Saturday, August 3, 2019

आनेवाली पीढ़ी भी एसपी को थोड़ा-बहुत जानें



सुरेंद्र प्रताप सिंह (एसपी) के मौत को बीस साल हो गए...


   

दर्पण सिंह

सुरेंद्र प्रताप सिंह (एसपी) के मौत को 21 साल हो गए! आज के बहुत से पत्रकार उनको जानते भी नहीं होंगे। इसमें उनका दोष भी नहीं है। आज मैं हिंदी में लिख रहा हूं, इसके पीछे भी एक कारण है जिसकी चर्चा मैं नीचे करूंगा. आज के retweets और likes वाली generation के लिए ये बुरा नहीं होगा अगर वो एसपी को थोड़ा-बहुत जानें।

यूपी के गाजीपुर जिले में एक छोटा गांव है- पातेपुर जहां उनका जन्म हुआ। प्राइमरी एजुकेशन गांव में ही मिली। उनके पिता जगन्नाथ सिंह, मेरे नाना फौजदार सिंह के भाई, कारोबारी थे और बंगाल के गारोलिया कसबे में बस गए थे। जब मैंने 2001 में पत्रकारिता शुरू की तो नानी (पार्वती देवी) उनके किस्से खूब सुनाया करती थी। एसपी भी बाद में गारोलिया पढ़ने चले गए। एमजे अकबर बचपन के दोस्त थे।

1962 में एसपी ने मैट्रिक सेकेण्ड डिवीजन में पास किया, फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी में मास्टर्स फर्स्ट डिवीजन में और सुरेंद्रनाथ कॉलेज से लॉ ग्रैजुएट। थोड़े समय के लिए AISF से जुड़े और यूनियन की मैगजीन के संपादक भी रहे। पहली नौकरी थी बैरकपुर के नेशनल कॉलेज में हिंदी लेक्चरर की। उस समय की मशहूर राजनितिक पत्रिका दिनमान के वे बड़े शौकीन थे। टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह में पत्रकारों की भर्ती निकली तो आवेदन किया। रिटेन टेस्ट पास किया। उनका इंटरव्यू लिया धर्मवीर भारती ने, नौकरी मिली धर्मयुग में ट्रेनी की। इसी बीच इलाहबाद में स्टेशन मास्टर की नौकरी मिली जो उन्होंने ठुकरा दी। थोड़े दिन के लिए फिल्म पत्रिका माधुरी भेज दिए गए, लेकिन जल्दी धर्मयुग वापस। तब एपी और एम.जे.अकबर जुहू के एक कमरे में किराये पर रहते थे।

1977 में उन्होंने 'रविवार' को चमकाया और पत्रकारिता को नए तरीके से परिभाषित किया। 1985 में राजेंद्र माथुर, जो उस समय नवभारत टाइम्स के चीफ एडिटर थे, उन्होंने एसपी को बॉम्बे का रेजिडेंट एडिटर बनाया जहां वो 1992 तक रहे। एसपी ने 1984 में आई गौतम घोष की फिल्म ‘पार’ के संवाद भी लिखे थे। थोड़े समय तक देव फीचर्स, टेलीग्राफ, इंडिया टुडे और बीबीसी से भी जुड़े. और फिर 1995 में दूरदर्शन पर 'आजतक' के पहले संपादक बने और बहुत पॉपुलर हुए। पहला एपिसोड आया 17 जुलाई को, जो की संयोगवश मेरा जन्मदिन भी है। जैसा कि योगेंद्र यादव ने एक बार कहा, एक समय था जब अंग्रेजी जानना काफी नहीं था। ये भी जरुरी था कि आप को कोई और भाषा न आती हो। अगर ये स्थिति बदली तो इसका काफी क्रेडिट एसपी को जाता है।

एसपी के लेख 'खाते हैं हिंदी का, गाते हैं अंग्रेजी का' की आज भी मिसाल दी जाती है। आर.अनुराधा ने एसपी पे अपनी किताब में लिखा है: 'मॉडर्निटी, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और स्त्री अधिकारों के प्रति असंदिग्ध प्रतिबद्धता उन्हें भीड़ से अलग पहचान देती है। पार्लियामेंट के सामने उनकी स्ट्रीट स्पीच हमने कई बार देखी: "जितना आप लोगो को आतंकित कर सके, उतने ही बड़े आप नेता हैं। आप इस देश की जनता को आतंकित करना चाहते हैं, और हम जो जनता के प्रतिनिधि के तौर पर रिपोर्टिंग करना चाहते हैं, आप हमें भी आतंकित करना चाहते हैं।"

13 जून, 1997 को दिल्ली के उपहार सिनेमा में आग लगी. कई लोगो की मौत हुई। वो बुलेटिन उनका आखिरी साबित हुआ। ब्रेन हैमरेज हुआ। 27 जून को उनकी मौत हो गई। वो पचास साल के भी नहीं थे, तब मैं बीबीसी रेडियो खूब सुना करता था। बिजली होती नहीं हमारे कस्‍बे में कि टीवी पे न्यूज देखा जाए, बीबीसी पर ही उनकी मौत की खबर आई और सही मायने में तब पता चला कि वो कितने बड़े पत्रकार थे। एसपी ने पहले प्रिंट और भी टीवी पत्रकारिता में वो शोहरत पाई, जो आज तक बहुत कम लोगो को मिली है। श्रद्धांजलि।

समाचार4मीडिया ब्यूरो by समाचार4मीडिया ब्यूरो
Published - Thursday, 27 June, 2019

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