एक दलित पत्रकार की तलाश है...
..जो किसी मीडिया संस्थान में महत्वपूर्ण पद पर हो। आप पूछेंगे ये एक्सरसाइज क्यों? बारह साल पहले वरिष्ठ पत्रकार बी एन उनियाल ने यही जानने की कोशिश की थी। 16 नवंबर 1996 को पायोनियर में उनका चर्चित लेख इन सर्च ऑफ अ दलित जर्नलिस्ट छपा था। उस समय उन्होंने प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो के एक्रिडेटेड जर्नलस्ट की पूरी लिस्ट खंगाल ली थी। प्रेस क्लब के सदस्यों की सूची भी देख ली। लेकिन वो अपने मित्र विदेशी पत्रकार को मुख्यधारा के किसी दलित पत्रकार से मिलवा नहीं पाए। उनियाल साहब के काम को पाथब्रेकिंग माना जाता है और इसकी पूरी दुनिया में चर्चा हुई थी। 1996 के बाद से अब लंबा समय बीत चुका है। क्या हालात बदले हैं? यकीन है आपको? जूनियर लेवल पर कुछ दलितों की एंट्री का तो मै कारण भी रहा हूं और साक्षी भी। लेकिन क्या भारतीय पत्रकारिता में समाज की विविधता दिखने लगी है? अभी भी ऐसा क्यों हैं कि जब मैं पत्रकारिता के किसी सवर्ण छात्र को नौकरी के लिए रिकमेंड करके कहीं भेजता हूं तो उसे कामयाबी मिलने के चांस ज्यादा होते हैं। दलित और पिछड़े छात्रों को बेहतर प्रतिभा के बावजूद नौकरी ढूंढने में अक्सर निराशा क्यों हाथ लगती...