'वह एक काला दिन था, जब टीवी पर खबरों का संसार रचने वाला शख्स सदा के लिए चला गया'

 

'वह एक काला दिन था, जब टीवी पर खबरों का संसार रचने वाला शख्स सदा के लिए चला गया'

कोई कहता है कि सफल होने के लिए टैलेंट चाहिए, कोई कहता है कि पैसा चाहिए, कोई कहता है कि अच्छा दिमाग चाहिए।

समाचार4मीडिया ब्यूरोby 
Published - Sunday, 27 June, 2021
Last Modified:
Sunday, 27 June, 2021
Nirmalendu


निर्मलेंदु, वरिष्ठ पत्रकार ।।

कोई कहता है कि सफल होने के लिए टैलेंट चाहिए, कोई कहता है कि पैसा चाहिए, कोई कहता है कि अच्छा दिमाग चाहिए। मैं कहता हूं कि सफल होने के लिए इनमें से कुछ भी नहीं है तो चलेगा, लेकिन नैतिकता और प्रामाणिकता जरूर चाहिए। सच्चा अभिगम चाहिए, काम के प्रति लगाव चाहिए, मेहनत करने का जज्बा चाहिए, लगन चाहिए, अपनी गलती को स्वीकार करने की हिम्मत चाहिए, जीवन में कृतज्ञता और भाव-पूर्णता का संगम चाहिए, कभी न थकने वाला जुनून चाहिए और खुद एवं ईश्वर पर विश्वास चाहिए। अगर इतनी सारी चीजें किसी के पास हैं तो सफलता उनके कदम जरूर चूमेगी। जी हां, ये सभी गुण एसपी सिंह में थे और शायद इसलिए उतनी कम उम्र में वह संपादक रूपी सिंहासन पर आसीन हो सके, जहां अधिकांश लोग पचास के बाद ही पहुंच पाते हैं। 'रविवार' पत्रिका और 'आजतक' चैनल को जन्म देने, उसे बनाने, सजाने और संवारने और दृश्य खबरों के संसार में नई क्रांति लाकर खबरों के संसार में नंबर वन बन बैठे एसपी ने 'आजतक' को ही अपना पूरा जीवन दान कर दिया।

एसपी। जी हां, एसपी यानी मेरे लिए सब कुछ। एसपी सिंह, एक ऐसा नाम जो पत्रकार से ऊपर एक इंसान थे। एक सरल इंसान, स्वाभाविक, मृदुभाषी, कम बोलने वाला हंसता मुस्कुराता हुआ एक चेहरा। छोटा हो या बड़ा, सबसे एक साधारण इंसान की तरह मिलते थे। आप यदि नौकरी मांगने उनके घर जाएंगे, तो आपको नहीं लगेगा कि वह इतने बड़े इंसान हैं। आपके साथ पल्थी मारकर बैठ जाएंगे। आपको माछ भात भी खिलाएंगे, आपके घर की माली हालत के बारे में भी जानेंगे और उसके बाद आपके रेज्यूमे पर गौर करेंगे। मेरे साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही हुआ था। पापा के कहने पर नौकरी मांगने गये थे उनके कोलकाता स्थित श्यामनगर वाले घर में। मेरे पापा के ऑफिस सहकर्मी साउ जी ने इंट्रोड्यूस करवाया था। घर पहुंचे, वो गेट पर ही मिल गये। पहले तो लुंगी पहन कर वे आये। चूंकि दोपहर का समय था तो मुझे माछ भात खिलाया और उसके बाद उन्होंने रेज्यूमे पर चर्चा की। नौकरी मिल गयी और उनके निधन के पहले तक मै उनके साथ छोटे भाई की तरह लगा रहा, लेकिन 27 जून 1997 के दिन वह हमसे बिछड़ गये।

