वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह ने कहा था- क्षमा बड़न को चाहिए...
निर्मलेंदु
वरिष्ठ पत्रकार
वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह ने कहा था- क्षमा बड़न को चाहिए। संयम ही एसपी का बहुत बड़ा गुण था। दरअसल, उनको इस बात का अहसास था कि बदला लेने की भावना से या किसी को कटु शब्द कहकर अंतत: कुछ ΄प्राप्त नहीं होता, इसलिए वे हमेशा मुझे यही समझाते रहते थे कि मुख से हमे कभी भी ऐसा शब्द नहीं निकालना चाहिए, जिससे दूसरों का दिल दुखे। शायद यही कारण था कि बड़ी-बड़ी गलतियों को भी वे हंसते हुए नजरंदाज कर दिया करते थे- जी हां, माफ कर देना उनके स्वभाव का अभिन्न अंग था।
शायद उसी में उन्हें आत्मसंतोष होता था, लेकिन डांट नहीं मिलने के कारण कुछ ऐसे लोग भी हुआ करते थे रविवार में, जो बहुत ज्यादा दुखी हो जाया करते थे। इस बात को लेकर परेशान हो जाते थे कि एसपी ने इतनी बड़ी गलती पर कुछ कहा क्यों नहीं? ऐसा क्यों करते थे एसपी? एक बार मैंने ΄पूछा भैया आप गलतियों को माफ क्यों कर देते हैं, तो उन्होंने मुझसे कहा, निर्मल, कोई जान-बूझ कर गलती नहीं करता। गलlतियां हो जाती हैं, कभी नासमझी की वजह से, तो कभी असर्तकता के कारण। कोई भी जान-बूझ कर डांट खाना नहीं चाहेगा और यदि ऐसा आदमी कोई है, तो मैं समझता हूं कि वह पागल होगा। मैंने कई बार बड़ी गलतियां रविवार में रहते हुए की हैं, लेकिन उन्होंने मुझे कभी नहीं डांटा। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो क्रोध और कठोर वाणी को नियंत्रण में नहीं रखना जानते, जो सदा दूसरों की भूलों को तलाशने में लगे रहते है, बहाने तलाशते हैं क्रोध निकालने का, ताकि दूसरों को समझ में आ जाए कि वे बड़े हैं और सच तो यही है कि जब ऐसे लोगों को बहाने नहीं मिलते, तो वे अपने अपने तरीके से बहाने बना भी लेते हैं, लेकिन एसपी ने ऐसा कभी नहीं किया।
दरअसल, जिस पद-अधिकार, धन-ऐश्वर्य, मान-बड़ाई और यश-कीर्ति के लिए हम पागल हो रहे होते हैं, सच तो यही है कि इनमे से कोई भी हमें ‘तृप्ति’ नहीं दे सकता। जो तृप्ति दे सकता है, वह है लोगों को क्षमा कर देना और बदले में ΄यार बटोरना'। जी हां, एसपी यही करते थे। वे क्षमा करके ΄यार' और 'इज्जत' कमाते थे, जिसकी कद्र इंसान के मरने के बाद भी होती है। एसपी को शायद इस बात का अहसास था कि मान-सम्मान और ΄यार-मुहब्बत' से बड़ी कमाई और कुछ है ही नहीं। यही वह जीवन भर कमाते रहे। ऐसे तो अनगिनत ऐसी-ऐसी घटनाएं हैं, जहां एसपी मुझे डांट सकते थे, लेकिन उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया। इसी सिलसिले में कुछ घटनाओं का जिक्र करना यहां उचित हो जाता है।
