चेलों ने एसपी को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया
: इंटरव्यू - विष्णु नागर (वरिष्ठ पत्रकार - साहित्यकार) : भाग दो : एसपी सिंह को बहुत ज्यादा हाइप दिया गया : कुछ लोग संगठित ढंग से रघुवीर सहाय के महत्व को कम आंक कर एसपी की इमेज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते रहे : एसपी की शिष्य मंडली बहुत बड़ी थी, जो रघुवीर सहाय ने क्रियेट नहीं की : 'रविवार' ने ओरिजनल पत्रकारिता नहीं की, 'दिनमान' और 'धर्मयुग' का मिश्रण था 'रविवार' : धर्मवीर भारती का आतंक हुआ करता था, लेकिन एसपी उनसे नहीं डरते थे : रघुवीर सहाय में उनके अपने बहुत आग्रह भी थे : विद्यानिवास मिश्र और अजय उपाध्याय का कार्यकाल मेरे लिए अच्छा नहीं रहा : विद्यानिवास जी ने हम जैसे कई लोगों को बिल्कुल किनारे लगा दिया : अजय उपाध्याय उलझे-उलझे आदमी लगे, उनके अंदर सुलझापन नहीं था : मुझे बड़ा पत्रकार माने या ना मानें, लेकिन लेखक ना मानें तो बुरा लगेगा : मुझे बौद्धिक खुराक अंग्रेजी से मिलती है : बहुत गरीबी देखी थी, तो स्थिरता की इच्छा मन में हमेशा रही : इस दौर में जीने के लिए किसी न किसी लेवल पर क्रियेटिव होना पड़ेगा : विभूति नारायण राय जैसे समझदार आदमी को किसी के बारे में अभद्र टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी : पत्रकारिता और लेखन, दोनों क्षेत्र में संजय खाती व संजय कुंदन अच्छा काम कर रहे : अंग्रेजी ब्लॉगों में वैविध्य ज्यादा है, हिन्दी में गाली-गलौज काफी है : बड़े अखबार और पत्रिकाएं पूर्ण रूप से व्यावसायिक हो गई हैं, इनमें मिशनरी ढंग से काम करना मुश्किल है : हिन्दी के साधारण लोगों से हिन्दी के न्यूज चैनलों का कोई संबंध नहीं है : अब मैं देखता हूं कि हिन्दी के अखबारों में गरीबों के खिलाफ तमाम खबरें छपती हैं : घर का आपको सपोर्ट न हो, पत्नी का सपोर्ट ना हो तो आप कुछ नहीं कर सकते : मैं कुछ मामलों में जिद्दी हो चला हूं, व्यावहारिक तौर पर इतना जिद्दी होना ठीक नहीं है :
-पत्रकारिता में कभी ऐसा क्षण आया जब लगा हो कि इससे ज्यादा खुशी नहीं मिल सकती है या कोई अन्य अच्छी याद?
--जब मैं दुबारा दिल्ली वापस आया तो कुछ समय बाद रघुवीर सहाय बांग्लादेश के युद्ध को कवर करने के बाद लौट आए थे. उनसे मिला फ्रीलांसिंग के लिए तो उन्होंने कक्षा पांच या छह की सामाजिक विज्ञान की किताब देख कर पता करने को कहा कि उसमें सामाजिक विज्ञान के नाम पर क्या कुछ पढ़ाया जा रहा है. उन दिनों 'दिनमान' का मन पर इतना डर था कि इसके योग्य मैं लिख सकता हूं, इसकी कल्पना करना ही मुश्किल था. मेरे लिए यह पहला एसाइनमेंट था, इसलिए बहुत चैलेंजिंग था. मेरे पसीने छूट गए. मैंने बहुत धीरज से नोट लिये. काफी मेहनत करने के बाद एक पीस बनाकर रघुवीर सहाय जी को दे दिया. उन्होंने रख लिया. काफी समय तक जब वो 'दिनमान' में नहीं छपा तो मैं परेशान हो गया. मेहनत बेकार होती दिखने लगी. वैसे भी ऐसी चीजें- जिनका सामयिक महत्व नहीं होता, साप्ताहिक में तभी लगती हैं, जब जगह हो. हालांकि इस दौरान मैं लगातार 'दिनमान' के कार्यालय जाता रहा. उस जमाने में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और नेत्र सिंह रावत रोज ही कनॉट प्लेस जाते थे. इनके साथ मैं भी पैदल चल देता था.