दरअसल, जिस दिन एसपी सिंह का देहांत हुआ, मैं दिल्ली लेट पहुंचा। कोलकाता में 'अक्षर भारत' में काम करते हुए 13 दिनों तक मैं लगातार कोलकाता और दिल्ली का चक्कर काट रहा था। हुआ यह था कि 16 जून 1997 की सुबह-सुबह पत्रकार शैलेष जी का फोन आया। उन्होंने कहा कि एसपी बीमार हैं। फिर उन्होंने कहा कि निर्मल अभी किसी को कुछ मत बताना। बस, उनके घरवालों का फ्लाइट का टिकट कटवा दो। मैंने कल्याण मजुमदार को कहकर स्पेशल कोटे में बड़े भइया से लेकर सबका टिकट कटवाया, दोपहर की फ्लाइट थी। 27 जून 1997 को भी सुबह 11.30 बजे शैलेष जी का फोन आया कि एसपी सिंह नहीं रहे। दरअसल, दूरदर्शन के 11 बजे के बुलेटिन में यह खबर आयी कि एसपी सिंह नहीं रहे। मैं तब कोलकाता में था, लेकिन मुझे दोपहर का टिकट नहीं मिला। शाम की फ्लाइट पांच बजे की थी। वह फ्लाइट लेट हो गयी। सात बजे कोलकाता से छूटी। मैं रात को साढ़े नौ बजे पहुंचा। निजामुद्दीन घाट जाने के लिए स्कूटर में बैठा। रास्ते में स्कूटर चालक ने पूछा कि वहां कहां जाना है तो मैंने कहा कि घाट जाना है। उन्होंने पूछा क्यों? मैंने कहा कि वो एक सज्जन हैं, जिनकी मौत हो गयी है। उन्होंने पूछा कि आजतक वाले। मैंने कहा हां। उन्होंने कहा कि वह सब कुछ तो शाम सात बजे ही खत्म हो चुका है। बाद में जानकारी मिली कि अटल बिहारी वाजपेयी, गुजराल, सीताराम केसरी, जयपाल रेड्डी माधव राव सिंधिया, सुषमा स्वराज सबसे पहले वहां पहुंचे। सबसे बाद में दो मिनट के लिए दिल्ली के सीएम साहब सिंह वर्मा भी वहां पहुंचे थे। आज ये सभी लोग इस दुनिया में नहीं हैं। शायद एसपी के साथ वे भी ऊपर बैठकर गुफ्तगू कर रहे होंगे। खबर सुनकर मुझे लगा कि मेरी दुनिया खत्म हो चुकी है। मैं भइया को देख नहीं पाया। यह दुख, यह पीड़ा आज भी मुझे सताती है, लेकिन थोड़ी देर बाद मुझे इस बात का अहसास हो जाता है कि वो मेरे आसपास हैं। मुझे निहार रहे हैं। मुझे सिखा रहे हैं। मुझे पढ़ा रहे हैं। मुझ पर प्यार बरसा रहे हैं। दरअसल, आज भी उन्हीं की यादों में मेरे दिन की शुरुआत होती है और ऑफिस पहुंचते ही उनकी यादों को दूसरों से बांटने में दिन बीत जाता है।

