खबरें आपके इंतजार में हैं एसपी
By निरंजन परिहार 27/06/2011 11:57:00
वह शुक्रवार था। काला शुक्रवार। इतना काला कि वह काल बनकर आया। और हमारे एसपी को लील गया। 27 जून 1997 को भारतीय मीडिया के इतिहास में सबसे दारुण और दर्दनाक दिन कहा जा सकता है। उस दिन से आज तक पूरे चौदह साल हो गए। एसपी सिंह हमारे बीच में नहीं है। ऐसा बहुत लोग मानते हैं। लेकिन अपन नहीं मानते। वे जिंदा है, आप में, हम में, और उन सब में, जो खबरों को खबरों की तरह नहीं, जिंदगी की तरह जीते हैं। यह हमको एसपी ने सिखाया। वे सिखा ही रहे थे कि..... चले गए।
एसपी। जी हां, एसपी। गाजीपुर गांव के सुरेंद्र प्रताप सिंह को इतने बड़े संसार में इतने छोटे नाम से ही यह देश जानता हैं। वह आज ही का दिन था, जब टेलीविजन पर खबरों का एकदम नया और गजब का संसार रचनेवाला एक सख्स हमारे बीच से सदा के लिए चला गया। तब दूरदर्शन ही था। जिसे पूरे देश में समैन रूप से सनातन सम्मान के साथ स्वीकार किया जाता था। देश के इस राष्ट्रीय टेलीविजन के मेट्रो चैनल की इज्ज्त एसपी की वजह से बढ़ी। क्योंकि वे उस पर रोज रात दस बजे खबरें लेकर आते थे। पर, टेलीविजन के परदे से पार झांकता, खबरों को जीता, दृश्यों को बोलता और शब्दों को तोलता वह समाचार पुरुष खबरों की दुनिया में जो काम कर गया, वह ‘आजतक’ कोई और नहीं कर पाया। 27 जून, 1997 को दूरदर्शन के दोपहर के बुलेटिन पर खबर आई – ‘एसपी सिंह नहीं रहे।’ और दुनिया भर को दुनिया भर की खबरें देनेवाला एक आदमी एक झटके में खुद खबर बन कर रह गया। मगर, यह खबर नहीं थी। एक वार था, जो देश और दुनिया के लाखों दिलों पर बहुत गहरे असर कर गया। रात के दस बजते ही पूरे देश को जिस खिचड़ी दढ़ियल चेहरे के शख्स से खबरें देखने की आदत हो गई थी। वह शख्स चला गया। देश के लाखों लोगों के साथ अपने लिए भी वह सन्न कर देनेवाला प्रहार था।
अपने जीवन के आखरी न्यूज बुलेटिन में बाकी बहुत सारी बातों के अलावा एसपी ने तनिक व्यंग्य में कहा था – ‘मगर जिंदगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है।’ टेलीविजन पर यह एसपी के आखरी शब्द थे। एसपी ने यह व्यंग्य उस तंत्र पर किया था, जो मानवीय संवेदनाओं को ताक में रखकर जिंदगी को सिर्फ नफे और नुकसान के तराजू में तोलता है। उस रात का वह व्यंग्य एसपी के लिए विड़ंबना बुनते हुए आया, और उन्हें लील गया। इतने सालों बाद भी अपना एसपी से एक सवाल जिंदा है, और वह यही है कि - खबरें तो अभी और भी थीं एसपी... और जिंदगी भी अपनी रफ्तार से चलती ही रहती, पर आप क्यों चले गए। इतने सालों बाद आज भी हमको लगता है, कि न्यूज टेलीविजन और एसपी, दोनों पर्याय बन गए थे एक दूसरे का। ‘आजतक’ को जन्म देने, उसे बनाने, सजाने – संवारने और दृश्य खबरों के संसार में नई क्रांति लाकर खबरों के संसार में नंबर वन बन बैठे एसपी ने ‘आजतक’ को ही अपना पूरा जीवन भी दान कर दिया। जीना मरना तो खैर अपने हाथ में नहीं है, यह अपन जानते हैं। मगर फिर भी, यह कहते हैं कि एसपी अगर ‘आजतक’ में नहीं होते, तो शायद कुछ दिन और जी लेते।
