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Showing posts from 2008

एक दलित पत्रकार की तलाश है...

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..जो किसी मीडिया संस्थान में महत्वपूर्ण पद पर हो। आप पूछेंगे ये एक्सरसाइज क्यों? बारह साल पहले वरिष्ठ पत्रकार बी एन उनियाल ने यही जानने की कोशिश की थी। 16 नवंबर 1996 को पायोनियर में उनका चर्चित लेख इन सर्च ऑफ अ दलित जर्नलिस्ट छपा था। उस समय उन्होंने प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो के एक्रिडेटेड जर्नलस्ट की पूरी लिस्ट खंगाल ली थी। प्रेस क्लब के सदस्यों की सूची भी देख ली। लेकिन वो अपने मित्र विदेशी पत्रकार को मुख्यधारा के किसी दलित पत्रकार से मिलवा नहीं पाए। उनियाल साहब के काम को पाथब्रेकिंग माना जाता है और इसकी पूरी दुनिया में चर्चा हुई थी। 1996 के बाद से अब लंबा समय बीत चुका है। क्या हालात बदले हैं? यकीन है आपको? जूनियर लेवल पर कुछ दलितों की एंट्री का तो मै कारण भी रहा हूं और साक्षी भी। लेकिन क्या भारतीय पत्रकारिता में समाज की विविधता दिखने लगी है? अभी भी ऐसा क्यों हैं कि जब मैं पत्रकारिता के किसी सवर्ण छात्र को नौकरी के लिए रिकमेंड करके कहीं भेजता हूं तो उसे कामयाबी मिलने के चांस ज्यादा होते हैं। दलित और पिछड़े छात्रों को बेहतर प्रतिभा के बावजूद नौकरी ढूंढने में अक्सर निराशा क्यों हाथ लगती...

27 जून को एस.पी. की ग्यारहवीं पुण्यितिथि

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इस सत्ताइस जून को सुरेंद्र प्रताप सिंह के देहांत के ग्यारह बरस पूरे हो रहे हैं। उपहार अग्निकांड के बाद 16 जून को उनके दिमाग़ की नसें फट गई थी। सबसे पहले उन्हे विमहेंस में एडमिट कराया गया। हालत बिगड़ने पर दोपहर में उन्हे अपोलो हॉस्पिटल में एडिमट कराया गया। ये बहुत कम लोगों को ही पता होगा कि 26 जून की देर रात को उनके दिमाग़ ने काम करना बंद कर दिया। वो इंसान, जो दिमाग़ की वजह से लोकप्रिय रहा है। 27 जून की सुबह दिल ने भी धड़कने से इनकार कर दिया। याद है मुझे वो रात, जब डॉक्टरों ने हमें मानिसक तौर पर तैयार रहने को कह दिया था। उनकी पत्नी पर जो बीत रही थी, उसे बता पाना बेहद मुश्किल है। लेकिन जो मेरे साथ गुज़रा , उसे आज तक मैं नहीं भूला पाया हूं। जिस बरगद की छांव में मैं पला था, अचानक उसके गिरने की कल्पनाभर से मैं मटियामेट हो चुका था। मुझे अहसास हो चुका था कि मैं कमज़ोर हो चुका हूं। दिमाग़ी-ज़ेहनी तौर पर। सेरोगट मदर के बारे में दुनिया जानती है लेकिन सैरोगट फादर का अंदाज़ा शायद न होगा। वो मेरे पिता नहीं थे। फिर भी वो मेरे पिता थे। मेरे पिता तीन भाई। सबसे बड़े मेरे पिता एन.पी., उसके बाद और ए...