कुछ लोग दूसरी रिपोर्टों को पढ़कर एसपी सिंह के बारे में कुछ भी लिखते हैं, लेकिन मेरा तो उनके साथ अप्रैल 1977 से संबंध है। उनके बारे मे क्या लिखूं और क्या बताऊं, समझ में नहीं आता। अनगिनत बातें और अनगिनत यादें। 1977 से 1997 तक। बीस साल तक उनके साथ मैं साये की तरह लगा रहा। वे मेरे लिए क्या थे। शायद मैं इसे किसी को समझा नहीं सकता। पथ प्रदर्शक, संपादक, बड़े भाई, पिता या कुछ और। उन्होंने 'रविवार' क्यों छोड़ा, छोड़ने से पहले क्या हुआ, 'आनंद बाजार पत्रिका' के ऑनर अरूप बाबू ने उन्हें कितनी देर तक बिठाकर रखा, अभीक सरकार ने क्या कहा। 'नवभारत टाइम्स' क्यों छोड़ा, उस दिन 'नवभारत टाइम्स' के ऑनर समीर जैन के साथ क्या हुआ था। मैं घर से दौड़ा दौड़ा सुबह-सुबह क्यों उनके घर गया। उन्होंने मुझे उस दिन क्या हिदायत दी थी। जिस दिन उन्होंने 'नवभारत टाइम्स' छोड़ा था, कपिल देव की एजेंसी में क्यों अचानक गये। जॉइन करने से पहले उनकी क्या-क्या बातें हुईं । एजेंसी में जॉइन करने से पहले कपिल देव से वे कब मिले,  'राष्ट्रीय सहारा' में उन्होंने जॉइन क्यों किया और किसके कहने पर किया। चार दिन बाद उन्होंने 'राष्ट्रीय सहारा' कयों छोड़ा? जब मैं और भइया रोज उनके घर से 'राष्ट्रीय सहारा' जाते तो मुझे वे क्या-क्या सलाह देते और मुझे क्या कहते। किस तरह से वह टेलिविजन की दुनिया में गये। अरुण पुरी से क्या-क्या बातें हुईं और मैं कैसे बिछड़ गया, वे सारी बातें आज यादें बनकर रह गई हैं।

जिस दिन वह सदा के लिए हमसे बिछड़ गये, उस दिन की यादें। सच तो ये ही है कि टेलिविजन और प्रिंट की दुनिया में आज जितने भी बड़े नाम हैं, वे सब उन्हीं की देन हैं। संतोष भारतीय, कमर वहीद नकवी, शैलेष दा, जयशंकर गुप्त, अरुण रंजन, उदयन शर्मा, राजेश बादल, रामकृपाल सिंह, संजय पुगलिया, अजय चैधरी, पुण्य प्रसून वाजपेयी, आशुतोष गुप्ता, दीपक चौरसिया, अनिल ठाकुर, राजकिशोर और आजतक के सुप्रिय प्रसाद ऐसे ही बहुत सारे पत्रकार। 'न्यूज24' के ऑनर राजीव शुक्ला भी उन्हीं की देन हैं। हमें पता नहीं कि ये लोग एसपी सिंह को याद करते हैं या नहीं, लेकिन मैं उन्हें किसी न किसी बहाने लगभग रोज याद कर ही लेता हूं। कभी संपादक के रूप में, कभी एक अच्छे इंसान के रूप में, कभी उन्हें लोगों को माफ करने के कारण, कभी एक मसीहा के रूप में, तो कभी एक खबरचीलाल के रूप में, तो कभी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए एक बड़े भाई के रूप में और कभी पिता के रूप में।

सच तो ये ही है कि मैंने अपनी पूरी जिंदगी में जितनी बातें पिता की नहीं सुनीं, उनकी सुनी हैं। उनकी बातें मेरे लिए ब्रह्म वाक्य थे। और हां, मैं एक नाम लेना तो भूल ही गया। वह नाम है नीरेंद्र नागर का, जो आज भी एसपी की चर्चा चलते ही उन्हें याद करते हैं। उन्होंने ही मेरी लिखी एसपी की किताब के संपादन का भार संभाला और खूब संभाला। मैं आज भी नीरेंद्र नागर को नहीं भूल पाया। इसके साथ ही अरुणरंजन और संतोष भारतीय को भी नहीं भूल पाऊंगा, जो कि उनके साथ साये की तरह लगे रहे। उनके एक और परम मित्र कोलकाता में थे, अक्षय उपाध्याय, वो भी एसपी भइया के पहले ही चले गये और सतन कुमार पांडे को मैं कैसे भूल सकता हूं, क्योंकि उनके साथ उनके कॉलेज के दिनों से ही संबध थे। दोनों मे बहुत ही गहरी मित्रता थी। अंतिम दिनों तक उनके साथ लगे रहे, लेकिन इन लोगों ने एसपी भइया के साथ रहने का दंभ कभी नहीं भरा और चुपचाप दोस्ती निभाते रहे। एक नाम और है, जो अब इस दुनिया में नहीं रहे। आनंद बाजार पत्रिका के बिजित बसु। एसपी भइया के परम मित्रों में से एक और राजदार। राज की बातें उन्हीं से शेयर करते थे।

