीडिया में मेरी दिलचस्पी न्यून हो चुकी है। जिस माध्यम को अपनाने की तैयारी कर रहा हूं – देर, सबेर कॉपरेटिव मॉडल वहां भी विकसित करने की कोशिश करूंगा। आपलोग वैकल्पिक मीडिया के लिए जो कोशिश कर रहे हैं, उसके लिए मेरी शुभकामनाएं हैं, समय नहीं। मैं वह अखबार जरूर खरीदूंगा, चाहे उसकी कीमत सौ रुपये ही क्यों न हो। [किनारे को आपने छिनारे जान-बूझ कर किया है या टाइपिंग एरर है?]
Unknown says:June 30, 2013 at 9:16 am
एस पी सिंह ,प्रभाष जोशी या फिर अन्य उस मीडिया के बाप होंगे जो उनके साये में फले-फुले या फिर उस मीडिया के जो उनका नाम ले -लेकर अपने हाथों से अपने पीठ ठोंक रही है |अभिषेक भाई मीडिया और मुख्यधारा के मीडियामैन दो अलग अलग चीजें हैं|मुख्यधारा क्या है और उसी में पत्रकारिता की तलाश क्यों की जा रही है ,ये भी बताया जाना चाहिए |जहाँ इस तक ब्लॉग का सवाल है अंक निकालकर या फिर जन्मदिन के बहाने एसपी को याद करना और उस बहाने टेलीविजन पत्रकारिता की चर्चा करना कुछ लोगों का व्यक्तिगत कार्यक्रम है जो वो करते रहेंगे |एसपी सिंह को हम जैसे निचले तबके के पत्रकार एक राजनैतिक विश्लेषक एक तौर पर जानते हैं जो खबरिया चैनलों के शुरूआती दिनों में टीवी पर नजर आता था ,रजत शर्मा को भी हम उसी केटेगरी में गिनते हैं |उनके द्वारा हिंदी पत्रकारिता में किस किस्म का योगदान किया गया आप बेहतर जानते होंगे ,लेकिन यकीन मानिए पत्रकारिता के पूंजीवादी और महानगर केन्द्रित माडल से बाहर जो कुछ नजर आता है ,वो दरिद्रता दुर्दशा और बहाली से भरा हुआ है लेकिन फिर भी सर्वश्रेष्ठ है ,यही माडल हमेशा काम आने वाला है |
अभिषेक श्रीवास्तव says:June 30, 2013 at 10:49 am
अविनाश जी, अब आप सही बात पकड़े… जनपक्षधर पत्रकारिता। मेरा मानना है कि जनपक्षधर पत्रकारिता कोई अलग से लड़ी जाने वाली मंजिल नहीं है, क्योंकि पत्रकारिता का बुनियादी चरित्र ही जनपक्षधरता और सामाजिक दायित्व को अपने भीतर समोए हुए है। जिसे आप जनपक्षधर पत्रकारिता की कोशिशों का इतिहास कह रहे हैं, वैसा बता दीजिए कितना लंबा रहा है कि जिसे अलग से आइडेंटिफाई किया जा सके। दरअसल, जनपक्षधर पत्रकारिता अलग से आइडेंटिफाई किए जाने लायक ही तब बनी जब मुख्यधारा की पत्रकारिता पूरी तरह भ्रष्ट हो गई (जिसे बाइ डिफॉल्ट जनपक्षधर होना था)। मैं इसीलिए पूंजीवादी मोड ऑफ प्रोडक्शन के भीतर की जा रही मुख्यधारा पत्रकारिता में जनपक्षधरता की तलाश और समानांतर धारा के प्रयास की बात करता हूं। यही वजह है कि मुख्यधारा की आलोचना होती है। आप जैसे ही डीबेट को सहकारी/वैकल्पिक आदि श्रेणियों की ओर मोड़ते हैं, नकारवादी हो जाते हैं। हमारे एक मित्र थे जो कहा करते थे कि यह व्यवस्था गोबर पैदा करने वाली मशीन है, जितना तेज चलाओगे उतना ज्यादा गोबर बनेगा। आपका प्रतिवाद इसी श्रेणी का है जो सनातन पावन मार्क्सवादी आलस्य को तुष्ट करता है कि नहीं जी, सब पूंजीवादी है इसलिए हम तो अपनी दुनिया कायम करेगे फिर हरकत में आएंगे। जबकि नई दुनिया, नया मॉडल मुख्यधारा के भीतर रह कर आलोचना और संघर्ष की अनिवार्य मांग करता है। आपने सूचना माध्यम को छोड़ कर जिस माध्यम को चुना है, वहां कोऑपरेटिव मॉडल की लड़ाई उतनी ही मुश्किल है जितनी इधर, बल्कि ज्यादा। आपके चुनाव के लिए आपको शुभकामनाएं, लेकिन मुझे लगता है कि आप वही कह रहे हैं जो मैं, बस एजेंडे का फर्क है।
बेनामी says:July 1, 2013 at 3:13 am
अभिषेक और अविनाश जी, आप लोगों की जानकारी के लिए बता दें कि दिल्ली की आबादी 17 करोड़ नही है.1.7 करोड़ हो सकती है.कृपया इसे दुरुस्त कर लें.
