आनंद स्वरूप वर्मा
यह शादी नवभारत टाइम्स दिल्ली के स्थानीय संपादक सुरेंद्र प्रताप सिह की थी। वही एसपी सिंह, जिन्होंने 1977 मे फणीश्वर नाथ रेणु की कवर स्टोरी वाले रविवार के प्रवेशांक के साथ हिंदी पत्रकारिता मे एक नयी क्रांति का सूत्रपात किया था। यह और बात है कि जयप्रकाश नारायण की सपूर्ण क्रांति की तरह इसका हश्र भी कुछ बहुत सुखद नही रहा और इनके द्वारा रोपे गये पौधे के ढेर सारे फूल या तो असमय मुरझा गये या सत्ता के गलियारों मे रखे गुलदस्तो की शोभा बढ़ाने लगे।
यह आयोजन अपने आप में ही आज की पत्रकारिता (ख़ास तौर से हिंदी पत्रकारिता) और आज की राजनीति पर एक फूहड़ टिप्पणी थी। देवी लाल से लेकर एचकेएल भगत तक जिस बेताबी के साथ इस आयोजन में अपनी हाज़िरी दर्ज कराने के लिए बेचैन दिखाई दे रहे थे, उससे लगता था कि सचमुच हिंदी का पत्रकार अब फोर्थ स्टेट वाला हो गया है। राज बब्बर, शत्रुघ्न सिन्हा, कपिलदेव के अलावा तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिह, बिहार के मुख्यमंत्री भागवत झा आज़ाद, हरियाणा के मुख्यमंत्री देवीलाल, मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा, राजस्थान के मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर, कर्नाटक के मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े, गुजरात के मुख्यमंत्री अमर सिह चौधरी, केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह, जनमोर्चा नेता वीपी सिंह, आरिफ़ मोहम्मद ख़ान, सतपाल मल्लिक, लोकदल नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, शरद यादव, केसी त्यागी सहित हर पार्टी के नेता अपने-अपने उपहार के साथ मौजूद थे। उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ मंत्री ख़ास तौर से इसी काम के लिए आये थे। मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के साथ आये सैकड़ों आईएएस अधिकारियों की फौज अलग थी। शायद राजीव गांधी भी अपने कार्यक्रम में इतनी विविधता नहीं जुटा सकते। समारोह के समय ही प्रधानमंत्री की कैबिनेट की मीटिंग चल रही थी और बार-बार कुछ मंत्रियों का संदेश होटल तक पहुंच रहा था कि मजबूरीवश हाज़िर नहीं हो पा रहे हैं। रात में क़रीब साढ़े दस बजे मीटिंग ख़त्म होते ही एचकेएल भगत मौर्या शेरेटन की ओर रवाना हुए और रास्ते भर वायरलेस से संदेश भेजते रहे कि अब इतनी दूर तक पहुंच गये हैं। अपने ब्लैक कैट कमांडोज़ के साथ एचकेएल भगत ने समारोह का समापन किया।
9 मार्च को ही दिल्ली में लोकदल की एक बहुत बड़ी रैली थी। नयी दिल्ली का समूचा इलाक़ा हरी कमीज़ और हरी टोपी वाले हरियाणा के लोकदल कार्यकर्ताओं से भर गया था। इस रैली को संबोधित करते हुए हरियाणा के मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल ने यूपी के मुख्यमंत्री को खूब गालियां दी थीं। वह महेंद्र सिंह टिकैत आंदोलन के संदर्भ में बोल रहे थे और बता रहे थे कि ‘वीर बहादुर गदहा है। उसे शासन करना आता ही नहीं।’ कह रहे थे कि अगर उनके हाथ में उत्तर प्रदेश का शासन आ जाए, तो गन्ने की क़ीमत 35 रुपये क्विंटल कर दें। देवीलाल वीर बहादुर सिंह को जितनी ही गालियां देते, जनता उतनी ही ताली पीटती। वोटक्लब की सभा से सीधे देवीलाल जी मौर्या शेरेटन पहुंचे थे, जहां यूपी निवास से वीर बहादुर भी पहुंच चुके थे। वोट क्लब की जनता को क्या पता कि उनका नेता अभी जिसको जी भर गालियां दे रहा था, एक घंटे बाद ही उसके साथ मौर्या में चाय पी रहा है। समारोह में इन दोनों की ‘अश्लील उपस्थिति’ मौजूदा राजनीति पर एक व्यंग्य थी।