दरअसल, एसपी भइया के.दो और परम मित्र थे। एमजे अकबर, अंग्रेजी पत्रकारों में एक बड़े ख्याति प्राप्त पत्रकार, उदयन शर्मा जो कि अब नहीं रहे। एसपी सिंह, उदयन शर्मा और एमजे अकबर की दोस्ती 'टाइम्स ऑफ इंडिया' मुंबई से शुरू हुई। ये तीनों विचारों के धनी और दोस्तों के दोस्त। बस यादें रह गयी हैं।

जी हां, यादें ही रह गयी हैं। वह एक काला दिन था, जब टेलिविजन पर खबरों का गजब का संसार रचने वाला एक शख्स हमारे बीच से सदा के लिए चला गया। तब दूरदर्शन ही था, जिसे पूरे देश में समान रूप से सनातन सम्मान के साथ स्वीकार किया जाता था। ये भी एक सच है कि देश के इस राष्ट्रीय टेलिविजन के मेट्रो चैनल की इज्जत एसपी सिंह की वजह से ही बढ़ी थी, क्योंकि वे उस पर रोजाना रात दस बजे खबरें लेकर आते, मुस्कुराते हुए, हंसी ठट्ठा करते हुए, खबरों पर कटाक्ष करते हुए, टीवी के परदे से इस पार झांकते, खबरों को जीते, दृश्यों को शब्द देते और शब्दों को तौलते और बीच बीच में उनका कटाक्ष कभी राजनीतिज्ञों पर, तो कभी ब्यूरोक्रेट्स पर तो कभी विपक्ष पर। सीधा वार। वह समाचार पुरुष खबरों की दुनिया में जो काम कर गया, पत्रकारों को जो इज्जत उन्होंने दी, टेलिविजन जगत में हिंदी पत्रकारिता को जो मुकाम दिया, वह आज तक कोई और नहीं कर पाया।

लेकिन हम सबको इस संसार को एक न एक दिन त्यागना ही पड़ता है। वो भी त्याग कर चले गये, लेकिन वे जरा जल्दी चले गये। हालांकि वे शाही अंदाज में गये। शायद ही ऐसा कोई पत्रकार होगा, जिसे शाही अंदाज मे जाने का मौका मिला हो। हां रफी साब भी जल्दी चले गये थे। मेरे दादा-दादी कहा करते कि जो अच्छे लोग होते हैं, उन्हें भगवान जल्दी बुला लेते हैं। रफी साब को भी जल्दी बुला लिया था। शायद इसलिए इन दोनों को बुला लिया था, क्योंकि भगवान को भी अच्छे लोगों की सोहबत में रहना अच्छा लगता है। गीता में कहा गया है कि जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु उतनी ही निश्चित है, जितना कि मृत होने वाले के लिए जन्म लेना। इसलिए जो अपरिहार्य है, उस पर शोक नहीं करना चाहिए। लेकिन किसी की अच्छाइयों को भूल पाना कितना कठिन काम है, यह वही समझ सकता है जिसके साथ यह घटित होता है ...