SRSHANKAR says:July 1, 2013 at 5:01 am
वैसे भी बड़े पेड़ों के नीचे पौधों का दम तोड़ देना ही नियति होती है..पर छोटे पेड़ तो अगल-बगल में घास-फूस उगने मात्र से ही डरने लगते हैं..जब नाम बडे होने लगते है..दर्शन छोटा होते-२ अद्रश्य हो जाता है..और पत्रकारिता अपनी कीमत जान चुकी है..और तय भी कर ली है..वहां मूर्खो..मुर्खाओं..का ही स्थिर विकास है..क्योंकि ये वे खम्भे साबित होते हैं..जिन पर हमेशा ही भोग-सत्ता-ताकत का मजबूत महल खड़ा होता है..सेठ वाकई क्रांति के लिए नहीं..क्रांति..रोकने के लिए..मीडिया को इंडस्ट्री बनाते हैं..और आज का पत्रकार उनमे बंधुआ मजदूरी करने का एग्रीमेंट करके ही रह सकता है.पूंजीवाद ने सहकारिता भाव का नाश कर दिया है..इसलिए..सहकारी पत्रकारिता..कॉर्पोरेट मीडिया को कभी चुनौती डे पायेगी..मुझे संदेह है..
सिर्फ..एक..ही..माध्यम है..जो एक साथ..सभी चेहरों की नकाब हटा सकता है..वह है..ई-पत्रकारिता…ये फेसबुक..ट्विट्टर..आदि..नयीक्रांति के वाहक हैं..यहाँ कोई न तो बंधुआ..है..न ही..मजदूर..और न ही उसकी अभिब्यक्ति या खबर पर कोई प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है..हाँ..इस स्वतंत्र पत्रकार को परेशां किया जा सकता है..लेकिन..पराजित नहीं..क्योंकि..यहाँ..उसके पास भी दस मुहों वाली ..अराजकता..और बेईमानी का मुकाबला करने के लिए..उतने ही मुंह..चेहरे..और हथियार मौजूद मिल जायेंगे.
अविनाश दास says:July 1, 2013 at 5:43 am
अभिषेक जी … आप मेरी मूल बात नहीं समझ पा रहे हैं। मीडिया मेनस्ट्रीम में कई बार जो जनपक्षधरता दिखती है, उसको लेकर हमारी खामखयाली ऐसी होती है कि कभी कभी मीडिया की आत्मा जाग जाती है। जबकि मैं ये कहना चाहता हूं कि मीडिया में जनपक्षधरता का दृश्य भी इसलिए नजर आता है क्योंकि आप उस पर विश्वास करें। आपकी खामखयाली फले-फूले। विश्वसनीयता ही मीडिया मेनस्ट्रीम के प्रसार और व्यापार का आधार है। जनपक्षधरता के कायल लोगों को नौकरियां भी मिलती रही है। आप एक नाम बता दीजिए, जिसको इस मीडिया मेनस्ट्रीम ने उनकी जनवादिता के चलते घुसने न दिया हो। होता यह रहा है कि वहां भी आप उसी पावर गेम का हिस्सा होना चाहते हैं, जिसके लिए आप नाकाबिल हैं। आपकी जनवादिता अगर छद्म हुई तो आप उसके काबिल बनने की कोशिश करते हैं। एक युवा पत्रकार का उदाहरण देता हूं। वो जनता के एजेंडे वाली एक पत्रिका में अच्छी-खासी जन-पत्रकारिता कर रहे थे, लेकिन मौका मिलते ही गुलाबी शहर जाकर प्रेम-रस-बुंदिया बरसाने लगे। सवाल नकारात्मक होने का नहीं, मुख्यधारा मीडिया के ताने-बाने को समझने का है। मैं समझता हूं कि सहकारी जन मीडिया ही असल मायने में जनपक्षधर मीडिया होगा। बाकी जनपक्षधरता का नाटक होगा।
बेनामी भाई … आकंड़ा दुरुस्त करके पढ़ा जाए। हड़बड़ी में गड़बड़ी हो गयी। क्षमा।
अभिषेक श्रीवास्तव says:July 1, 2013 at 7:59 am
