Wednesday, June 25, 2008

निजी टीवी चैनलों का भविष्‍य बेहतर है

यह लेख सुरेंद्र प्रताप सिंह ने अपने इंतकाल से थोड़े दिनों पहले लिखा था। अभी प्रथम प्रवक्‍ता की पीडीएफ कॉपी मोहल्ला को जुगनू शारदेय जी ने भेजी थी, जिसमें यह लेख था। इस लेख से अंदाज़ा होता है कि टीवी चैनल में अपनी उपस्थिति को लेकर एसपी कितने सचेत और सुनियोजित थे। एक ख़ास बात जो इस लेख में डिस्‍कस्‍ड है, वो ये कि 1995 के आसपास हिंदी न्‍यूज़ चैनल का कोई चरित्र नहीं बन पाया था। कमोबेश यही स्थिति आज भी है। 10-12 साल तक एक माध्‍यम चरित्र के मामले में अनगढ़ ही है, लेकिन धंधे में हो रही बरक्‍कत को अगर टीवी चैनलों की सफलता माना जाए, तो हम मान सकते हैं एसपी चैनलों का भविष्‍य देखने के मामले में दूरंदेशी थे।
निजी चैनलों का भारत में भविष्य कैसा है? पत्रकारिता की शैली में यदि आप मुझसे यह प्रश्‍न पूछें तो मैं कहूंगा कि भविष्य उज्ज्वल है। लेकिन इससे काम चलेगा नहीं। दूरदर्शन को एक तरह की चुनौती मिलनी शुरू हुई है और कई तरह के चैनल हमारे सामने आ रहे हैं। इन नये चैनलों में भारतीय, विदेशी, निजी और सरकारी चैनल शामिल हैं, लेकिन इन चैनलों की गहराई में यदि उतरें, तो ऐसा लगता है कि भविष्य जितना उज्ज्वल लगता है उतना है नहीं। चैनल आते हैं, थोड़े दिनों तक दिखाई देते हैं, ग़ायब हो जाते हैं। स्थायी भाव से दिखने वाले चैनलों में उत्तर भारत में जो हैं, मर्डोक के स्टार नेटवर्क के चैनल हैं। इनके अतिरिक्त दूसरे वे चैनल हैं जो जी और स्टार के चैनलों की नकल हैं। वे उसी की तरह का स्वांग करते हुए बाजार में आ रहे हैं। सोनी टीवी जी की नकल कर रहा है। एटीएन है, लेकिन वह पूरी तरह फिल्मों पर ही आधारित है। नया होम टीवी शुरू हुआ है। कुछ इलाकों में आ रहा है, कुछ में नहीं आ रहा। कुल मिला कर स्थिति जो बन रही है, सरसरी तौर पर देखा जाए तो निजी चैनल जितने आये हैं, उनमें सफलता का प्रतिशत ज्यादा नहीं है। फिर भी मैं यह जोखिम लेकर कहना चाहता हूं कि निजी चैनलों का भविष्य उज्ज्वल है।

मैं समझता हूं कि व्यावसायिक कोण के बिना किसी चैनल की सफलता या असफलता को आंकना आज के जमाने में नामुमकिन है। प्रिंट मीडिया जैसी स्थिति नहीं रही, जहां आप छोटी से छोटी पूंजी को लेकर एक विचारधारा के सहारे, अपनी पत्रिका निकाल लें। यह ऐसा माध्‍यम है, जिसमें करोड़ों की पूंजी लगती है। सिर्फ अच्छे कार्यक्रमों के आधार पर किसी चैनल की सफलता को नहीं आंका जा सकता, क्योंकि अगर ऐसा होता तो इस देश में `डिस्कवरी´ एक बहुत सफल चैनल हो गया होता।

