Wednesday, June 25, 2008

एक दलित पत्रकार की तलाश है...

..जो किसी मीडिया संस्थान में महत्वपूर्ण पद पर हो। आप पूछेंगे ये एक्सरसाइज क्यों? बारह साल पहले वरिष्ठ पत्रकार बी एन उनियाल ने यही जानने की कोशिश की थी। 16 नवंबर 1996 को पायोनियर में उनका चर्चित लेख इन सर्च ऑफ अ दलित जर्नलिस्ट छपा था। उस समय उन्होंने प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो के एक्रिडेटेड जर्नलस्ट की पूरी लिस्ट खंगाल ली थी। प्रेस क्लब के सदस्यों की सूची भी देख ली। लेकिन वो अपने मित्र विदेशी पत्रकार को मुख्यधारा के किसी दलित पत्रकार से मिलवा नहीं पाए। उनियाल साहब के काम को पाथब्रेकिंग माना जाता है और इसकी पूरी दुनिया में चर्चा हुई थी।

1996 के बाद से अब लंबा समय बीत चुका है। क्या हालात बदले हैं? यकीन है आपको? जूनियर लेवल पर कुछ दलितों की एंट्री का तो मै कारण भी रहा हूं और साक्षी भी। लेकिन क्या भारतीय पत्रकारिता में समाज की विविधता दिखने लगी है? अभी भी ऐसा क्यों हैं कि जब मैं पत्रकारिता के किसी सवर्ण छात्र को नौकरी के लिए रिकमेंड करके कहीं भेजता हूं तो उसे कामयाबी मिलने के चांस ज्यादा होते हैं। दलित और पिछड़े छात्रों को बेहतर प्रतिभा के बावजूद नौकरी ढूंढने में अक्सर निराशा क्यों हाथ लगती है? क्या जातिवाद की बीमारी मीडिया के बोनमैरो में घुसी हुई है। क्या हम इसके लिए शर्मिंदा है? क्या हम इस पाप का प्रायश्चित्त करने के लिए तैयार हैं?

( आज ये लिखते हुए मुझे एस पी सिंह याद आ रहे हैं, पत्रकारिता में सामाजिक विविधता लाने के लिए वो हमेशा सचेत रहे। मेरा और मेरी तरह के कुछ दर्जन लोगों का पत्रकारिता में आना उनकी ही वजह से हो पाया। मुझे याद है कि मंडल कमीशन विरोधी आंदोलन के समय उन्होंने आरक्षण के पक्ष में स्टैंड लिया था और टाइम्स हाउस में इस बात के पोस्टर लगे थे कि एसपी सिंह चमार हैं। विरोधों से टकराने की वजह से ही एसपी सिंह एसपी बन पाए। टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के हर बैच में किसी न किसी मुसलमान और अवर्ण छात्र का होना कोई सामान्य बात नहीं है। एसपी सिंह और राजेंद्र माथुर को इसके लिए कितना विरोध झेलना पड़ा होगा, इसकी कल्पना मैं नहीं कर सकता। लेकिन जो धारा के साथ बहे उन्हें कौन याद रखता है? देखिए मरे हुए एसपी का नाम जिंदा लोगों से ज्यादा चर्चा में रहता है)

नस्लवाद की आदिभूमि अमेरिका के फॉक्स और सीएनएन में आपको ब्लैक, हिस्पैनिक और जैना विरजी, अंजली राव और मोनिता राजपाल जैसे भारतीय दिख जाएंगे। ये चेहरे वहां इसलिए नहीं है कि वो अनिवार्य रूप से सबसे टैलेंटेड हैं। दरअसल नस्लभेदी अतीत को लेकर अब वहां पश्चाताप है। इसलिए अब सचेत ढंग से ये कोशिश हो रही है कि अमेरिकी समाज के अलग अलग तरह के चेहरे सभी क्षेत्रों में दिखें। वहां के बड़े कॉरपोरेट गर्व के साथ कहते हैं कि उसके स्टाफ में ब्लैक की संख्या उनकी आबादी से ज्यादा है। अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए एक मिली जुली नस्ल का शख्स आगे बढ़ रहा है और उसे श्वेतों का भी समर्थन है। भारत कब बदलेगा? और क्या आपका भी इसमें कोई योगदान होगा?

1 comment:

rao said...

Really interesting qutation and answer also. Thanks To SP SINGH who did great job in journalism and without any prejdice He anaylsis the story of journalism. It is true media is bias and give no chance to the downtrodden people to come forward and show their capability in the field of journalism. So, they choose the different path and publish weekly, forthnightly magagzine and small newspaper. The day will come when these Dalit peoples will write on the wall ' Need one Brahmin journalist' If the so called high caste journlist will keep present trend as it is.