समारोह के आयोजक (जिन्होंने मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को बुलाने की ज़िम्मेदारी ली थी) अपनी सफलता पर मुग्ध थे। इनमें मुख्य रूप से दो ऐसे संपादक थे, जो काफी समय तक रिपोर्टर रह चुके थे। एक ने सत्ता पक्ष को संभाल लिया था, दूसरे ने विपक्ष को। वैसे, इस विशाल आयोजन से पहले कई मिनी आयोजन हो चुके थे और यह सिलसिला कई दिनों से चल रहा था। मौर्या की पार्टी से एक ही दिन पहले दोनों में से एक संपादक के घर पर भोर के चार बजे तक जश्न मनाया गया था। इसमें नारायण दत्त तिवारी, मुरली देवड़ा जैसे कांग्रेसियों के साथ लोकदल के शरद यादव और केसी त्यागी भी थे।
सुरेंद्र प्रताप सिंह के मित्रों ने एक बातचीत में कहा कि इसे किसी व्यक्ति विशेष की नहीं, बल्कि एक बड़े घराने से निकलने वाले राष्ट्रीय दैनिक के संपादक की शादी का आयोजन माना जाए। इन पंक्तियों के पाठकों से भी अनुरोध है कि वे इस टिप्पणी को किसी व्यक्ति विशेष के ख़िलाफ़ न मान कर आज की पत्रकारिता के संदर्भ में देखें। किसी पत्रकार की हैसियत इतना पैसा ख़र्च करने की नहीं है - हो सकता है कि यह सारा ख़र्च बेनेट कोलमैन कंपनी ने वहन किया हो या कंपनी के इशारे पर किसी उद्योगपति ने दे दिया हो। सवाल यह है कि क्या अज्ञेय या रघुवीर सहाय जैसे संपादकों के यहां कोई आयोजन होता तो वे मंत्रियों की इस उपस्थिति को पसंद करते? अव्वल तो वे इन्हें निमंत्रित ही नहीं करते और सौजन्यवश अगर कोई मंत्री या मंत्रीगण आ जाते तो वे ख़ुद के अंदर झांक कर देखते कि गड़बड़ी कहां है! मैं समझता हूं कि राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी या अरुण शौरी भी इसे पसंद नहीं करते। जिन मंत्रियों के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आपसे लगातार लिखते रहने की अपेक्षा की जाती है, उनसे अगर इतने मधुर संबंध दिखाई देते हैं, तो यह चिंता की बात है।
दूसरी तरफ राजनेताओं ने भी अब जान लिया है कि अख़बार के दफ़्तरों में कुछ प्रमुख लोगों को ‘पटाकर’ रखो और निश्चिंत होकर भ्रष्टाचार करते रहो। पिछले वर्ष मई में मेरठ से पकड़कर लाये गये मुसलमानों को जब पीएसी ने मार कर नहर में फ़ेंक दिया और ‘चौथी दुनिया’ ने ‘लाइन में खड़ा किया, गोली मारी और लाश बहा दी’ शीर्षक से समाचार प्रकाशित किया तो इसे दिल्ली के किसी राष्ट्रीय हिंदी दैनिक ने ‘लिफ्ट’ नहीं दिया। ज़रूरी नहीं कि ऐसा करने के लिए वीर बहादुर सिंह ने पत्रकारों को फोन किया हो - आपके संबंध इतने मधुर हैं कि आपका अवचेतन इन ख़बरों के प्रति उदासीन हो जाता है।
इस समारोह के बाद दिल्ली में हिंदी के दो और पत्रकारों के यहां शादी से संबंधित आयोजन हुए और उन्होंने भी उसी परंपरा का निर्वाह किया। अब मंत्रियों को जुटाना हिंदी पत्रकारों के लिए एक स्टेटस सिंबल हो गया है। हिंदी का पत्रकार वर्षों से अंग्रेज़ी पत्रकारों की उद्दंड उपेक्षा का शिकार होता रहा है और इससे उसके अंदर जो हीन ग्रंथि विकसित हुई, उसकी भरपाई अब वह शायद इन्हीं तरीक़ों से करना चाहता है।
मार्च में ही जम्मू कश्मीर के एक युवा मंत्री की शादी हुई, जिसमें उसने अपने किसी सहयोगी को नहीं आमंत्रित किया। अपने सहयोगियों की शिकायत पर उसने जवाब दिया कि यह उसक व्यक्तिगत और पारिवारिक मामला था, इसलिए उसने बंद रिश्तेदारों को बुला कर बड़ी सादगी के साथ विवाह किया। क्या हम इससे कुछ सबक ले सकेंगे?