हिंदी चैनलों का कोई चरित्र नहीं बन पाया है- एस.पी.सिंह

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निजी चैनलों का भारत में भविष्य कैसा है ? पत्रकारिता की शैली में यदि आप मुझसे पूछें तो मैं कहूंगा कि भविष्य बहुत अच्छा है। लेकिन इससे काम चलेगा नहीं। दूरदर्शन को एक तरह से चुनौती मिलनी शुरू हो गई है। कई तरह के चैनल हमारे सामने आ रहे हैं। इन नए चैनलों में भारतीय, विदेशी, निजी और सरकारी चैनल शामिल हैं। चैनल आते है, थोड़े दिनों तक दिखाई देते हैं और फिर ग़ायब हो जाते हैं। निजी चैनल जितने आए हैं, उनमें सफलता का प्रतिशत ज़्यादा नहीं है। व्यावसायिक कोण के बग़ैर किसी चैनल की सफलता या असफलता को आंकना आज के ज़माने में नामुमक़िन है। ये एक ऐसा माध्यम है, जिसमें करोड़ों की पूंजी लगती है। सिर्फ अच्छे कार्यक्रमों के आधार पर किसी चैनल की सफलता को नहीं आंका जा सकता। क्योंकि अगर ऐसा होता, तो डिस्कवरी चैनल एक बहुत सफल चैनल हो गया होता। फिर भी मैं कह रहा हूं कि निजी चैनल का भविष्य बेहद उज्जवल दिखाई देता है। ये कहने के लिए मेरे पास दो आंकड़े हैं। साल 1985 में विज्ञापनों पर 1.5 अरब रुपए ख़र्च किए गए। इसमें 75 प्रतिशत प्रिंट मीडिया पर ख़र्च होता था। 12 प्रतिशत रेडियो पर, 3 प्रतिशत सिनेमा पर और बाक़ी 6 फी...

हिंदी चैनलों का कोई चरित्र नहीं बन पाया है- एसपी के भाषण का दूसरा अंश

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चिंता की बात ये है कि इलेक्ट्रानिक माध्यम व्यावसायिक सामने आया है। व्यानसायिकता ही इसकी प्राथमिकता रहेगी। मैं व्यावसायिकता के ख़िलाफ़ नहीं हूं। क्योंकि इसके ख़िलाफ़ रहते हुए हम उम्मीद करें कि सारा काम सरकार करती रहे तो ये संभव नहीं है। इसके बीच ऐसा कोई सामंज्सय बिठाया जाए ताकि व्यावसायिकता भी बनी रहे और अपसंस्कृति के ख़तरे से भी देश को दूर रखा जा सके। एक तरीक़ा ये है कि इस माध्यम को नियंत्रण से दूर रखा जाए। मुक्त करके ऐसी कोई व्यवस्था बने कि निजी या सरकारी चैनलों की , जो सामाजिक रूप से ज़िम्मेदार भी हों, जो इस चीज़ को समझें कि हमें मनोरंजन की जितनी आवश्यकता है, उतनी ही सूचना और शिक्षा की भी है। मैं किसी एक राजनीतिक पार्टी का नाम नहीं लेना चाहता। कल कांग्रेस सत्ता में ती। तेरह दिनों के लिए बीजेपी भी सत्ता में थी। आज संयुक्त मोर्चा है। मुझे काम में कोई अंतर दिखाई नहीं देता। आज थोड़ी परेशानी और बढ़ गई है। क्योंकि उस समय एक सरकार थी। एक प्रदानमंत्री था। हमारे सामने साफ दिशा निर्देश थे कि देश में आप विभेद नहीं फैलाएंगे। दो संप्रदायों को लड़ाएंगे नहीं, आदि आदि। ये सब लिखे हुए हैं, आप पढ...

मैं इस विलाप में शामिल नहीं हूं- एस.पी.सिंह

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सवाल- आप प्रिंट मीडिया से एलेक्ट्रानिक मीडिया में आ गए हैं। अपनी उपस्थिति में कैसा अंतर पाते हैं?जवाब- किसी माध्यम या संस्थान में निजी उपस्थिति का क़ायल मैं कभी नहीं रहा। मैंने जहां भी काम किया, टीम वर्क की तरह काम किया। अख़बार में भी जब मैं था तो पहले पन्ने पर दस्तख़त करके कुछ भी लिखकर छपने की वासना मुझमें नहीं रही। हिंदी में तो इसकी परंपरा ही रही है। मैं भी चाहता तो ऐसा अक्सर कर सकती था। अब टेलीविज़न के लिए काम करना मुझे रास आ रहा है। बतैर प्रोफेशन मैं यहां पहले से ज़्यादा संतुष्ट हूं। क्योंकि यहां लफ़्फ़ाज़ी और छल की गुंजाइश नहीं है। आलस्य और मिथ्या पत्रकारिता यहां नही चल सकती। जैसा कि कुछ लोग अनजान सूत्रों के हवाले से कुछ भी लिखते रहे हैं। यहां तो आप जो कुछ भी आप टिप्पणी करते हैं, उसे दिखाना पड़ता है। ये बात अलग है कि यहां ग्लैमर ज़्यादा है। सवाल- आजकल हिंदी अख़बारों पर संकट की हर जगह चर्चा हो रही है। आपको क्या लगता है ? जवाब- ये उनके गोर अज्ञान की अभिव्यक्ति है। हिंदी पत्रकारिता का स्वर्ण युग चल रहा है। हिंदी और भाषाई अख़बारों की पाठक संख्या, पूंजी, विज्ञापन और मुनाफा लगातार ...