घटनाक्रम 1
उन दिनों रविवार का कवर पृष्ठ अमूमन मैं ही बनवाया करता था। यानी कवर जिडाइन कैसी होगी, टीपी कौन सी जाएगी और उसका डिजाइन कैसे बनेगा, इन सभी बिंदुओं पर मैं आर्टिस्ट से बोल करके कवर बनवाया करता था। उस अंक में राजस्थान की राजनीति पर कवर स्टेरी थी, इसीलिए एसपी जयपुर गए हुए थे। जाने से पहले उन्होंने मुझसे कहा, निर्मल मैं जयपुर से फोन करके तुम्हें बता दूंगा कि कवर स्टोरी कौन सी होगी और कवर कैसे बनाना है। दो दिन बाद वहां से फोन आया और उन्होंने कवर स्टोरी तथा कवर कैसे बनाया जाए, उसकी एक सम्यक रूपरेखा बता दी। तत्पश्चात मैंने कवर बनाकर भेज दिया। अंक छप करके निकल आया। एसपी तब तक जयपुर से लौट कर आ भी गए थे। अमूमन गुरुवार को मद्रास ΄प्रेस से कवर पेज छप कर आ जाया करता था।
उस दिन भी गुरुवार था। मैं अपने काम में व्यस्त था। शायद अगले अंक के फाइनल पेज चेक कर रहा था। मैं अपने काम में इतना मगन था कि मैं देखा ही नहीं कि एसपी मेरे पीछे खड़े हैं। फिर जब ध्यान गया, तो उन्होंने मुझसे कहा, निर्मल, जरा अंदर (केबिन में) आओ। केबिन के अंदर ΄प्रवेश करते वक्त मैंने देखा कि उनके हाथ में रविवार का कवर पेज है। मैंने उत्सुकता जताई कि भैया कैसा है? उत्तर में उन्होंने कवर ΄पृष्ठ को मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, मैंने जैसा कहा था, तुमने ठीक उसका उल्टा कर दिया। मैंने जिस कवर स्टोरी बनाने के लिए कहा था, तुमने उसे विशेष रिपोर्ट बना दिया और विशेष रिपोर्ट को ...। सुनते ही मैं परेशान हो गया। उनको पता था कि मैं छोटी-छोटी चीजों से परेशान हो जाता हूं, शायद इसीलिए उन्होंने तुरंत कहा, कोई बात नहीं ऐसा हो जाता है। मैं बाहर आया। सोचा, इतनी बड़ी बात हो गई और उन्होंने मुझे कुछ भी नहीं कहा। मेरी आंखों में आंसू आ गए। मुझे अब इस बात का डर सताने लगा कि अभी सभी स्टाफ को पता चल जाएगा कि निर्मल से कोई गलती हुई है।
इसीलिए मैं तुरंत विभाग से बाहर निकल गया। थोड़ी देर बाद जब मन शांत हुआ, तो मैं अपनी सीट पर लौट आया। काफी देर तक इसी उधेड़बुन पर फंसा रहा कि उन्होंने मुझे डांटा क्यों नहीं? मैं बहुत भावुक इंसान हूं। उस दिन, मुझे याद है, मैं रात भर सो नहीं सका। पत्नी मुझसे ΄पूछती रही कि तुम्हें हुआ क्या है? मैंने उससे कुछ भी नहीं कहा। दूसरे दिन मैं सीधे एसपी के घर गया और कहा, भैया मुझे माफ कर दीजिए। वे हंसने लगे। कहा, तुम बेवकूफ हो! तुम काम करते हो, इसीलिए तुमसे गलती हुई है। और भविष्य में भी तुमसे गलतियां होती रहेंगी। अगर इसी तरह सिर्फ एक गलती पर हम किसी को बुरा भला कहना शुरू कर देंगे, तो वह और ज्यादा गलती करेगा। लेकिन कुछ नहीं कहने पर वह भविष्य में हमेशा उसी तरह का काम दोबारा करते वक्त सचेत रहेगा। इस तरह उन्होंने वहां से समझा बुझाकर और खाना खिलाकर तुरंत ऑफिस जाने के लिए कहा।