9 मार्च, 1988 को राजधानी दिल्ली के पत्रकारों एवं अतिविशिष्ट जनों ने एक संपादक की शादी की अवसर पर आयोजित जिस भोज में हिस्सा लिया, वह अविस्मरणीय है। किसी पत्रकार के लिए ऐसा शाही इंतज़ाम अब तक के इतिहास में कभी नहीं हुआ था। दिल्ली के पांचसितारा होटल मौर्या शेरटन के सबसे महंगे हिस्से नांदिया गार्डेन में इस पार्टी का आयोजन था। इस भव्य समारोह में सत्ता और विपक्ष के राजनेता, चोटी के अभिनेता, खिलाड़ी, उद्योगपति और अनेक राज्यों के मुख्यमंत्रियों सहित हिंदी के अनेक कवि, लेखक और पत्रकार थे। वे पत्रकार भी बड़े उत्साह के साथ व्यवस्था संभालने में लगे थे, जिन्होंने कुछ ही दिनों पहले माधवराव सिंधिया की शादी पर की गयी फिज़ूलख़र्ची के ख़िलाफ लिखने और छापने मे कोई कसर न छोड़ी थी। नांदिया गार्डेन के अलावा होटल के चार कमरो मे उन लोगो के लिए उत्तम व्यवस्था की गयी थी, जिंनकी मदिरा पान मे रुचि थी। कुल मिलाकर दो से हज़ार लोगो ने खांनपान मे हिस्सा लिया और वर-वधू को आशीर्वाद दिया। इस सारे आयोजन पर लगभग ढाई लाख रुपये व्यय हुए। अगर यह गोविंद निहलानी या श्याम बेनेगल की किसी फिल्म का दृश्य होता तो कोई भी दर्शक इसे अतिरंजनापूर्ण चित्रण मानता। हो सकता है, इन पंक्तियो को पढ़ते समय उन लोगो को भी यह विवरण कुछ अतिशयोक्ति लगे, जो वहां मौजूद नहीं थे।एसपी पर कई संदर्भों में चर्चा चल रही है। एक लाइन यह है कि एसपी ने हिंदी पत्रकारिता की कुछ जकड़नों को तोड़ा और नये मानक गढ़े। एक लाइन यह है कि एसपी भाषाई पत्रकारिता के उस महीन बिंदु पर थे, जहां उनकी काबिलियत और कुछ संयोगों ने उन्हें शिखर पर पहुंचाया - लेकिन ये शिखर आदर्श का शिखर नहीं था। एसपी की मौत पर कथाकार उदय प्रकाश ने एक बहुत ही मार्मिक ज़िक्र हमें सौंपा है, जिसे हम जल्द ही आपसे साझा करेंगे। अभी आनंद स्वरूप वर्मा की एक रपट हम प्रकाशित कर रहे हैं, जो उन्होंने आज से बीस साल पहले एसपी की शादी पर लिखी थी। इसे उपलब्ध कराया है हमारे दोस्त विश्वदीपक ने, जिनका गिरिराज किशोर से लिया गया एक इंटरव्यू आपको याद होगा। खैर, आनंद स्वरूप वर्मा की यह रपट नयी पत्रकारिता की नैतिकता के पीछे छुपी ढोंग जैसी किसी चीज़ को खोजने में मददगार हो सकती है।
यह शादी नवभारत टाइम्स दिल्ली के स्थानीय संपादक सुरेंद्र प्रताप सिह की थी। वही एसपी सिंह, जिन्होंने 1977 मे फणीश्वर नाथ रेणु की कवर स्टोरी वाले रविवार के प्रवेशांक के साथ हिंदी पत्रकारिता मे एक नयी क्रांति का सूत्रपात किया था। यह और बात है कि जयप्रकाश नारायण की सपूर्ण क्रांति की तरह इसका हश्र भी कुछ बहुत सुखद नही रहा और इनके द्वारा रोपे गये पौधे के ढेर सारे फूल या तो असमय मुरझा गये या सत्ता के गलियारों मे रखे गुलदस्तो की शोभा बढ़ाने लगे।