जिस आधार पर मैं कह रहा हूं कि निजी चैनलों का भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता है, उसके लिए मेरे पास दो आंकड़े हैं। एक आंकड़ा है कि 1985 में विज्ञापनों पर कितना पैसा खर्च किया जाता था और दूसरा आंकड़ा 1994 का है कि विज्ञापनों पर अब कितना पैसा खर्च किया जा रहा है। वर्ष 1985 में विज्ञापनों पर 15 अरब रुपए खर्च किये गये। इनमें से 75 प्रतिशत प्रिंट मीडिया पर खर्च होता था। 12 प्रतिशत रेडियो पर, 3 प्रतिशत सिनेमा पर और शेष 6 प्रतिशत आउटडोर, यानी होर्डिंग आदि पर। लेकिन वर्ष 1994 में विज्ञापनों पर खर्च होने वाली कुल राशि 1.5 से बढ़कर 35 अरब हो गयी, यानी 10 साल में 400 प्रतिशत से भी ज्यादा की बढ़ोत्तरी हुई। लेकिन प्रिंट मीडिया का हिस्सा 75 से घट कर 62 पर आ गया। टेरिस्ट्रियल टीवी, यानी दूरदर्शन, तब भी 12 वें स्थान पर था और अब भी वहीं डटा हुआ है। कुल विज्ञापन राशि का 6 प्रतिशत हिस्सा सैटेलाइट टेलीविजन के पास गया है। रेडियो घट कर 6 प्रतिशत पर आ गया है। चिंता की बात है कि इस गरीब देश में, जहां पर रेडियो की पहुंच सबसे ज्यादा है, उस पर विज्ञापनों में कमी आयी है। रेडियो से भी ज्यादा दयनीय स्थिति सिनेमा की है। उसका पहले का 3 प्रतिशत हिस्सा घट कर लगभग शून्य पर आ गया है। इन आंकड़ों से मुझे निश्‍िचत रूप से यह लगता है कि इस देश में निजी चैनलों का भविष्य उज्ज्वल है।

पर निजी चैनल हैं क्या? निजी चैनल हमारे यहां दो-तीन तरह के हैं। एक वह सॉफ्टवेयर प्रोड्यूसर जो दूरदर्शन के चैनल पर काम कर रहे हैं। दूरदर्शन के नियम मानते हैं। उसके नियम मानते हुए अपने प्रोग्राम बनाते हैं, अपना विज्ञापन लाते हैं और उस विज्ञापन में शेयर बांटते हैं। दूसरे वे लोग हैं जो चैनल चला रहे हैं। भारतीय चैनल चलाने वाले भी हैं और विदेशी चैनल चलाने वाले भी। पर इनमें कौन कितना भारतीय है कौन कितना विदेशी है - यह साफ नहीं समझ आता। जी भारतीय है और स्टार विदेशी है। जी में लगभग 49.9 प्रतिशत मर्डोक है और 50.1 प्रतिशत जी। होम टेलीविजन शुरू हुआ है, जिसमें 20 प्रतिशत ही शायद हिंदुस्तान टाइम्स का है और बाकी 80 प्रतिशत में चार बड़ी-बड़ी कंपनियों की हिस्सेदारी है। इसे हम भारतीय मानें या न मानें, यह भी अपने आप में विवाद का विषय है।

हम अगर हिंदी मीडिया से बाहर निकल कर उत्तर से दक्षिण भारत पर नजर डालें, तो हमारा दिमाग साफ हो जाएगा कि किस पैमाने पर वहां निजी चैनल सफलतापूर्वक चल रहे हैं। वहां पर चार चैनल तो बड़े सफल साबित हो रहे हैं। इनमें सन, जेमिनी, राज और जेजे शामिल हैं। जी हिंदी का सबसे सफल चैनल है, लेकिन उस पर भी लोकप्रियता की दृष्टि से सबसे ज्यादा देखे जाने वाले कार्यक्रम क्लोज अप अंताक्षरी, फिलिप्स टॉप टेन और कैंपस हैं, जिनकी टीआरपी रेटिंग 10 के आस-पास रहती है। इससे ऊपर नहीं जा पाती। दूरदर्शन की रेटिंग बहुत ऊंची है।

