Monday, April 14, 2008

आधे सफर की अधूरी कहानी

सुरेंद्रप्रताप सिंह की यादें (10वीं पुण्यतिथि)
- दीपक चौरसिया
दोपहर का वक्त था। जून की तपती दोपहरी में मैं छुट्टी पर अपने गृहनगर सेंधवा में, जो कि मध्यप्रदेश में महाराष्ट्र की बार्डर पर है, 'नईदुनिया' के पन्ने पलट रहा था। तभी एकाएक फोन की घंटी बजी। फोन मैंने उठाया। फोन एनडीटीवी से था। मेरी दोस्त माया मीरचंदानी लाइन पर थीं। उन्होंने मुझसे कहा 'एसपी' (प्यार से सब उन्हें यही कहा करते थे) बहुत बीमार हैं, अपोलो में भर्ती हैं। मुझे विश्वास नहीं हुआ। फोन पर दूसरी तरफ मुझे फिर आवाज सुनाई दी मेरी होने वाली पत्नी अनुसूइया थी। 'दीपक मैं तुम्हे बताना चाहती थी, लेकिन पता नहीं तुम कैसे रिएक्ट करोगे।' मैं कुछ नहीं बोल पाया, फोन रख दिया।पहली बस और इंदौर की ओर मैं रवाना हो गया, लेकिन 'एसपी बॉस' के साथ बिताया हर एक लम्हा याद आने लगा। 'इंदौर होलकर साइंस कॉलेज थ्रू आउट फर्स्ट क्लास फर्स्ट' अरे कोई अच्छी नौकरी करो, क्यों झोलाछाप हिन्दी पत्रकारिता में आना चाहते हो। इंदौर से पहली बार जब इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मॉस कम्युनिकेशन का इंटरव्यू देने गया तो बोर्ड में वही थे। मेरा जवाब था 'मुझे लगता है मेरे जैसे लोगों के लिए आगे की पत्रकारिता में जगह होगी।' इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मॉस कम्युनिकेशन से निकलने के बाद पहली नौकरी दिल्ली की इंडियन न्यूज पेपर सोसाइटी की बि‍ल्डिंग में लगी। 'बॉस' उस वक्त टेलीग्राफ के राजनीतिक संपादक थे। हफ्ते में दो-तीन भेंट होती थी। पूरी रिपोर्ट लेते थे। बीजेपी ब्रीफिंग में क्या हुआ? कांग्रेस में क्या हुआ? 'नईदुनिया' से भी 'बॉस' का नाता लंबा था। बिला नागा वे क्षेत्रीय अखबार दो घंटे पढ़ते थे। नईदुनिया इकलौता अखबार था जिसे शायद ही मिस करते। एक बार का वाकया मुझे अच्छी तरह याद है।
जो एक बात वे गाँठ बाँधकर रखने को कहते थे कि कभी एकतरफा स्टोरी मत करो, दोनों पक्षों का होना बेहद जरूरी है। घंटों की मेहनत से लिखी स्क्रिप्ट को वे पाँच मिनट से कम में इतना छोटा और बेहतर कर देते कि कभी-कभी लगता कि उनकी कलम या फिर सरस्वती का वरदान।
हमारी एक सहयोगी सिक्ता देव के पिता मध्यप्रदेश केडर के आईपीएस अधिकारी थे। उस दिन सुबह उन्होंने सिक्ता को बताया कि तुम्हारे पिता की नई पोस्टिंग हो गई है। यही खबर मैं सिक्ता को दे चुका था। उन्होंने सिक्ता से पूछा तुम्हें पता था, तुम्हें किसने बताया। उसने मेरा नाम लिया। 'बॉस' मुस्कुराए। बाद में मुझे बुलाया और कहा कि अगर सरकार में क्या हो रहा है, इस पर नजर रखनी है तो पहली बात गाँठ बाँध लो नौकरशाही के मूवमेंट को बहुत बारीकी से वॉच करो। उन्हीं के मार्गदर्शन ने सिखाया कि इस देश में तीन लोगों की चलती है पीएम, सीएम और डीएम। वे सचमुच के 'बॉस' थे। कितनी भी बड़ी गलती कर दो, उन्हें बता दो एक सीख मिलती। लेकिन कभी मूड नहीं बिगड़ता। मैंने एक बार राष्ट्रपति भवन में खेल पुरस्कार लेने वालों की स्टोरी में एक ऐसे खिलाड़ी का नाम डाल दिया जो वहाँ मौजूद नहीं था। रात भर सो नहीं पाया। सुबह उठा। बिना नहाए धोए सबसे पहले जाकर उन्हें बताया। सीख मिली। बंदूक से निकली गोली और लाइव टीवी में मुँह से निकला शब्द कभी वापस नहीं आता। जाओ आज का काम करो। उन शब्दों में डाँट भी थी, नसीहत भी, प्यार भी और प्रोटेक्शन भी। यही उनकी महानता थी। जो एक बात वे गाँठ बाँधकर रखने को कहते थे कि कभी एकतरफा स्टोरी मत करो, दोनों पक्षों का होना बेहद जरूरी है। घंटों की मेहनत से लिखी स्क्रिप्ट को वे पाँच मिनट से कम में इतना छोटा और बेहतर कर देते कि कभी-कभी लगता कि उनकी कलम या फिर सरस्वती का वरदान। एक बार मैं समाज कल्याण मंत्रालय की कुछ योजनाओं पर एक क्रिटिकल विश्लेषण कर रहा था। सीताराम केसरीजी उस विभाग के मंत्री थे। 'बॉस' के बेहद नजदीकी जानने वाले। एक स्टेटमेंट के लिए दिनभर वे मुझे दौड़ाते रहे। शाम को थक-हारकर मैं 'बॉस' के पास पहुँचा। उन्होंने 'केसरीजी' से बात की, शायद वे स्टोरी नहीं चलाने देना चाहते थे। जब वे फोन पर बात कर रहे थे, तब उनके चेहरे पर आते-जाते भाव मुझे अब भी याद हैं।उन्होंने कहा- स्टोरी चलाओ यह कहो कि मंत्रीजी ने प्रतिक्रिया देने से मना कर दिया। जाते-जाते उन्होंने मुझसे कहा 'घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या?' शायद पत्रकार और नेता के रिश्तों के बावजूद पत्रकार की कलम पर ब्रेक न लगाना उनके आदर्शों की कहानी बयाँ करता है। सोचता हूँ आज एसपी होते तो क्या होता। हिन्दी टीवी पत्रकारिता का आयाम दूसरा होता। लेकिन आज भी जब वे ऊपर से देखते होंगे तो नकवी दादा, दिबांग पुगालिया, अलका सक्सेना, आशुतोष और अपनी पूरी टीम को टीवी पत्रकारिता पर राज करते देख फख्रमहसूस करते होंगे। (लेखक 'आज तक' के कार्यकारी संपादक हैं)

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