एस पी की याद में

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Just about a week ago, an hour-and-a-half of nirgun bhajans at a quiet function in the Capital marked the passage of two year since Surendra Pratap Singh was removed from the midst of his family and friends by a cerebral stroke. At the India International Centre(IIC), people driven by diverse persuasions and with varying backgrounds gathered, drawn by a common chord that SP Singh represented to all of them. As always, time has flown. The last two years have been consumed in a particularly inordinate, and chaotic, hurry. The media, which SP Singh first as a print journalist and later as the brain behind Aaj Tak, impacted in a decisive fashion, has had its hands full. It has been full time, demanding job to report, comment and analyse events that are even now shaping India of the next millennium. Pictures and words struggle to capture the defining moments of the nation’s pell mell entry into the 21st Century. The formation of a saffron-led Government at the Centre, the momentous Pok...

निजी टीवी चैनलों का भविष्‍य बेहतर है

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यह लेख सुरेंद्र प्रताप सिंह ने अपने इंतकाल से थोड़े दिनों पहले लिखा था। अभी प्रथम प्रवक्‍ता की पीडीएफ कॉपी मोहल्ला को जुगनू शारदेय जी ने भेजी थी, जिसमें यह लेख था। इस लेख से अंदाज़ा होता है कि टीवी चैनल में अपनी उपस्थिति को लेकर एसपी कितने सचेत और सुनियोजित थे। एक ख़ास बात जो इस लेख में डिस्‍कस्‍ड है, वो ये कि 1995 के आसपास हिंदी न्‍यूज़ चैनल का कोई चरित्र नहीं बन पाया था। कमोबेश यही स्थिति आज भी है। 10-12 साल तक एक माध्‍यम चरित्र के मामले में अनगढ़ ही है, लेकिन धंधे में हो रही बरक्‍कत को अगर टीवी चैनलों की सफलता माना जाए, तो हम मान सकते हैं एसपी चैनलों का भविष्‍य देखने के मामले में दूरंदेशी थे। निजी चैनलों का भारत में भविष्य कैसा है? पत्रकारिता की शैली में यदि आप मुझसे यह प्रश्‍न पूछें तो मैं कहूंगा कि भविष्य उज्ज्वल है। लेकिन इससे काम चलेगा नहीं। दूरदर्शन को एक तरह की चुनौती मिलनी शुरू हुई है और कई तरह के चैनल हमारे सामने आ रहे हैं। इन नये चैनलों में भारतीय, विदेशी, निजी और सरकारी चैनल शामिल हैं, लेकिन इन चैनलों की गहराई में यदि उतरें, तो ऐसा लगता है कि भविष्य जितना उज्ज्वल लग...

आधे सफर की अधूरी कहानी

सुरेंद्रप्रताप सिंह की यादें (10वीं पुण्यतिथि) - दीपक चौरसिया दोपहर का वक्त था। जून की तपती दोपहरी में मैं छुट्टी पर अपने गृहनगर सेंधवा में, जो कि मध्यप्रदेश में महाराष्ट्र की बार्डर पर है, 'नईदुनिया' के पन्ने पलट रहा था। तभी एकाएक फोन की घंटी बजी। फोन मैंने उठाया। फोन एनडीटीवी से था। मेरी दोस्त माया मीरचंदानी लाइन पर थीं। उन्होंने मुझसे कहा 'एसपी' (प्यार से सब उन्हें यही कहा करते थे) बहुत बीमार हैं, अपोलो में भर्ती हैं। मुझे विश्वास नहीं हुआ। फोन पर दूसरी तरफ मुझे फिर आवाज सुनाई दी मेरी होने वाली पत्नी अनुसूइया थी। 'दीपक मैं तुम्हे बताना चाहती थी, लेकिन पता नहीं तुम कैसे रिएक्ट करोगे।' मैं कुछ नहीं बोल पाया, फोन रख दिया।पहली बस और इंदौर की ओर मैं रवाना हो गया, लेकिन 'एसपी बॉस' के साथ बिताया हर एक लम्हा याद आने लगा। 'इंदौर होलकर साइंस कॉलेज थ्रू आउट फर्स्ट क्लास फर्स्ट' अरे कोई अच्छी नौकरी करो, क्यों झोलाछाप हिन्दी पत्रकारिता में आना चाहते हो। इंदौर से पहली बार जब इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मॉस कम्युनिकेशन का इंटरव्यू देने गया तो बोर्ड में वही थे। मेर...