अविनाश जी, एक क्या, कई नाम हैं, लेकिन मैं बोलूंगा तो आप कहेंगे कि अमुक को जनवादिता के चलते नहीं, इस या उस वजह से नहीं घुसने दिया गया। नाम लेने में क्या रखा है। आपकी बात एक हद तक सही है कि ''विश्वसनीयता ही मीडिया मेनस्ट्रीम के प्रसार और व्यापार का आधार है।'' लेकिन जब मीडिया मेनस्ट्रीम आज से पहले किसी भी तारीख में ज्यादा विश्वसनीय रहा होगा, तो क्यया उसका व्यापार और प्रसार भी आज से पहले उसी अनुपात में था? ऐसा कतई नहीं है। इसका मतलब कि विश्वसनीयता से ही व्यापार और प्रसार नहीं आता, वरना ईपीडब्लू, सेमिनार, फिलहाल, समयांतर, तीसरी दुनिया, यहां तक कि पब्लिक एजेंडा (जिसे आप जनपक्षधर पत्रिकाओं में गिनवा रहे हैं) वे कहीं आगे होते। पावर गेम का हिस्सा होने वाली बात दरअसल टेढ़ी है। जब आप मेनस्ट्रीम में घुस कर जनवाद का एजेंडा लागू करना चाहते हैं, तो अपने आप दूसरा पावर सेंटर क्रिएट करने लगते हैं, भले आपकी ऐसी मंशा हो या नहीं। अगर आप सिर्फ नौकरी बजाते हैं, तो मौजूदा पावर गेम में अपनी जगह तलाश रहे होते हैं। पावर डिसकोर्स के नज़रिये से देखने पर तो मामला उत्तरआधुनिकता तक पहुंच जाएगा जहां मोहल्ले का हर लौंडा अपने को दाउद समझता है और सारी इकाइयां अनिवार्यत: लघु सत्ताएं होती हैं जो परस्पर एक-दूसरे को काटती हैं। अगर प्रस्थान बिंदु ये है, तब तो जनवाद की बात ही बेमानी हो जाएगी। इसलिए ज़रूरी है कि आप अपनी बात कहते वक्त पहले ये तय करिए कि आपकी सोशल-पॉलिटिकल लोकेशन क्या है। कभी जनवाद, कभी पावर डिसकोर्स, कभी नकारवाद और कभी सहकारिता की बैसाखी से पैंतरा बदलना सिर्फ यही दिखाता है कि बात सिर्फ बात के लिए हो रही है। आखिर लाठी भांजने और मीडिया पर बहस करने में कुछ तो दूरी होनी चाहिए।
Dev Kumar says:July 2, 2013 at 11:11 am
जिन्हें जनपक्षधर पत्रिका में शुमार किया गया है, उन्हीें में से एक की 2008 में प्रकाशन की घोषणा हुर्इ थी। मुझे फोन पर स्वर्गीय कृष्णन दूबे जी ने तय तिथि में रांची आने को कहा। इससे पहले में उन्हें नहीं जानता था। मैं जब रांची पहुंचा तो वहां कर्इ दिग्गज पत्रकारों से मुलाकात हुर्इ। दरअसल, पत्रकारों को पत्रिका के चयन के लिए बुलाया गया था। मुझे इसकी जानकारी नहीं थी। रजत जी ने नम्रता से मुझे भी लिखित एवं मौखिक टेस्ट में शामिल होने को कहा। दोनों टेस्ट में मुझे सर्वाधिक नंबर दिये गये। मुझे सीनियर कापी एडिटर के रूप में चुना गया। लेकिन ,इसके बाद जो हुआ, उसकी कल्पना मैने नहीं की थी। तरह-तरह की हास्यास्पद बातें बना कर मुझे नौकरी में नहीं रखा। बाद में मुझे पता चला कि इंटरव्यू के दौरान उन्हें लगा कि मैं एक एक्टीविस्ट हूं और शायद उनकी टीम में फिट नहीं हो पाउंगा। लेकिन मुख्यधारा के अखबार ने मुझे बुला कर नौकर पर रखा। इसे क्या कहेंगे? जनपक्षधर पत्रिका जब डरी हुर्इ है, तो मुख्यधारा की बात करना ही बेमानी है। एक बड़े टीवी न्यूज चैनल के डायरेक्टर एवं मेरे मित्र के भार्इ,जो स्वयं जनवादी होने का दावा करते थे, कभी मुझे अपने यहां काम का आफर नहीं किया। जब इसे कारोबार के नजरिये से देखा जा रहा है, तो विसंगतियों से ऐतराज क्यों। या तो आप विकल्प दीजिए या फिर उसमें शामिल हो कर इसमें शुचिता लाने का प्रयास किजिए। मानना होगा कि दावे और हकीकत के बीच रेखा तो खिंची है।