जब महाभारत अपने पूरे उफान पर होता है, तो 60-62 पर चलता है। कृष्णा है। 50-52 से नीचे कहीं नहीं रहता। `आपकी अदालत´, जो एक तरह से टेलीविजन पत्रकारिता में एक प्रतिमान कायम कर रहा है, वह भी लोकप्रियता में दो प्रतिशत से ऊपर नहीं पहुंच पाता। दूसरी तरफ आप देखिए तमिल के जो चैनल हैं और वहां पर उनके जो समाचार आते हैं, उन्हें देखने वालों का प्रतिशत 40 से 70 तक पहुंच जाता है। यह सिर्फ तमिल में ही नहीं होता, तेलुगु में भी होता है और मलयालम में भी। जयललिता की पराजय में बहुत बड़ी भूमिका सन टीवी की रही। अंतिम दिनों में वहां पर रजनीकांत ने जो अपना बयान दिया, उसका असर यह हुआ है कि जयललिता की पार्टी तमिलनाडु में पूरी तरह से साफ हो गई। तो इतनी प्रभावशाली भूमिका में दक्षिण भारत के चैनल अभी काम कर रहे हैं। आर्थिक रूप से भी वे इतने सक्षम हो गये हैं कि दावे के साथ भारत सरकार के सामने कह रहे हैं कि आप हमें अपलिंकिंग की सुविधा दीजिए, हम सारा इंतजाम खुद करेंगे।

दक्षिण के चैनलों की तरह की स्थिति हिंदी के चैनलों की नहीं बन पा रही है। लेकिन स्थिति कोई बहुत ज्‍यादा बुरी भी नहीं है कि हम यह मान लें कि उनका भविष्य इस देश में उज्ज्वल नहीं है। यह स्थिति क्यों नहीं बन पा रही है, इसका मुख्य कारण है कि अभी तक हिंदी के चैनलों का कोई चरित्र नहीं बन पाया है। सिर्फ सिनेमा के क्लिप लेकर और एक लड़का और लड़की को ले लें और वह तरह-तरह से उछलता रहे, कभी सड़क पर कभी चिड़‍ियाघर में; इस तरह के 20 प्रोग्राम आप हम पर झोंक दें और उम्मीद करें कि वह सफल हो जाएंगे। नहीं होंगे। हर तरह के प्रोग्रामों की एक सीमा होती है और अभी जो स्थिति है कि हम लोग परीक्षण के दौर से गुज़र रहे हैं कि जो चीज सफल हो गयी तो उस पर भेड़चाल से टूट पड़ते हैं। यानी एक अंताक्षरी सफल है तो आप सौ अंताक्षरियों के लिए तैयार हो जाइए। या एक काउंटडाउन सफल हो गया है, तो सौ तरह से काउंटडाउन आपके पास आने वाले हैं। हमारा बौद्ध‍िक दिवालियापन इस हद तक है। अगर एक हनुमान चल रहे हैं, तो अब दूसरे भी आ गये हैं। और मैं दावे के साथ कह रहा हूं कि अब तीसरे हनुमान भी आने वाले हैं। यह सिर्फ निजी चैनलों की बात नहीं है। हमारा जो दूरदर्शन है, वहां पर भी कल्पनाशीलता का घोर अभाव है। आज उनकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि टीआरपी रेटिंग कैसी है। हमारे देश में अशिक्षितों की संख्या सबसे ज्यादा है। टीवी 44 प्रतिशत निरक्षर लोगों के घरों तक पहुंचता है। पश्‍िचम में सैटेलाइट या इलेक्टॉनिक मीडिया का जब हमला हुआ तो कमोबेश उस समाज में शिक्षा का एक स्तर पहुंच चुका था, जहां लोग कम से कम 90 प्रतिशत और कहीं-कहीं शत-प्रतिशत साक्षर थे। वहां पर जब इसका हमला हुआ, तो इसकी जो बुराइयां थीं वे उनको झेल गये। हमारा देश तो वैसे भी वाचिक परंपरा का देश रहा है। हम लिखने पर विश्‍वास कम करते हैं और बोलने में ज्यादा। हमारे ज्यादातर महाकाव्य बोल कर लिखे गये। ऐसे देश में, जो बीच का स्थान था उसे हम फलांग कर आगे निकल गये। अशिक्षित लोगों के पास अब हम इतने सशक्त माध्‍यम को लेकर जा रहे हैं जो दृश्‍य भी है और श्रव्य भी। किस हद तक यह माध्‍यम उनको प्रभावित कर सकता है, जरा इसके बारे में सोचें और इसके ख़तरे के बारे में विचार करें। इस माध्‍यम का अच्छा उपयोग करें, तो अच्छी बात होगी। लेकिन उपयोग यदि बुरा हुआ तो स्थिति बहुत गंभीर हो जाएगी।