अपने जीवन के आखरी न्यूज बुलेटिन में बाकी बहुत सारी बातों के अलावा एसपी ने तनिक व्यंग्य में कहा था – ‘मगर जिंदगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है।’ टेलीविजन पर यह एसपी के आखरी शब्द थे। एसपी ने यह व्यंग्य उस तंत्र पर किया था, जो मानवीय संवेदनाओं को ताक में रखकर जिंदगी को सिर्फ नफे और नुकसान के तराजू में तोलता है। उस रात का वह व्यंग्य एसपी के लिए विड़ंबना बुनते हुए आया, और उन्हें लील गया। इतने सालों बाद भी अपना एसपी से एक सवाल जिंदा है, और वह यही है कि - खबरें तो अभी और भी थीं एसपी... और जिंदगी भी अपनी रफ्तार से चलती ही रहती, पर आप क्यों चले गए। इतने सालों बाद आज भी हमको लगता है, कि न्यूज टेलीविजन और एसपी, दोनों पर्याय बन गए थे एक दूसरे का। ‘आजतक’ को जन्म देने, उसे बनाने, सजाने – संवारने और दृश्य खबरों के संसार में नई क्रांति लाकर खबरों के संसार में नंबर वन बन बैठे एसपी ने ‘आजतक’ को ही अपना पूरा जीवन भी दान कर दिया। जीना मरना तो खैर अपने हाथ में नहीं है, यह अपन जानते हैं। मगर फिर भी, यह कहते हैं कि एसपी अगर ‘आजतक’ में नहीं होते, तो शायद कुछ दिन और जी लेते।
एसपी सिंह की पुण्यतिथि 27 जून पर विशेषवह ‘बॉर्डर’ थी, जो एसपी की जिंदगी की भी ‘बॉर्डर’ बन आई थी। सनी देओल के बेहतरीन अभिनय वाली यह फिल्म देखने के लिए दिल्ली के ‘उपहार’ सिनेमा में उस दिन बहुत सारे बच्चे आए थे। वहां भीषण आग लग गई और कई सारे बच्चों के लिए वह सिनेमाघर मौत का ‘उपहार’ बन गया। बाकी लोगों के लिए यह सिर्फ एक खबर थी। मगर बेहद संवेदनशील और मानवीयता से भरे मन वाले एसपी के लिए यह जीवन का सच थी। जब बाकी बुलेटिन देश और दुनिया की बहुत सारी अलग अलग किस्म की खबरें परोस रहे थे, तो उस शनिवार के पूरे बुलेटिन को एसपी ने ‘बॉर्डर’ और ‘उपहार’ को ही सादर समर्पित कर दिया। टेलीविजन पर खबर परोसने में यह एसपी का अपना विजन था। शनिवार सुबह से ही अपनी पूरी टीम को लगा दिया। और शाम तक जो कुछ तैयार हुआ, उस बुलेटिन को अगर थोड़ा तार तार करके देखें, तो उसमें एसपी का एक पूरा रचना संसार था। जिसमें मानवीय संवेदनाओं को झकझोरते दृश्यों वाली खबरों को एसपी ने जिस भावुक अंदाज में पेश किया था, उसे इतने सालों बाद भी यह देश भूला नहीं है। दरअसल, वह न्यूज बुलेटिन नहीं था। वह कला और आग के बीच पिसती मानवीयता के बावजूद क्रूर अट्टहास करती बेपरवाह सरकारी मशीनरी और रुपयों की थैली भरनेवाले सिनेमाघरों के स्वार्थ की सच्चाई का दस्तावेज था। एसपी ने उस रात के अपने इस न्यूज बुलेटिन में इसी सच्चाई को तार तार किया, जार जार किया और बुलेटिन जैसे ही तैयार हुआ, एसपी ने बार बार देखा। फिर धार धार रोए। जो लोग एसपी को नजदीक से जानते थे, वे जानते थे कि एसपी बहुत संवेदनशील हैं, मगर इतने...?