यह आयोजन अपने आप में ही आज की पत्रकारिता (ख़ास तौर से हिंदी पत्रकारिता) और आज की राजनीति पर एक फूहड़ टिप्पणी थी। देवी लाल से लेकर एचकेएल भगत तक जिस बेताबी के साथ इस आयोजन में अपनी हाज़िरी दर्ज कराने के लिए बेचैन दिखाई दे रहे थे, उससे लगता था कि सचमुच हिंदी का पत्रकार अब फोर्थ स्टेट वाला हो गया है। राज बब्बर, शत्रुघ्न सिन्हा, कपिलदेव के अलावा तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिह, बिहार के मुख्यमंत्री भागवत झा आज़ाद, हरियाणा के मुख्यमंत्री देवीलाल, मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा, राजस्थान के मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर, कर्नाटक के मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े, गुजरात के मुख्यमंत्री अमर सिह चौधरी, केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह, जनमोर्चा नेता वीपी सिंह, आरिफ़ मोहम्मद ख़ान, सतपाल मल्लिक, लोकदल नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, शरद यादव, केसी त्यागी सहित हर पार्टी के नेता अपने-अपने उपहार के साथ मौजूद थे। उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ मंत्री ख़ास तौर से इसी काम के लिए आये थे। मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के साथ आये सैकड़ों आईएएस अधिकारियों की फौज अलग थी। शायद राजीव गांधी भी अपने कार्यक्रम में इतनी विविधता नहीं जुटा सकते। समारोह के समय ही प्रधानमंत्री की कैबिनेट की मीटिंग चल रही थी और बार-बार कुछ मंत्रियों का संदेश होटल तक पहुंच रहा था कि मजबूरीवश हाज़िर नहीं हो पा रहे हैं। रात में क़रीब साढ़े दस बजे मीटिंग ख़त्म होते ही एचकेएल भगत मौर्या शेरेटन की ओर रवाना हुए और रास्ते भर वायरलेस से संदेश भेजते रहे कि अब इतनी दूर तक पहुंच गये हैं। अपने ब्लैक कैट कमांडोज़ के साथ एचकेएल भगत ने समारोह का समापन किया।
9 मार्च को ही दिल्ली में लोकदल की एक बहुत बड़ी रैली थी। नयी दिल्ली का समूचा इलाक़ा हरी कमीज़ और हरी टोपी वाले हरियाणा के लोकदल कार्यकर्ताओं से भर गया था। इस रैली को संबोधित करते हुए हरियाणा के मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल ने यूपी के मुख्यमंत्री को खूब गालियां दी थीं। वह महेंद्र सिंह टिकैत आंदोलन के संदर्भ में बोल रहे थे और बता रहे थे कि ‘वीर बहादुर गदहा है। उसे शासन करना आता ही नहीं।’ कह रहे थे कि अगर उनके हाथ में उत्तर प्रदेश का शासन आ जाए, तो गन्ने की क़ीमत 35 रुपये क्विंटल कर दें। देवीलाल वीर बहादुर सिंह को जितनी ही गालियां देते, जनता उतनी ही ताली पीटती। वोटक्लब की सभा से सीधे देवीलाल जी मौर्या शेरेटन पहुंचे थे, जहां यूपी निवास से वीर बहादुर भी पहुंच चुके थे। वोट क्लब की जनता को क्या पता कि उनका नेता अभी जिसको जी भर गालियां दे रहा था, एक घंटे बाद ही उसके साथ मौर्या में चाय पी रहा है। समारोह में इन दोनों की ‘अश्लील उपस्थिति’ मौजूदा राजनीति पर एक व्यंग्य थी।
समारोह के आयोजक (जिन्होंने मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को बुलाने की ज़िम्मेदारी ली थी) अपनी सफलता पर मुग्ध थे। इनमें मुख्य रूप से दो ऐसे संपादक थे, जो काफी समय तक रिपोर्टर रह चुके थे। एक ने सत्ता पक्ष को संभाल लिया था, दूसरे ने विपक्ष को। वैसे, इस विशाल आयोजन से पहले कई मिनी आयोजन हो चुके थे और यह सिलसिला कई दिनों से चल रहा था। मौर्या की पार्टी से एक ही दिन पहले दोनों में से एक संपादक के घर पर भोर के चार बजे तक जश्न मनाया गया था। इसमें नारायण दत्त तिवारी, मुरली देवड़ा जैसे कांग्रेसियों के साथ लोकदल के शरद यादव और केसी त्यागी भी थे।
