Wednesday, June 25, 2008

हिंदी चैनलों का कोई चरित्र नहीं बन पाया है- एसपी के भाषण का दूसरा अंश



चिंता की बात ये है कि इलेक्ट्रानिक माध्यम व्यावसायिक सामने आया है। व्यानसायिकता ही इसकी प्राथमिकता रहेगी। मैं व्यावसायिकता के ख़िलाफ़ नहीं हूं। क्योंकि इसके ख़िलाफ़ रहते हुए हम उम्मीद करें कि सारा काम सरकार करती रहे तो ये संभव नहीं है। इसके बीच ऐसा कोई सामंज्सय बिठाया जाए ताकि व्यावसायिकता भी बनी रहे और अपसंस्कृति के ख़तरे से भी देश को दूर रखा जा सके। एक तरीक़ा ये है कि इस माध्यम को नियंत्रण से दूर रखा जाए। मुक्त करके ऐसी कोई व्यवस्था बने कि निजी या सरकारी चैनलों की , जो सामाजिक रूप से ज़िम्मेदार भी हों, जो इस चीज़ को समझें कि हमें मनोरंजन की जितनी आवश्यकता है, उतनी ही सूचना और शिक्षा की भी है।
मैं किसी एक राजनीतिक पार्टी का नाम नहीं लेना चाहता। कल कांग्रेस सत्ता में ती। तेरह दिनों के लिए बीजेपी भी सत्ता में थी। आज संयुक्त मोर्चा है। मुझे काम में कोई अंतर दिखाई नहीं देता। आज थोड़ी परेशानी और बढ़ गई है। क्योंकि उस समय एक सरकार थी। एक प्रदानमंत्री था। हमारे सामने साफ दिशा निर्देश थे कि देश में आप विभेद नहीं फैलाएंगे। दो संप्रदायों को लड़ाएंगे नहीं, आदि आदि। ये सब लिखे हुए हैं, आप पढ़ लीजिए। अलिखित ये होता है कि आप प्रधानमंत्री से अनावश्यक रूप से छेड़छाड़ नहीं करेंगे। कश्मीर के बारे में हम जैसा कहेंगे , वैसा करेंगे। आज 13 प्रधानमंत्री हैं और 26 विचारधाराएं। इन सबके अलग-अलग दिशा निर्देश हैं। इसमें कहीं कोई परिवर्तन नहीं आया है। ये एक ऐसा माध्यम है, अगर इस पर एक बार आप अपना चेहरा देख लें तो अपने चेहरे को बार-बार देखने की आदत पड़ जाएगी।
नौकरशाही की भूमिका ये है कि इसने ये समझ लिया है कि इस देश के ज़्यादातर लोग ग़ैरज़िम्मेदार हैं। हमारा दो प्रतिशत अंग्रेज़ी में बोलनेवाला जो चैटरिंग क्लास है, उसे लोकतंत्र से ही चिढ़ होती जा रही है। लोग फूलन देवी को चुनकर भेज देते हैं। मुलायम सिंह यादव चुनाव जीतकर आ जाते हैं। देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री बना देते हैं। इनकी राय ये है कि ये ग़ैरज़िम्मेदार लोग हैं, जो किसी को भी चुनकर भेज देते हैं। कोई भी आकर बैठ जाता है। ये जो देश है, ये जो ढ़ांचा है, ये जो स्टील फ्रेम अंग्रेज़ो ने हमें सौंपा था, इसको बनाए रखने की पूरी ज़िम्मेदारी हमारी है। नौकरशाही अपने बहुत सारे तर्क देती है। सबसे बड़ा तर्क ये है कि आकाशवाणी और दूरदर्शन मुक्त हो जाएं, तो देश की सुरक्षा को ख़तरा है। कश्मीर का मामला है, पंजाब का मामला है, हम लोग ज़ोख़िम नहीं ले सकते। हमारी संस्कृति पर ख़तरा है। लेकिन हम लोग जो समाचार दे रहे हैं, वो सारा झूठ दे रहे हैं। इसकी हमें कोई चिंता नहीं। हम जो मनोरंजन दे रहे हैं, वो तीसरे दर्ज़े से भी घटिया है। कहीं कोई सामाजिक सरोकार नहीं है।
दरअसल कुछ अख़बारवाले आतंकित हैं कि विदेशी आकर हमारा एकाधिकार समाप्त कर देंगे। वो इस तरह का हौव्वा खड़ा कर रहे हैं। कुछ ऐसे राजनीतिज्ञ और कुछ ऐसे नौकरशाह हैं. जो सत्ता में रहकर इस माध्यम का अपने हित में इस्तेमाल करना चाहते हैं। ये तभी ठोक हो पाएगा, जब निजी चैनल अपने पैरों पर खड़ा होना शुरू कर देंगे। ऐसे निजी चैनल जो भारतीय प्रतिभा के द्वारा संचालित होंगे, जो भारतीय नियमों से चलेंगे और भारतीय ज़मीन से जिनका जुड़ाव बोद्धिक स्तर पर होगा। तभी इन परिस्थितियों में सुधार आएगा।
सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी एस.पी.सिंह ने अपनी मौत से दस महीने पहले दिल्ली में ब्रिटिश उच्चायोग के हिंदी अनुभाग के एक संगोष्ठी में भारत में निजी चैनलों के भविष्य विषय पर अपने ये विचार दिए थे। सितंबर 1996 में उनका ये विचार आज भी प्रासंगिक है।

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