Posts

Showing posts from April, 2008

आधे सफर की अधूरी कहानी

सुरेंद्रप्रताप सिंह की यादें (10वीं पुण्यतिथि) - दीपक चौरसिया दोपहर का वक्त था। जून की तपती दोपहरी में मैं छुट्टी पर अपने गृहनगर सेंधवा में, जो कि मध्यप्रदेश में महाराष्ट्र की बार्डर पर है, 'नईदुनिया' के पन्ने पलट रहा था। तभी एकाएक फोन की घंटी बजी। फोन मैंने उठाया। फोन एनडीटीवी से था। मेरी दोस्त माया मीरचंदानी लाइन पर थीं। उन्होंने मुझसे कहा 'एसपी' (प्यार से सब उन्हें यही कहा करते थे) बहुत बीमार हैं, अपोलो में भर्ती हैं। मुझे विश्वास नहीं हुआ। फोन पर दूसरी तरफ मुझे फिर आवाज सुनाई दी मेरी होने वाली पत्नी अनुसूइया थी। 'दीपक मैं तुम्हे बताना चाहती थी, लेकिन पता नहीं तुम कैसे रिएक्ट करोगे।' मैं कुछ नहीं बोल पाया, फोन रख दिया।पहली बस और इंदौर की ओर मैं रवाना हो गया, लेकिन 'एसपी बॉस' के साथ बिताया हर एक लम्हा याद आने लगा। 'इंदौर होलकर साइंस कॉलेज थ्रू आउट फर्स्ट क्लास फर्स्ट' अरे कोई अच्छी नौकरी करो, क्यों झोलाछाप हिन्दी पत्रकारिता में आना चाहते हो। इंदौर से पहली बार जब इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मॉस कम्युनिकेशन का इंटरव्यू देने गया तो बोर्ड में वही थे। मेर...

When Hindi became telegenic

YOGENDRA YADAV Wednesday, June 27, 2007 at 0000 hrs Hindi news TV would not have been where it is today, but for Surendra Pratap Singh or ‘SP’, who died ten years ago. But he would not have recognised what passes for Hindi TV news today Related Stories I think of ‘SP’ every time I face the question: “Are you the same man that appears on Aaj Tak?” I continue to face this question hundreds of times, years after my formal association with Aaj Tak is over. Not surprising, for Aaj Tak was for Hindi television news what Surf was for detergents or Xerox for photocopiers. I think of him whenever anyone’s Hindi credentials are mentioned with some respect in Delhi’s charmed circles. Not so long ago, it was not enough to know English; it was equally important not to know any other Indian language. Failing in Hindi was a mark of honour. Being at ease with a desi language defined you out of the monolingual English-speaking power elite. This power equation has altered a bit in the last decade or ...

बात एसपी-डीएम की, न्यूज़ चैनलों की

अनिल यहां एसपी का मतलब आजतक की शुरुआत करनेवाले सुरेद्र प्रताप सिंह से है और डीएम का मतलब आजतक से स्टार न्यूज़ होते हुए सीएनबीसी आवाज़ तक पहुंचे दिलीप मंडल से है जिनकी राय में, ‘ये कहना तथ्यों से परे है कि कभी पत्रकारिता का कोई स्वर्ण युग था या कि पहले कोई महान पत्रकारिता हुआ करती थी।’ वैसे, मंडल जी पर एसपी का प्रभाव इतना ज्यादा है कि उनकी वेशभूषा, चेहरे-मोहरे और हाव-भाव से एसपी की छाया-सी छलकती है। उनके लिखने से भी यह ज़ाहिर हो जाता है। तभी तो वे कहते हैं, ‘पुराने एसपी से नए जमाने के पत्रकार बहुत कुछ सीख सकते हैं। लेकिन एसपी जितने मॉडर्न थे, उस समय की पत्रकारिता उतनी मॉडर्न नहीं थी।’मंडल जी की यही बात मेरे गले नहीं उतरती। पेड़ बड़ा मॉडर्न था, जंगल उतना मॉडर्न नहीं था। जंगल से पेड़ अलग, पेड़ से जंगल अलग। हकीकत ये है कि आज हिंदी न्यूज़ चैनलों में जो भी अच्छाई या बुराई है, उसके बीज एसपी सिंह की कार्यशैली में ही छिपे हैं। वैसे भी, आज की हिंदी टेलिविजन पत्रकारिता में एसपी के ही तो चेले-चापड़ हर जगह विराजमान हैं।सच कहें तो एसपी आज एक कल्ट बन चुके हैं। समाचार चैनलों के संपादक उनके फोटो सजाते ...

ये प्रलाप क्यों ?