घटना नं- 2
गलतियां हर पत्रिका में होती हैं, इसलिए एक बार फिर मुझसे एक गलती हो गई। हुआ यूं कि एक दिन ‘रविवार’ के हम सभी साथी बाहर लॉन पर बैठे शाम की चाय पी रहे थे। चूंकि मैगजीन एक दिन पहले पैकअप कर दी थी, इसीलिए रिलैक्स मूड में थे। हम लोग बैठे-बैठे हंसी मजाक कर रहे थे कि इतने में एसपी अंदर आए और हंसते हुए मुझसे पूछा कि निर्मल, तुम्हारी राशि कौन सी है? मैंने कहा, मेरी दो राशि है। नाम के अनुसार, वृश्चिक और जन्म समय के अनुसार सिंह। उनके हाथ में रविवार का नया अंक था। उन्होंने तुरंत अंक को आगे बढ़ाया और हंसते हुए कहा कि देखो जरा तुम्हारी राशि में क्या है? मैंने शुरू से आखिर तक अच्छी तरह से देखा, तो बात समझ में आ गई। उसमें सिंह राशि गायब थी। फिर उन्होंने कहा- मैं सबसे पहले अपनी राशि देखता हूं। इसीलिए पलटते ही जब मैंने देखा कि मेरी राशि नहीं है, तो पहले तो मैं चौंका, फिर समझ में आ गया कि एक राशि कम है। इस वाकये के बाद उन्होंने केवल इतना कहा कि हमेशा बारह राशियां गिन लिया करो। और यह कहते हुए वे अंदर चले गए। आज भी मैं हमेशा बारह राशियां गिन लेता हूं।
घटना नं-3
उस दिन हम लोग रिलैक्स मूड में बैठे थे, बल्कि यह कहना उचित होगा कि हम लोग सब शाम को भेल (बांग्ला भाषा में इसे मूड़ि कहते हैं) खा रहे थे। हंसी मजाक में एक दूसरे पर टिका टिप्पणी भी कर रहे थे। तभी एसपी हंसते हुए आए। उस दिन भी उनके हाथ में रविवार का ताजा अंक था। मेरी नजर उनके चेहरे पर पड़ी, तो वे मुस्कुराने लगे। फिर उन्होंने राजकिशोर जी की ओर मुड़कर उनसे ΄पूछा, कि राजकिशोर जी, सुना है आपके यहां कोई नया एडिटर आ रहा है। पहले तो राजकिशोर जी चौंक गए, फिर उन्होंने पूछा, क्या, क्या कह रहे हैं सुरेंद्रजी! एसपी ने मैगजीन आगे बढ़ाते हुए व्यंग्य करते हुए टिप्पणी की- लगता है, मैनेजमेंट ने मुझे निकाल दिया है। इस बार राजकिशोर की ओर मुखातिब होकर कहा कि अब आपके सपने साकार हो जाएंगे। एक निश्छल हंसी थी उनके चेहरे पर। क्योंकि मेरे बाद तो आप ही संपादक बनने के हकदार हैं। हम सभी यह सुनकर परेशान हो गए, क्योंकि हम में से किसी को भी यह समझ में नहीं आ रहा था कि एसपी ऐसा क्यों कह रहे हैं?