दरअसल, एसपी के दिमाग की नस फट गई थी। जिन लोगों ने शुक्रवार के दिन ‘बॉर्डर’ देखने ‘उपहार’ में आए बच्चों की मौत के मातम भरे मंजर को समर्पित शनिवार के उस आजतक को देखा है, उन्होंने चौदह साल बाद भी आजतक उस जैसा कोई भी न्यूज बुलेटिन नहीं देखा होगा, यह अपना दावा है। और यह भी लगता है कि हृदय विदारक शब्द भी असल में उसी न्यूज बुलेटिन के लिए बना होगा। एसपी की पूरी टीम ने जो खबरें बुनीं, एसपी ने उन्हें करीने से संवारा। मुंबई से खास तौर से ‘बॉर्डर’ के गीत मंगाए। उन्हें भी उस बुलेटिन में एसपी ने भरा। धू – धू करती आग, जलते मासूम, बिलखते बच्चे, रोते परिजन, कराहते घायल, सम्हालते सैनिक, और मौन मूक प्रशासन को परदे पर लाकर पार्श्व में ‘संदेसे आते हैं...’ की धुन एसपी ने इस तरह सजाई गई कि क्रूर से क्रूर मन को भी अंदर तक झकझोर दे। तो फिर एसपी तो भीतर तक बहुत संवेदनशील थे। कोई बात दिमाग में अटक गई। यह न्यूज बुलेटिन नहीं, आधे घंटे की पूरी डॉक्यूमेंट्री थी। और यही डॉक्यूमेंट्रीनुमा न्यूज बुलेटिन एसपी के दिमाग की नस को फाड़ने में कामयाब हो गया।
जिंदगी से लड़ने का जोरदार जज्बा रखनेवाले एसपी अस्पताल में पूरे तेरह दिन तक उससे जूझते रहे। मगर जिंदगी की जंग में आखिर हार गए। सरकारी तंत्र की उलझनभरी गलियों में अपने स्वार्थ की तलाश करनेवालों का असली चेहरा दुनिया के सामने पेश करनेवाले अपने आखरी न्यूज बुलेटिन के बाद एसपी भी आखिर थक गए। बुलेटिन देखकर अपने दिमाग की नस फड़वाने के बाद तेरह दिन आराम किया और फिर विदाई ले ली। पहले राजनीति की फिर पत्रकारिता में आए एसपी ने 3 दिसंबर 1948 को जन्मने के बाद गाजीपुर में चौथी तक पढ़ाई की। फिर कलकत्ता में रहे। 1964 में बीए के बाद राजनीति में आए, पर खुद को खपा नहीं पाए। सो, 1970 में कलकत्ता में खुद के नामवाले सुरेंद्र नाथ कॉलेज में लेक्चररी भी की। पर, मामला जमा नहीं। दो साल बाद ही ‘धर्मयुग’ प्रशिक्षु उप संपादक का काम शुरू किया। फिर तो, रुके ही नहीं। रविवार, नवभारत टाइम्स और टेलीग्राफ होते हुए टीवी टुडे आए। और यहीं आधे घंटे का न्यूज बुलेटिन शुरू करने का पराक्रम किया, जो उनसे पहले इस देश में और कोई नहीं कर पाया। वे कालजयी हो गए। कालजयी इसलिए, क्योंकि दृश्य खबरों के संसार का जो ताना बाना उनने इस देश में बुना, उनसे पहले और उनके बाद और कोई नहीं बुन पाया।
टेलीविजन खबरों के पेश करने का अंदाज बदलकर एसपी ने देश को एक आदत सी डाल दी थी। आदत से मजबूर उन लोगों में अपने जैसे करोड़ों लोग और भी थे। लेकिन मीडिया में अपन खुद को खुशनसीब इसलिए मानते हैं, क्योंकि अपन एसपी के साथ जब काम कर रहे थे, तो उनके चहेते हुआ करते थे। अपन इसे अपने लिए गौरव मानते रहे हैं। एसपी जब टेलीविजन के काम में बहुत गहरे तक डूब गए थे, तो उनने एक बार अपन से कहा था जो वे अकसर कईयों को कहा करते थे – ‘यह जो टेलीविजन है ना, प्रिंट मीडिया के मुकाबले आपको जितना देता है, उसके मुकाबले आपसे कई गुना ज्यादा वसूलता है।’ एसपी ने बिल्कुल सही कहा था। टेलीविजन ने एसपी को शोहरत और शाबासी बख्शी, तो उसकी कीमत भी वसूली। और, यह कीमत एसपी को अपनी जिंदगी देकर चुकानी पड़ी। मगर आपने तो आखरी बार भी यही कहा था एसपी कि - ‘जिंदगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है।’ पर, जिंदगी तो थम गई। मगर खबरें अभी और भी हैं जो आज भी खबर हो जाने के लिए एसपी का इंतजार कर रही हैं.