When Hindi became telegenic

YOGENDRA YADAV Wednesday, June 27, 2007 at 0000 hrs Hindi news TV would not have been where it is today, but for Surendra Pratap Singh or ‘SP’, who died ten years ago. But he would not have recognised what passes for Hindi TV news today Related Stories I think of ‘SP’ every time I face the question: “Are you the same man that appears on Aaj Tak?” I continue to face this question hundreds of times, years after my formal association with Aaj Tak is over. Not surprising, for Aaj Tak was for Hindi television news what Surf was for detergents or Xerox for photocopiers. I think of him whenever anyone’s Hindi credentials are mentioned with some respect in Delhi’s charmed circles. Not so long ago, it was not enough to know English; it was equally important not to know any other Indian language. Failing in Hindi was a mark of honour. Being at ease with a desi language defined you out of the monolingual English-speaking power elite. This power equation has altered a bit in the last decade or ...

बात एसपी-डीएम की, न्यूज़ चैनलों की

अनिल यहां एसपी का मतलब आजतक की शुरुआत करनेवाले सुरेद्र प्रताप सिंह से है और डीएम का मतलब आजतक से स्टार न्यूज़ होते हुए सीएनबीसी आवाज़ तक पहुंचे दिलीप मंडल से है जिनकी राय में, ‘ये कहना तथ्यों से परे है कि कभी पत्रकारिता का कोई स्वर्ण युग था या कि पहले कोई महान पत्रकारिता हुआ करती थी।’ वैसे, मंडल जी पर एसपी का प्रभाव इतना ज्यादा है कि उनकी वेशभूषा, चेहरे-मोहरे और हाव-भाव से एसपी की छाया-सी छलकती है। उनके लिखने से भी यह ज़ाहिर हो जाता है। तभी तो वे कहते हैं, ‘पुराने एसपी से नए जमाने के पत्रकार बहुत कुछ सीख सकते हैं। लेकिन एसपी जितने मॉडर्न थे, उस समय की पत्रकारिता उतनी मॉडर्न नहीं थी।’मंडल जी की यही बात मेरे गले नहीं उतरती। पेड़ बड़ा मॉडर्न था, जंगल उतना मॉडर्न नहीं था। जंगल से पेड़ अलग, पेड़ से जंगल अलग। हकीकत ये है कि आज हिंदी न्यूज़ चैनलों में जो भी अच्छाई या बुराई है, उसके बीज एसपी सिंह की कार्यशैली में ही छिपे हैं। वैसे भी, आज की हिंदी टेलिविजन पत्रकारिता में एसपी के ही तो चेले-चापड़ हर जगह विराजमान हैं।सच कहें तो एसपी आज एक कल्ट बन चुके हैं। समाचार चैनलों के संपादक उनके फोटो सजाते ...

ये प्रलाप क्यों ?