इसी बीच एक दिन मेरा वह पीस लग गया. इन दोनों ने अभी ताजा-ताजा ही पढ़ा था. सर्वेश्वरजी और रावतजी ने मुलाकात होते ही कहा- विष्णु, तुम्हारी टिप्पणी बहुत अच्छी है. उन दिनों नेत्र सिंह रावत मुझे ज्यादा नहीं जानते थे. उन्होंने मुझसे पूछा- क्या तुम अमृत लाल नागर के लड़के हो? मैंने उनसे कहा कि मैं अमृत लाल नागर को उतना ही जानता हूं, जितना आप जानते हैं. अमृत नागर जी का लिखा तो मैंने पढ़ा है, लेकिन लखनऊ से मेरा कभी कोई वास्ता नहीं रहा है. वैसे बाद में भी कई बार इस सवाल का सामना मुझे करना पड़ा. रघुवीर सहाय जी ने भी टिप्पणी की बहुत प्रशंसा की, तब मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उस समय इस तरह की टिप्पणियां बिना नाम के ही ज्यादा छपती थी. टिप्पणी में मेरा नाम नहीं था, लेकिन इस टिप्पणी का दिनमान में प्रकाशित होना ही मेरे लिए बहुत बड़ा पुरस्कार था. इस घटना ने मुझे बहुत प्रेरित किया. इसके बाद मैंने कई टिप्पणियां रघुवीर जी के रहते लिखीं.
इसी बीच एक दिन मेरा वह पीस लग गया. इन दोनों ने अभी ताजा-ताजा ही पढ़ा था. सर्वेश्वरजी और रावतजी ने मुलाकात होते ही कहा- विष्णु, तुम्हारी टिप्पणी बहुत अच्छी है. उन दिनों नेत्र सिंह रावत मुझे ज्यादा नहीं जानते थे. उन्होंने मुझसे पूछा- क्या तुम अमृत लाल नागर के लड़के हो? मैंने उनसे कहा कि मैं अमृत लाल नागर को उतना ही जानता हूं, जितना आप जानते हैं. अमृत नागर जी का लिखा तो मैंने पढ़ा है, लेकिन लखनऊ से मेरा कभी कोई वास्ता नहीं रहा है. वैसे बाद में भी कई बार इस सवाल का सामना मुझे करना पड़ा. रघुवीर सहाय जी ने भी टिप्पणी की बहुत प्रशंसा की, तब मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उस समय इस तरह की टिप्पणियां बिना नाम के ही ज्यादा छपती थी. टिप्पणी में मेरा नाम नहीं था, लेकिन इस टिप्पणी का दिनमान में प्रकाशित होना ही मेरे लिए बहुत बड़ा पुरस्कार था. इस घटना ने मुझे बहुत प्रेरित किया. इसके बाद मैंने कई टिप्पणियां रघुवीर जी के रहते लिखीं.
-कहां से और किससे आपने पत्रकारिता की बारीकियां तथा संस्कार सीखी?
--मैं अपने आपको रघुवीर सहाय के स्कूल का पत्रकार और लेखक मानता हूं. एक बार की घटना है. कई टिप्पणियां प्रकाशित होने के बाद एक बार मैं रघुवीर सहाय के पास गया. मैंने उनसे कहा कि मुझे कोई नया विषय बताइए. उन्होंने मुझे डांट दिया. इसके बाद उन्होंने जो कहा वो मेरे लिए प्रेरणा का विषय बन गया. रघुवीर सहाय जी ने कहा- ''विष्णु जी, आप युवा आदमी हो, आप बसों में जाते हो, आप जिंदगी को चारो ओर देखते हो, युवा हो, आपको खुद विषय नहीं सूझते? मैं ही आपको विषय कब तक बताता रहूंगा. रघुवीर सहाय ने ही मुझे सिखाया कि कैसे ऐसे विषयों पर, जिस पर सामान्यतया आम पत्रकारों की नजर नहीं जाती, लिखा जाय. इसके बाद मैंने ऐसी कई टिप्पणियां दिनमान में लिखीं. जब नवभारत टाइम्स में राजेन्द माथुर आ गए थे, उन्होंने संपादकीय पेज पर आठवां कॉलम शुरू किया, तो वहां भी लगभग हर सप्ताह इसी तरह की टिप्पणियां लिखीं.