खैर, थोड़ी देर बाद उन्होंने मैगजीन का पहला पन्ना खोला। और हम सभी को दिखाते हुए कहा, अब सुरेंद्र प्रताप सिंह इस रविवार के संपादक नहीं रहे। आप लोग अपना अपना बायोडाटा मैनेजमेंट को भेज सकते हैं और यह कह कर वे खूब ठहाके मार मार कर हंसने लगे। मैंने उनके हाथ से मैगजीन ले ली। पहला पन्ना पलटा। देखा कि वहां संपादक के तौर पर एसपी का नाम नहीं है, लेकिन एक स्पेस जरूर छूट गया है। मुझे बात समझ में आ गई। उन दिनों पेस्टिंग का जमाना था। नाम हर बार पेस्टिंग करके लगवाया जाता था। गैली काटकर लगाना होता था। छूटा हुआ स्पेस देखकर मुझे यह समझने में कहीं कोई दिक्कत नहीं हुई कि नाम कहीं गिर गया है। हालांकि आश्चर्य की बात तो यही है कि एसपी ने इस बड़ी बात को भी बिल्कुल नजरंदाज कर दिया, इस तरह से मानो कुछ हुआ ही न हो। वे चाहते, तो इस बात पर पेस्टिंग विभाग से लेकर सभी को लाइनहाजिर करवा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि उन्हें पता था कि इससे नाम तो ΄प्रिंट नहीं हो सकता।
घटना नं-4
घटनाएं तो कई हैं, इसलिए सभी घटनाओं का जिक्र करना यहां संभव नहीं है। हां, एक घटना जरूर ऐसी है, जिसका जिक्र करना यहां बहुत ही आवश्यक है, एसपी के व्यक्तित्व को समझने के लिए।
यह वाक्या सन् 1982 का है। तब रविवार में विज्ञापन परिशिष्ट का सारा काम मैं ही देखता था। उन्हीं दिनों मध्य प्रदेश पर 40 पेज के विज्ञापन परिशिष्ट का काम चल रहा था। तब मुझे दमे की भयानक शिकायत रहती थी। अमूमन परिशिष्ट की टीम में दो और सहयोगी मेरे साथ होते थे। परिशिष्ट का काम चल रहा था, तभी मेरी तबियत खराब होनी शुरू हो गई। धीरे धीरे मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि मुझे अंतत: छुट्टी लेनी पड़ी। ऐसी स्थिति में मैं अपना काम अपने दोनों साथियों (राजेश त्रिपाठी और हरिनारायण सिंह) को समझा बुझा कर चला गया। मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि मुझे 15 दिनों की छुट्टी लेनी पड़ी। छुट्टी से लौटकर आया, तो मैंने परिशिष्ट के एवज में बिल बनाकर विज्ञापन विभाग के सीनियर मैनेजर आलोक कुमार को भेज दिया और उसके बाद मैं अपने दैनिक काम में लग गया। अचानक एक दिन राजेश ने मुझसे पूछा कि निर्मल विज्ञापन का पैसा अभी तक नहीं आया क्या? मुझे भी लगा कि काफी देर हो चुकी है। अब तक तो चेक आ जाने चाहिए थे।
मैं तुरंत आलोक कुमार से मिला और उनसे पूछा, आलोक दा, इस बार हमें अभी तक मध्य प्रदेश विज्ञापन परिशिष्ट के ΄पैसे नहीं मिले? पहले उनको शायद समझ में नहीं आया, इसीलिए उन्होंने पूछा, वॉट?
मैंने कहा, मध्य प्रदेश विज्ञापन परिशिष्ट का ΄पैसा ...? मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि उन्होंने जवाब में कहा, वह पैसा तो आत्मानंद सिंह (विज्ञापन प्रतिनिधि) के नाम पर लग गया है।
मैंने पूछा, क्यों? आप तो जानते ही हैं कि यह सारा काम मैं करता हूं। मेरे साथ मेरे दो साथी भी होते हैँ? लेकिन तुम तो बीमार थे, उन्होंने पूछा?