जिंदगी से लड़ने का जोरदार जज्बा रखनेवाले एसपी अस्पताल में पूरे तेरह दिन तक उससे जूझते रहे। मगर जिंदगी की जंग में आखिर हार गए। सरकारी तंत्र की उलझनभरी गलियों में अपने स्वार्थ की तलाश करनेवालों का असली चेहरा दुनिया के सामने पेश करनेवाले अपने आखरी न्यूज बुलेटिन के बाद एसपी भी आखिर थक गए। बुलेटिन देखकर अपने दिमाग की नस फड़वाने के बाद तेरह दिन आराम किया और फिर विदाई ले ली। पहले राजनीति की फिर पत्रकारिता में आए एसपी ने 3 दिसंबर 1948 को जन्मने के बाद गाजीपुर में चौथी तक पढ़ाई की। फिर कलकत्ता में रहे। 1964 में बीए के बाद राजनीति में आए, पर खुद को खपा नहीं पाए। सो, 1970 में कलकत्ता में खुद के नामवाले सुरेंद्र नाथ कॉलेज में लेक्चररी भी की। पर, मामला जमा नहीं। दो साल बाद ही ‘धर्मयुग’ प्रशिक्षु उप संपादक का काम शुरू किया। फिर तो, रुके ही नहीं। रविवार, नवभारत टाइम्स और टेलीग्राफ होते हुए टीवी टुडे आए। और यहीं आधे घंटे का न्यूज बुलेटिन शुरू करने का पराक्रम किया, जो उनसे पहले इस देश में और कोई नहीं कर पाया। वे कालजयी हो गए। कालजयी इसलिए, क्योंकि दृश्य खबरों के संसार का जो ताना बाना उनने इस देश में बुना, उनसे पहले और उनके बाद और कोई नहीं बुन पाया।
टेलीविजन खबरों के पेश करने का अंदाज बदलकर एसपी ने देश को एक आदत सी डाल दी थी। आदत से मजबूर उन लोगों में अपने जैसे करोड़ों लोग और भी थे। लेकिन मीडिया में अपन खुद को खुशनसीब इसलिए मानते हैं, क्योंकि अपन एसपी के साथ जब काम कर रहे थे, तो उनके चहेते हुआ करते थे। अपन इसे अपने लिए गौरव मानते रहे हैं। एसपी जब टेलीविजन के काम में बहुत गहरे तक डूब गए थे, तो उनने एक बार अपन से कहा था जो वे अकसर कईयों को कहा करते थे – ‘यह जो टेलीविजन है ना, प्रिंट मीडिया के मुकाबले आपको जितना देता है, उसके मुकाबले आपसे कई गुना ज्यादा वसूलता है।’ एसपी ने बिल्कुल सही कहा था। टेलीविजन ने एसपी को शोहरत और शाबासी बख्शी, तो उसकी कीमत भी वसूली। और, यह कीमत एसपी को अपनी जिंदगी देकर चुकानी पड़ी। मगर आपने तो आखरी बार भी यही कहा था एसपी कि - ‘जिंदगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है।’ पर, जिंदगी तो थम गई। मगर खबरें अभी और भी हैं जो आज भी खबर हो जाने के लिए एसपी का इंतजार कर रही हैं.
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