-आपके पत्रकारीय जीवन का सबसे अच्छा समय कौन सा रहा?
--जब मैंने दिनमान में लिखा. राजेन्द्र माथुर जी के साथ काम किया और उसमें खूब लिखा. शुरू में तब मैं नवभारत टाइम्स में स्टॉफ करेस्पॉडेंट था, लेकिन मुझे माथुर साहब ने संपादकीय पेज की जिम्मेदारियां दी थी. चिट्ठियों के कॉलम की जिम्मेदारी पूरी तरह मेरी थी. मैं समझता हूं कि मैंने इस कॉलम को जीवंत बना दिया था. मुझे याद है, एक बार एक महिला, जिनका नाम शायद सरोज जैन, परेशानियों से तंग आकर एक चिट्ठी लिखी. यह विचलित करने वाला पत्र था. इसे मैंने छाप दिया. शीर्षक शायद यह था- क्या मुझे कोठे पर बैठना होगा? किसी ने माथुर साहब से मेरी शिकायत कर दी कि क्या अखबार में यही छपेगा? माथुर साहब ने इसे तब तक पढ़ा नहीं था. मुझसे मुलाकात हुई तो मुझ पर नाराज हो गए. कहा कि यह सब क्या आप छापते रहते हैं? मैंने उनसे पूछा- आपने पढ़ा भी है उस पत्र को? उन्होंने कहा- नहीं. मैंने कहा- पहले पढ़ लीजिए, फिर कहेंगे कि खराब है तो मैं मान लूंगा. उन्होंने उसको पढ़ा और आकर मुझसे कहा- सॉरी, मेरा परसेप्शन गलत था. इस मामले में लोगों की खूब चिट्ठियां आईं. लोगों ने पत्र भेजने वाली महिला की खूब मदद भी की. महिला की तरफ से अखबार को धन्यवाद का पत्र भी शायद आया था .
माथुर साहब कामरेड टाइप आदमी थे. वामपंथी नहीं थे. लेकिन अपने साथियों के साथ उनका व्यवहार बहुत डेमोक्रेटिक होता था. बॉसिज्म उनके अंदर नहीं था. यह पत्रकार का सबसे अच्छा गुण होता है. वे बड़े या छोटे का विचार किये बिना किसी के पास आकर बैठ जाते थे. मेरे पास भी आकर बैठ जाते थे. कई बार ऐसा होता था कि वो सुबह आये और देखा कि सुबह के शिफ्ट में अभी तक कोई आदमी नहीं आया है तो खुद ही सारे तार उठा लेते थे, और काम करने लग जाते थे, कोई संपादक ऐसा नहीं करेगा. मैं भी उनकी जगह होता तो मेरे अंदर भी इतनी ब्यूरोक्रेसी होती कि मैं शायद खुद भी यह काम नहीं करता. लेकिन माथुर जी ऐसा करते थे. लोगों के साथ व्यवहारिक रहते थे. साथ काम करने वालों से तथा बाहर के भी सभी सोचने-समझने वालों से उनका साम्यवाद रहता था. वे बहस करते थे. आप उन्हें जवाब में कुछ कह दें तो बुरा नहीं मानते थे. रघुवीर सहाय जी में भी ऐसी बातें थीं.