मैंने कहा, मैं बीमार जरूर था, लेकिन मैं स्वयं साठ प्रतिशत काम करके गया था और फिर बाकी काम अपने दो साथियों में बांट कर गया था। फिर मैंने विनम्रतापूर्वक कहा कि बिल में मैंने तीन लोगों के बीच पूरे पैसे बांट कर चेक बनाने के लिए आग्रह किया है। ऐसा करिए, आप मेरे उन दोनों सहयोगियों को पैसे दे दो, क्योंकि उन दोनों ने मेहनत की है, अन्यथा वे भविष्य में हमारा साथ नहीं देंगे। और वैसे भी मैंने वादा किया है। इस पर उन्होंने कहा, चेक बन चुका है, इसलिए अब यह संभव नहीं है। दरअसल, उनकी बातों से लगा कि वे खुद नहीं चाहते, इसलिए मैंने उनसे पूछा कि क्या आत्मानंद सिंह पेज बनवा सकते हैं, संपादन कर सकते हैं, प्रूफ पढ़ सकते हैं, अनुवाद कर सकते हैं? मैंने दृढ़तापूर्वक कहा, वे ये सब नहीं कर सकते। यह सब जान बूझकर किया गया है। मुझे गुस्सा आ गया और गुस्से में मैंने कहा कि आप गलत’ लोगों को शह देते हैं। इस पर उन्होंने मुझे कहा कि तुम्हारे कहने का मतलब यह है कि मैं ‘बायस्ड’ हूं।
मैंने जवाब में कहा, मैंने आपको बायस्ड नहीं कहा। इस पर वे खड़े हो गए और चिल्लाने लगे कि जानते हो तुम किससे बात कर रहे हो? उनके इस तरह से चिल्लाने के बाद मैंने कहा, हां, मैं जानता हूं कि आप विज्ञापन विभाग के सीनियर मैनेजर हैं। इससे क्या होता है? तब तक गुस्सा मेरे सिर पर चढ़ चुका था और मैंने उन्हें फिर चल्लाते हुए कहा कि यदि आपके पिताजी के पास दौलत नहीं होती, तो न ही आप पढ़ लिख पाते और न ही आज आप यहां होते। हो सकता है, आप भी रिक्शा चला रहे होते! गेट आउट कह कर उन्होंने मुझे अपने केबिन से निकाल दिया। मैं अपने विभाग में पहुंचा, तो भक्त दा (सेवा संपादक), जो कि कान से ऊंचे सुनते थे, इशारे से मुझसे कहा कि आपको साहब बुला रहे हैं। मैं एसपी के केबिन में गया, तो देखा कि वे फोन पर कह रहे हैं कि निर्मल से तुमने कुछ उल्टी सीधी बात जरूर की होगी। वैसे भी उसने और उसकी टीम ने ही सारा काम किया है। यहां का रजिस्टर गवाह है। फिर तुम्हारे कहने पर मैं उसे क्यों डांटूं? यह कहकर उन्होंने फोन रख दिया। अब उन्होंने मुझे बैठने के लिए कहा। मैं बैठ गया।
उन्होंने कहा, निर्मल अभी अभी आलोक का फोन आया था। वह बहुत गुस्से में है। अरूप बाबू (उन दिनों आनंद बाजार पत्रिका के जनरल मैनेजर थे। वैसे वे मालिक भी हैं।) से शिकायत करने वाला था, लेकिन मैंने उसे कह दिया कि इसमें तुम्हारे विभाग की ही गलती है। तुम ऊपर जाओ। आलोक से अब अच्छी तरह बात कर लो। मैं ऊपर गया, तो इस क्षण आलोक कुमार का तेवर ही बदला हुआ था। मेरे पहुंचे ही उन्होंने मुझसे उल्टा कहा, निर्मल जो हो गया, उसे भूल जाओ। दोबारा बिल बनाकर दे दो।पैसे मिल जाएंगे। फिर हाथ मिलाया और कोकाकोला भी पिलाया। वैसे, यहां यह बता दें कि बाद के दिनों में आलोक कुमार और मेरे बहुत अच्छे संबंध बन गए थे। उन्होंने मेरे कहने पर मेरे एक दोस्त को नौकरी भी दी थी, विज्ञापन विभाग में।
यह घटना इस बात का सबूत है कि एसपी सच्चाई का साथ देने में कभी पीछे नहीं हटते थे, जबकि हम यह भालीभांति जानते थे कि एसपी और आलोक कुमार में बहुत अच्छी दोस्ती थी। दोनों एक दूसरे के घर में दिन रात पड़े रहते थे, लेकिन बात जब सच्चाई की होती थी, तो एसपी हमेशा सच्चाई का ही साथ देते थे, भले ही इससे उनका बहुत बड़ा नुकसान ही क्यों न हो जाए, या फिर दोस्तों के बीच में दरार पड़ जाए?
समाचार4मीडिया ब्यूरो by समाचार4मीडिया ब्यूरो
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