अविनाश दास says:July 2, 2013 at 5:10 pm
अभिषेक जी, मैं कुछ ठोस विकल्प सुझा रहा हूं, जिसे आप "कभी जनवाद, कभी पावर डिसकोर्स, कभी नकारवाद और कभी सहकारिता की बैसाखी से पैंतरा बदलना" कह रहे हैं। आप जिस सोशल-पॉलिटिकल लोकेशन से बात कर रहे हैं, वहां वैकल्पिक पत्रकारिता का सफर अस्थायी ही बना रहेगा। जो अलग हो जाएंगे, वे पत्रकारिता की एक और कम्युनिस्ट पार्टी खड़ी करेंगे। क्योंकि पुराने समूह में उनका कुछ भी स्टेक नहीं होगा।शहरी मध्यवर्ग की छाया में हालांकि आप मोड ऑफ प्रोडक्शन का शार्ट-कट ही अपनाएंगे, जिसमें जनता को जुटाने से ज्यादा मुख्य काम भाषण देना होगा। तो देते रहिए भाषण… पूंजीवादी मीडिया का वर्चस्व बना रहेगा। वहां आपको भी एकाध कॉलम की जगह मिलती रहेगी। मुझे लगता है कि पूंजीवादी मीडिया के भीतर जनवाद के लिए जगह तलाशने से बड़ी मूर्खता और कुछ नहीं हो सकती… और जिन जनपक्षधर पत्रिकाओं के नाम आपने गिनाये अभिषेक जी, उनकी प्रसार संख्या अपनी जद में कायदे से है। और ज्यादा प्रसार होगा, तो बंद हो जाएगा। कागज के दाम का हिसाब-किताब आपको पता ही होगा। वे डिमांड और सप्लाई का प्रबंधन उन तरीकों से नहीं कर सकते, जैसे कॉरपोरेट मीडिया करता है। पब्लिक एजेंडा जनपक्षधर पत्रिका नहीं है। वो एक खनन माफिया के पैसे से निकलने वाली पत्रिका है और मंगलेश डबराल और आप जैसे उनके चहेते इस गफलत में हैं कि वहां वे सच्ची जनरुचि का सामान परोस रहे हैं। और कोई इस पत्रकारिता की आड़ में अपना कॉलर कैसे चमका रहा है – इसको देखने के लिए दंडकारण्य से ही किसी कॉमरेड को बुलाना पड़ेगा।
अविनाश दास says:July 2, 2013 at 5:10 pm
अभिषेक जी, मैं कुछ ठोस विकल्प सुझा रहा हूं, जिसे आप "कभी जनवाद, कभी पावर डिसकोर्स, कभी नकारवाद और कभी सहकारिता की बैसाखी से पैंतरा बदलना" कह रहे हैं। आप जिस सोशल-पॉलिटिकल लोकेशन से बात कर रहे हैं, वहां वैकल्पिक पत्रकारिता का सफर अस्थायी ही बना रहेगा। जो अलग हो जाएंगे, वे पत्रकारिता की एक और कम्युनिस्ट पार्टी खड़ी करेंगे। क्योंकि पुराने समूह में उनका कुछ भी स्टेक नहीं होगा।शहरी मध्यवर्ग की छाया में हालांकि आप मोड ऑफ प्रोडक्शन का शार्ट-कट ही अपनाएंगे, जिसमें जनता को जुटाने से ज्यादा मुख्य काम भाषण देना होगा। तो देते रहिए भाषण… पूंजीवादी मीडिया का वर्चस्व बना रहेगा। वहां आपको भी एकाध कॉलम की जगह मिलती रहेगी। मुझे लगता है कि पूंजीवादी मीडिया के भीतर जनवाद के लिए जगह तलाशने से बड़ी मूर्खता और कुछ नहीं हो सकती।
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