एक और घटना याद है. एक सैनिक ने पत्र लिखा- साहब मैं सेना में तो इसलिए आया था कि मैं देश सेवा करुंगा, देश के लिए लड़ूंगा, पर यहां तो साहब के जूते साफ करने पड़ते हैं, मेमसाहब के कपड़े साफ करने पड़ते हैं. चिट्ठी में इस तरह की कई बातें लिखी थी. मैंने इसे छाप दिया. इसके बाद सेना के जवानों के बहुत से पत्र इस तरह के आने लगे. एक तरह से सिलसिला चल पड़ा. इस तरह सेना के भीतर से काफी असंतोष सामने आने लगा. बाद मुझे रिपोर्टिंग के काफी मौके मिले. जब भोपाल गैस कांड हुआ तो उसकी रिपोर्टिंग के लिए मुझे भेजा गया. पंजाब में आतंकवाद की रिपोर्टिंग के लिए मैं गया. मैंने रिस्क कवर की कोई मांग नहीं की थी. लेकिन माथुर साहब ने उस जमाने में मुझे कंपनी से एक लाख रुपये का रिस्क कवर दिलवाया. राजेन्द्र माथुर की अचानक मौत बहुत से लोगों के लिए बहुत बड़ा सदमा था. मेरे लिए भी बहुत बड़ी क्षति थी. इसके बाद कादम्बिनी के संपादन के संपादन का प्रभार मुझे मिला, वह जीवन का सुखद अनुभव था. नई दुनिया में भी लिखने का बहुत अवसर मिला. यहां कई महीने तक प्रतिदिन का स्तम्भ लिखा.
-अपने पत्रकारीय जीवन के तीन बेस्ट एडिटरों के नाम बताइये.
-मैं फिलहाल तो दो लोगों के ही नाम लूंगा. रघुवीर सहाय और राजेंद्र माथुर. रघुवीर सहाय, जिनकी कवि के रूप में बहुत ज्यादा ख्याति है इसलिए लोग उनके संपादक पक्ष को दबा देते हैं. हिन्दी में एक सबसे बुरी बात यह है कि यहां माना जाता है कि जो लेखक है, वो अच्छा पत्रकार नहीं हो सकता या पत्रकार हो ही नहीं सकता. यह एक भ्रांत धारणा काफी समय से चली आ रही है, जबकि आप देखिए तो हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की शुरुआत से ही साहित्यकार पत्रकारिता से जुड़े रहे है. हिन्दी का साप्ताहिक धर्मयुग की सफलता एक साहित्यकार के कारण ही संभव हुई. उस जमाने में धर्मयुग सबसे लोकप्रिय था. न सिर्फ लोकप्रिय बल्कि बौद्धिक-रचनात्मक रूप से भी बेहतर था. धर्मवीर भारती, जो बुनियादी रूप से साहित्यकार थे, ने धर्मयुग को कामर्शियली सक्सेस बनाकर दिखाया. अज्ञेय जी ने दिनमान की जैसी शुरुआत की, जिसमें मनोहर श्याम जोशी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, प्रयाग शुक्ल, श्रीकांत वर्मा जैसे लोग जुड़े, इसका उस समय अपना महत्व था. इस साप्ताहिक की तब तक एक अलग पहचान और अलग जगह रही, जब तक रघुवीर सहाय दिनमान में रहे. इसका जो एक बौद्धिक स्तर था वह बाद में किसी व्यवसायिक साप्ताहिक का नहीं रहा. फिल्म जगत, समकालीन कला में क्या हो रहा है, इसकी जानकारी देने का चलन दिनमान ने शुरू किया. फिल्म और कला समीक्षा की भाषा इसी ने दी. दिनमान ने तमाम ऐसे इश्यू उठाये, जिन्हें उस जमाने के अखबार उठाने की सोच भी नहीं सकते थे.