अशोक कुमार कौशिक ये एसपी का नहीं टीआरपी का ज़माना हैवरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह यानी एसपी सिंह की पुन्यतिथी पर दो वरिष्ठ पत्रकारों के लेख अलग-अलग अखबारों में पढे। दोनों ही मौजूदा टीवी पत्रकारिता के दिग्गज। दोनों ही एसपी स्कूल ऑफ़ जर्न्लिस्म के स्नातक। दोनों ही लेखों में एक समान चिन्ता नज़र आई, वो ये टीवी पत्रकारिता अपने मूल्यों, सरोकारों और अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हट रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो ये टीवी पत्रकारिता के लिए नैतिक गिरावट का दौर है। अगर आज एसपी होते तो ये होता, एसपी होते तो वो होता। और एसपी होते तो ये नहीं होता, एसपी होते तो वो नहीं होता। लब्बोलुआब ये कि एसपी मौजूदा टीवी पत्रकारिता से कतई सन्तुष्ट नहीं होते। लेकिन दोनों लेख पढ़ने के बाद मेरे ज़हन में कुछ सवालों ने सहज ही सिर उठा लिया। मसलन- क्या गारंटी है कि एसपी होते तो बिना ड्राइवर की कार टीवी स्क्रीन पर दौड़ नहीं रही होती?- बदला लेने पर आमदा कोई नागिन(जिसे इछाधारी कहा जाता है ) टीवी कीtop story नहीं बनती ?- स्कूल में विद्यार्थियों की जगह भूत ना पढ़ रहे होते?- आये दिन टीवी पर आत्मा और परमात्मा के खेल ना चल र...

एस पी जिंदा होते तो आजतक देखकर मर जाते

संजय तिवारी एस पी सिंह भारत में टेलीविजन पत्रकारिता के जनक थे. आधे घंटे के न्यूज बुलेटिन “आज तक” का उनका प्रयोग दस साल में सवा सौ करोड़ रूपये का खबर उद्योग हो गया है. उनकी पिछली पुण्यतिथि पर कई सारे चेलों ने अपने संस्मरण लिखे और कहा कि आज अगर एसपी होते तो क्या कहते? कुछ ने लिखा था कि समय के साथ बदलावों को सच्चाई मानकर सबकुछ स्वीकार कर लेते. कुछ ने कहा कि वे ऐसी लकीर खींच देते कि लोग इधर-उधर जाते ही नहीं. मैं कहता हूं, आज अगर एसपी जिंदा होते तो आजतक देखकर मर जाते.एस पी की अकाल मृत्यु को सही नहीं कहा जा सकता लेकिन क्या वे बर्दाश्त कर पाते कि उनके खून-पसीने से खड़ा हुआ एक समाचार माध्यम इतना पतित हो गया है कि खबरों के नाम पर नंगई और बेहूदगी परोस रहा है. और किसी चैनल की बात मत करिए. उनके अपने खड़े किये चैनल आजतक को ही देखिए. वह आधे घंटे का कार्यक्रम यह दिखाता है कि करीना कपूर के हाथ में एक अंगूठी है और सैफ अली खान उसे छोड़ने किसी पार्टी में जाते हैं. कैमरामैन पकड़ लेता है कि सैफ के हाथ पर करीना कपूर लिखा हुआ है. अब इस बात खबर बनाने के लिए वहां एक बेचारी टाईप रिपोर्टर खड़ी की जाती है. उससे ...
टीवी पत्रकारिता का रसातल टीवी पत्रकारिता देखिये, 'कहाँ' से 'कहाँ' पहुँच गयी है! स्वर्गीय एसपी सिंह ने जब 'आजतक' का आधे घंटे का न्यूज बुलेटिन शुरू किया था तह चन्द ही हफ्तों बाद देश के नेताओं का वही हाल हो गया था जो बीबीसी की सिगनेचर ट्यून सुनकर ब्रिटेन और अमेरिका के शीर्ष नेताओं का हुआ करता था. अंगरेजी समाचारों को अखंड सत्य मानने और जानने वाले धुरंधरों की धुकधुकी बढ़ जाती थी 'आजतक' की सिगनेचर ट्यून सुनने के बाद! और तो और मेरे साथ एक सांध्य दैनिक के दफ्तर में 'दिल का हाल कहे दिलवाला' गा-गाकर नाचनेवाला एक बन्दा जब एसपी 'आजतक' में चला गया था तो हम लोग उसे अमिताभ बच्चन की तरह देखने लगे थे.कट टू-आजतक चौबीस घंटे का हुआ. उसका कायापलट होना शुरू हो गया. समाचार की जगह गिमिक ने ले ली और उसमें वे सारी बुराइयां आती गयीं जो एक पैसे के पीछे भागने वाले चैनल की हो सकती हैं. एसपी जहाँ बिना बाईट के भी मर्मान्तक कैप्स्यूल तैयार कर लेते थे वहीं अब 'पान की पीक' और 'धूमिल' के शब्दों में कहें तो 'थीक है-थीक है' वाली बाइटें प्रचुर मात्रा में...