27 जून 1997 को दूरदर्शन के दोपहर के बुलेटिन पर खबर आई। ये थीं खबरें अब तक। एसपी सिंह नहीं रहे। दुनिया को दुनिया भर की खबरें देने वाला एक खबरची एक झटके में खुद खबर बनकर रह गया। लेकिन दरअसल, यह खबर नहीं थी। एक वार था, एक प्रहार था, जो देश और दुनिया के लाखों दिलों पर बहुत गहरे असर कर गया। शुक्रवार का दिन था। काला शुक्रवार। इतना काला कि वह काल बनकर आया और हमारे एसपी भइया को काल के गर्भ में समा लिया। 27 जून 1997 को भारतीय मीडिया के इतिहास में सबसे दारुण और दर्दनाक दिन कहा जा सकता है। उस दिन से आज तक पूरे 23 साल हो गए। एसपी सिंह हमारे बीच में नहीं हैं, ऐसा बहुत लोग मानते हैं, लेकिन हम नहीं मानते, क्योंकि हमारा मानना है कि वे जिंदा हैं, हम में, आप में, और उन सब में, जो खबरों को खबरों की तरह नहीं, जिंदगी की तरह जीते हैं। हर इंसान की कद्र करते हैं। उन सबमें हम उन्हें देखते हैं, जिन्हें उन्होंने माफ कर दिया।

अनगिनत नाम हैं, जिन्हें उन्होंने माफ कर दिया। मेरे पास उन नामों की लिस्ट भी है, जो एसपी के पीछे उन्हें कोसते थे और एसपी भइया के सामने आते ही बिल्ली की तरह मिमियाते थे। एसपी भइया ने जिस तरह से समाज को दिया, जो प्यार और सरल स्वभाव लोगों में बांटा, जिस तरह से जर्नलिस्ट्स की एक कौम को आगे बढ़ाया, वे अद्भुत, अतुलनीय, अकाट्य और अस्वाभाविक है। वे सिखा ही रहे थे कि हमें छोड़कर चले गये। अपने जीवन के आखिरी न्यूज बुलेटिन में बाकी बहुत सारी बातों के अलावा एसपी भइया ने तनिक व्यंग्य में कहा था, मगर जिंदगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है। जी हां, जिंदगी अपनी रफ्तार से चलती रहती है। दरअसल, रात के दस बजे पूरे देश को जिस खिचड़ी दाढ़ी वाले चेहरे ने खबरों के माध्यम से जागृति पैदा की थी, वह शख्स चला गया। देश के लाखों लोगों के साथ अपने लिए भी वह सन्न कर देने वाला प्रहार था।

संगीत प्रेमी थे। सूफी संगीत प्रेमी, लेकिन बांग्ला और हिंदी गीतों को भी वे सुनते थे। मैं जब रफी साब का कोई गीत गुनगुनाता तो मुझे कहते कि निर्मल तुम बहुत अच्छा गाते हो। मजाक में व्यंग्य भी करते ... क्योंकि वह भी उनकी एक शैली थी। कहते-कहां तुम 'रविवार' में पड़े हो, तुम्हारे लिए तो मुंबई ही ठीक है। बस, ये ही कहते-कहते वे हमसे बिछड़ गये। मैं आज कुछ भी नहीं हूं, लेकिन मैं जो कुछ भी हूं, उनके कारण ही हूं। उनके सिखाये हुए कदमों पर ही चलने की कोशिश कर रहा हूं। एक नेक इंसान बनने की कोशिश् कर रहा हूं। मैं नहीं जानता उनका पांच प्रतिशत भी मैं बन पाउंगा या नहीं, लेकिन आज भी मेरी कोशिश जारी है उन्हें छूने की, उनसे बात करने की निर्मल बुलाते ही दौड़कर उन तक पहुंचने की। दरअसल, उनको किसी भी चीज का लोभ नहीं था। निर्लोभी थे। धन, दौलत, राजसी ठाट बाट, अहंकार को उन्होंने कभी नहीं ओढ़ा। उन्होंने काम करने की आजादी दी और मैं आजादी का फायदा उठाकर सीखता गया, सीखता गया, और सीखता गया। आज उनके जाने के बाद मुझे वह गीत याद आ गया। ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...

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