अशोक कुमार कौशिक ये एसपी का नहीं टीआरपी का ज़माना हैवरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह यानी एसपी सिंह की पुन्यतिथी पर दो वरिष्ठ पत्रकारों के लेख अलग-अलग अखबारों में पढे। दोनों ही मौजूदा टीवी पत्रकारिता के दिग्गज। दोनों ही एसपी स्कूल ऑफ़ जर्न्लिस्म के स्नातक। दोनों ही लेखों में एक समान चिन्ता नज़र आई, वो ये टीवी पत्रकारिता अपने मूल्यों, सरोकारों और अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हट रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो ये टीवी पत्रकारिता के लिए नैतिक गिरावट का दौर है। अगर आज एसपी होते तो ये होता, एसपी होते तो वो होता। और एसपी होते तो ये नहीं होता, एसपी होते तो वो नहीं होता। लब्बोलुआब ये कि एसपी मौजूदा टीवी पत्रकारिता से कतई सन्तुष्ट नहीं होते। लेकिन दोनों लेख पढ़ने के बाद मेरे ज़हन में कुछ सवालों ने सहज ही सिर उठा लिया। मसलन- क्या गारंटी है कि एसपी होते तो बिना ड्राइवर की कार टीवी स्क्रीन पर दौड़ नहीं रही होती?- बदला लेने पर आमदा कोई नागिन(जिसे इछाधारी कहा जाता है ) टीवी कीtop story नहीं बनती ?- स्कूल में विद्यार्थियों की जगह भूत ना पढ़ रहे होते?- आये दिन टीवी पर आत्मा और परमात्मा के खेल ना चल र...

एस पी जिंदा होते तो आजतक देखकर मर जाते

संजय तिवारी एस पी सिंह भारत में टेलीविजन पत्रकारिता के जनक थे. आधे घंटे के न्यूज बुलेटिन “आज तक” का उनका प्रयोग दस साल में सवा सौ करोड़ रूपये का खबर उद्योग हो गया है. उनकी पिछली पुण्यतिथि पर कई सारे चेलों ने अपने संस्मरण लिखे और कहा कि आज अगर एसपी होते तो क्या कहते? कुछ ने लिखा था कि समय के साथ बदलावों को सच्चाई मानकर सबकुछ स्वीकार कर लेते. कुछ ने कहा कि वे ऐसी लकीर खींच देते कि लोग इधर-उधर जाते ही नहीं. मैं कहता हूं, आज अगर एसपी जिंदा होते तो आजतक देखकर मर जाते.एस पी की अकाल मृत्यु को सही नहीं कहा जा सकता लेकिन क्या वे बर्दाश्त कर पाते कि उनके खून-पसीने से खड़ा हुआ एक समाचार माध्यम इतना पतित हो गया है कि खबरों के नाम पर नंगई और बेहूदगी परोस रहा है. और किसी चैनल की बात मत करिए. उनके अपने खड़े किये चैनल आजतक को ही देखिए. वह आधे घंटे का कार्यक्रम यह दिखाता है कि करीना कपूर के हाथ में एक अंगूठी है और सैफ अली खान उसे छोड़ने किसी पार्टी में जाते हैं. कैमरामैन पकड़ लेता है कि सैफ के हाथ पर करीना कपूर लिखा हुआ है. अब इस बात खबर बनाने के लिए वहां एक बेचारी टाईप रिपोर्टर खड़ी की जाती है. उससे ...
टीवी पत्रकारिता का रसातल टीवी पत्रकारिता देखिये, 'कहाँ' से 'कहाँ' पहुँच गयी है! स्वर्गीय एसपी सिंह ने जब 'आजतक' का आधे घंटे का न्यूज बुलेटिन शुरू किया था तह चन्द ही हफ्तों बाद देश के नेताओं का वही हाल हो गया था जो बीबीसी की सिगनेचर ट्यून सुनकर ब्रिटेन और अमेरिका के शीर्ष नेताओं का हुआ करता था. अंगरेजी समाचारों को अखंड सत्य मानने और जानने वाले धुरंधरों की धुकधुकी बढ़ जाती थी 'आजतक' की सिगनेचर ट्यून सुनने के बाद! और तो और मेरे साथ एक सांध्य दैनिक के दफ्तर में 'दिल का हाल कहे दिलवाला' गा-गाकर नाचनेवाला एक बन्दा जब एसपी 'आजतक' में चला गया था तो हम लोग उसे अमिताभ बच्चन की तरह देखने लगे थे.कट टू-आजतक चौबीस घंटे का हुआ. उसका कायापलट होना शुरू हो गया. समाचार की जगह गिमिक ने ले ली और उसमें वे सारी बुराइयां आती गयीं जो एक पैसे के पीछे भागने वाले चैनल की हो सकती हैं. एसपी जहाँ बिना बाईट के भी मर्मान्तक कैप्स्यूल तैयार कर लेते थे वहीं अब 'पान की पीक' और 'धूमिल' के शब्दों में कहें तो 'थीक है-थीक है' वाली बाइटें प्रचुर मात्रा में...