दिनमान में पाठक प्रतियोगिता होती थी. एक बार प्राथमिक स्कूलों की दशा के बारे में पाठकों से पूछा गया था. इसमें ढेरो पत्र आते थे, तीन पत्रों को पुरस्कृत किया जाता था. स्कूल की दशा वाले मामले में ग्रामीण क्षेत्रों से तमाम पत्र आए, जिससे हम लोगों को पहली बार पता लगा कि इन क्षेत्रों में स्कूलों की दशा क्या है? यह पहली बार विषय बना. दिनमान में जमीन से जुड़ी तमाम खबरें आती थीं. पटना में आई बाढ़ पर फणीश्वर नाथ रेणु ने जो रिपोर्ट दिनमान में लिख दी, वैसी क्या कोई रिपोर्टर लिख सकता था? दिनमान ने ऐसे रिपोर्टों के लिए बड़ी जमीन तैयार की. ढेर सार काम किया है. बाद में रविवार ने भी काम किया लेकिन उसमें कोई ओरिजनलिटी नहीं थी. वह दिनमान और धर्मयुग का मिश्रण था. कुछ लोग संगठित ढंग से रघुवीर जी के महत्व को कम आंक कर एसपी सिंह की इमेज को ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते रहे. मैं एसपी सिंह का विरोधी नहीं हूं, उनका मित्र रहा हूं. पर गुट बनाकर किसी के महिमामंडन का मैं विरोधी हूं. रघुवीर सहाय ने कभी अपना गुट नहीं बनाया. इसलिए उनकी पत्रकारिता के महत्व को कम आंकने की कोशिशें हुई हैं.
दूसरा मैं राजेन्द्र माथुर को बेस्ट संपादक मानता हूं. उन्हें अपने छात्र जीवन से पढ़ता रहा क्योंकि मैं उस इलाके का हूं, जहां से नई दुनिया शुरू से निकलता है. इंदौर से नई दुनिया का प्रकाशन शुरू हुआ था. उससे राजेंद्र माथुर आरम्भ से जुड़े थे. उनको मैं बहुत शुरू से पढ़ता रहा. मुझे अब भी याद है उनके कॉलम जिनमें अंतराष्ट्रीय स्थितियों के बारे में काफी कुछ पढ़ने को मिलता था. इस कॉलम के माध्यम से से हमने पहली बार ठीक से जाना कि दुनिया में क्या कुछ हो रहा है. छोटे कस्बे के हम लोग, मध्य प्रदेश के बाहर क्या-क्या हो रहा है दुनिया में, इसके बारे में नहीं जानते थे. बाकी सभी अखबार मध्य प्रदेश की खबरों से ही लदे रहते थे. इसलिए उत्तर प्रदेश में क्या है या बिहार में क्या है, इसकी भी ठीक से जानकारी लोगों को नहीं हो पाती थी, लेकिन राजेन्द्र माथुर ने देश-विदेशों के बारे में लोगों को विश्लेषण उपलब्ध करवाया. अफ्रीका में क्या हो रहा है, रूस में क्या हो रहा है, हमारे यहां क्या हो रहा है, इसका हमारे ऊपर क्या प्रभाव पड़ रहा है, इसकी जानकारी उपलब्ध कराई. ऐसी बातों को जानना बेहद जरूरी है, इसका एहसास करवाया. मेरे जैसे व्यक्ति को ऐसा पहली बार एहसास हुआ. उस जमाने में उन्होंने दो व्यंग्य कॉलम शुरू करवाये थे, जिनमें हरिशंकर परसाई और शरद जोशी दोनों लिखा करते थे. दोनों को बड़े आदर के साथ पढ़ा जाता था. ऐसी और कई चीजें हैं, कई नई बातें हैं जो उन्होंने संभव कीं. उन्होंने ही नई दुनिया में विदेशी कविता का एक कॉलम शुरू करवाया था. सरोज जैन इंदौर के एक कवि हैं, रोज वे व्यंग्यात्मक कविताएं लिखते थे, स्थानीय, सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों पर.
राजेंद्र माथुर ने इस धारणा को नवभारत टाइम्स में आकर और भी पुख्ता किया कि जरूरी नहीं है कि आप संपादक के मत से सहमत ही हों. आज तो हमको ये बहुत सामान्य बात लगती है, लेकिन उस जमाने में सामान्य तौर पर हिन्दी के अखबार में वही व्यू छपता था, जो संपादक का होता था. संपादकीय पृष्ठ में वही छपता था जो संपादक के मत मुताबिक होता था. कुल मिलाकर कांग्रेस के पक्ष में ही ज्यादा छपता था. राजेन्द्र माथुर ने इस परिपाटी को बदला. इस मिथक को तोड़ा. नवभारत टाइम्स में तब सब तरह के लोगों के लिए लिखने की आजादी थी. संपादकीय पृष्ठ संघी, वामपंथी, कांग्रेसी, समाजवादी सभी के लिए खुला.