मैं सरकार में नौकरशाही और राजनीतिज्ञों को अलग-अलग करके देखता हूं। इसमें नौकरशाही की भूमिका यह है कि इसने यह समझ लिया है कि इस देश के ज्यादातर लोग गैरजिम्मेदार हैं। हमारा दो प्रतिशत अंग्रेजी बोलने वाला- चेटरिंग क्लास है, उसको लोकतंत्र से ही चिढ़ होती जा रही है। लोग फूलन देवी को चुन कर भेज देते हैं। मुलायम सिंह जीत कर आ जाते हैं। देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बना देते हैं। इनकी राय है कि ये तो गैरजिम्मेदार लोग हैं। किसी को भी चुन लेते हैं, कोई भी आकर बैठ जाता है। यह जो देश है, यह जो ढांचा है, यह जो स्टीलफ्रेम हमको अंग्रेजों ने सौंपा था, इसको बनाये रखने की पूरी जिम्मेदारी हमारी है। नौकरशाही अपने बहुत सारे तर्क देती रहती है। सबसे बड़ा तर्क तो यह है कि देश की सुरक्षा पर ख़तरा है। सुरक्षा पर क्या खतरा है? दूरदर्शन और आकाशवाणी मुक्त हो जाएं, तो देश की सुरक्षा पर खतरा है। कश्‍मीर का मामला है, पंजाब का मामला है, आदि आदि। हम लोग यह जोखिम नहीं ले सकते। हमारी संस्कृति पर खतरा है। इसलिए हम निजी चैनलों को अपलिंकिंग की सुविधा नहीं देंगे।

हम लोग जो समाचार दे रहे हैं, वह सारा झूठ दे रहे हैं। इसकी हमको कोई चिंता नहीं है। हम जो मनोरंजन दे रहे हैं, वह तीसरे दर्जे से भी घटिया किस्म का है। कहीं कोई कल्पनाशीलता नहीं है। कहीं कोई सामाजिक सरोकार नहीं है। दरअसल, कुछ अखबार वाले आतंकित हैं कि विदेशी आकर हमारा एकाधिकार समाप्त कर देंगे। वे इस तरह का हौआ खड़ा कर रहे हैं। कुछ ऐसे राजनयिक और कुछ ऐसे नौकरशाह हैं, जो सत्ता में रह कर इस माध्‍यम का अपने हित में इस्तेमाल करना चाहते हैं। मैं समझता हूं कि यह तभी ठीक हो पाएगा जब निजी चैनल भारतीय प्रतिभा के द्वारा संचालित होंगे, जो भारतीय नियमों से चलेंगे और भारतीय जमीन से जिनका जुड़ाव बौद्धिक स्तर पर होगा, तभी इन परिस्थितियों में सुधार आएगा।

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