सुरेंद्र प्रताप सिंह के मित्रों ने एक बातचीत में कहा कि इसे किसी व्यक्ति विशेष की नहीं, बल्कि एक बड़े घराने से निकलने वाले राष्ट्रीय दैनिक के संपादक की शादी का आयोजन माना जाए। इन पंक्तियों के पाठकों से भी अनुरोध है कि वे इस टिप्पणी को किसी व्यक्ति विशेष के ख़िलाफ़ न मान कर आज की पत्रकारिता के संदर्भ में देखें। किसी पत्रकार की हैसियत इतना पैसा ख़र्च करने की नहीं है - हो सकता है कि यह सारा ख़र्च बेनेट कोलमैन कंपनी ने वहन किया हो या कंपनी के इशारे पर किसी उद्योगपति ने दे दिया हो। सवाल यह है कि क्या अज्ञेय या रघुवीर सहाय जैसे संपादकों के यहां कोई आयोजन होता तो वे मंत्रियों की इस उपस्थिति को पसंद करते? अव्वल तो वे इन्हें निमंत्रित ही नहीं करते और सौजन्यवश अगर कोई मंत्री या मंत्रीगण आ जाते तो वे ख़ुद के अंदर झांक कर देखते कि गड़बड़ी कहां है! मैं समझता हूं कि राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी या अरुण शौरी भी इसे पसंद नहीं करते। जिन मंत्रियों के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आपसे लगातार लिखते रहने की अपेक्षा की जाती है, उनसे अगर इतने मधुर संबंध दिखाई देते हैं, तो यह चिंता की बात है।
दूसरी तरफ राजनेताओं ने भी अब जान लिया है कि अख़बार के दफ़्तरों में कुछ प्रमुख लोगों को ‘पटाकर’ रखो और निश्चिंत होकर भ्रष्टाचार करते रहो। पिछले वर्ष मई में मेरठ से पकड़कर लाये गये मुसलमानों को जब पीएसी ने मार कर नहर में फ़ेंक दिया और ‘चौथी दुनिया’ ने ‘लाइन में खड़ा किया, गोली मारी और लाश बहा दी’ शीर्षक से समाचार प्रकाशित किया तो इसे दिल्ली के किसी राष्ट्रीय हिंदी दैनिक ने ‘लिफ्ट’ नहीं दिया। ज़रूरी नहीं कि ऐसा करने के लिए वीर बहादुर सिंह ने पत्रकारों को फोन किया हो - आपके संबंध इतने मधुर हैं कि आपका अवचेतन इन ख़बरों के प्रति उदासीन हो जाता है।
इस समारोह के बाद दिल्ली में हिंदी के दो और पत्रकारों के यहां शादी से संबंधित आयोजन हुए और उन्होंने भी उसी परंपरा का निर्वाह किया। अब मंत्रियों को जुटाना हिंदी पत्रकारों के लिए एक स्टेटस सिंबल हो गया है। हिंदी का पत्रकार वर्षों से अंग्रेज़ी पत्रकारों की उद्दंड उपेक्षा का शिकार होता रहा है और इससे उसके अंदर जो हीन ग्रंथि विकसित हुई, उसकी भरपाई अब वह शायद इन्हीं तरीक़ों से करना चाहता है।
मार्च में ही जम्मू कश्मीर के एक युवा मंत्री की शादी हुई, जिसमें उसने अपने किसी सहयोगी को नहीं आमंत्रित किया। अपने सहयोगियों की शिकायत पर उसने जवाब दिया कि यह उसक व्यक्तिगत और पारिवारिक मामला था, इसलिए उसने बंद रिश्तेदारों को बुला कर बड़ी सादगी के साथ विवाह किया। क्या हम इससे कुछ सबक ले सकेंगे?
समकालीन तीसरी दुनिया, नई दिल्ली, सितंबर-अक्टूबर, 1988 में छपी रपट
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