इसी प्रसंग में एक बात याद आती है कि एक बार मैंने किसी लेख में बीजेपी को फासिस्ट लिख दिया. वो लेख छप गया. माथुर साहब ने उसको अगले दिन पढ़ा तो काफी नाराज हुए. मुझसे तो उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन दूसरे मित्रों से पता चला कि बहुत नाराज थे. उन्होंने कहा कि विष्णु नागर को मालूम भी है कि फासिज्म होता क्या है, लिख दिया? लेकिन इस वजह से कभी उन्होंने मेरे लिखने पर रोक नहीं लगाई बल्कि उन्हें अच्छा लगता था मेरा लिखा. राजकिशोर समाजवादी मत के थे, सूर्यकांत बाली संघी मत के थे, उन्होंने सभी लोगों को ओपेन स्पेस दिया. इसी वजह से नवभारत टाइम्स के संपादकीय पृष्ठ का महत्व बना. माथुर साहब खुद बहुत अच्छे संपादकीय लेखक थे. अगर मान लीजिए उन्हें किसी साथी का लिखा संपादकीय पसंद नहीं आया तो उसी पन्ने के पीठ पर उसे फिर से लिखना शुरू कर देते थे.
यही कारण था कि उस जमाने में किसी हिन्दी अखबार की पूछ पहली बार सत्ता के प्रतिष्ठान में भी होने लगी थी. नवभारत टाइम्स क्या कहता है- इसे पूछा जाने लगा था, जबकि हिन्दी के अखबार की सत्ता प्रतिष्ठान में आज भी बहुत पूछ नहीं है. माथुर साहब की संपादकीय सोच से ही सत्ता प्रतिष्ठान में नवभारत टाइम्स की पूछ बढ़ी. बौद्धिक वर्ग भी उसे पढ़ता था, चाहे वो माथुर साहब की नीतियों से भले असमत रहा हो.
मुझे याद है कि भारत भवन को लेकर कुछ विवाद था. अशोक वाजपेयी उस वक्त भारत भवन से जुड़े थे. माथुर साहब के अशोक वाजपेयी से संबंधों को देखते हुए मैंने सोचा कि माथुर साहब तो इस बारे में छापेंगे नहीं, इसलिए विवाद जनसत्ता में शुरू हुआ. मैंने भी वहां लिखा. अगले दिन जनसत्ता में देखकर माथुर साहब ने पूछा- आपने अपने यहां क्यों नहीं लिखा? मैंने कहा- मुझे लगा कि आप शायद छापना नहीं चाहेंगे. तब माथुर साहब ने कहा- ऐसी बात नहीं है, आप लाते तो मैं जरूर छापता. व्यक्तिगत संबंधों के बावजूद उनके मन में खबरों को लेकर खुलापन था. जैसा मैंने कहा कि वे बहुत ही डेमोक्रेटिक आदमी थे, उनकी जानकारी की दुनिया विविध थी. रघुवीर सहाय भी ऐसे ही संपादक थे.
मुझे याद है कि एक बार मैं इंदौर गया तब माथुर साहब नई दुनिया में थे. वे हमारे और उनके मित्र सोमदत्त से मिलने आए हुए थे. सोमदत्त वहां वेटेनरी विभाग में डिप्टी डाइरेक्टर थे. सोमदत्त बता रहे थे कि कैसे गाय या जानवरों को काटने की प्रक्रिया पूरी होती है. माथुर साहब बहुत ध्यान से सुन रहे थे और सवाल कर रहे थे. ऐसे ही एक बार मुझे इब्बार रब्बी ने बताया कि माथुर साहब अलीगढ़ जाना था तो माथुर साहब ने भूषण और इस तरह के मध्यकालीन कवियों पर बात विस्तार से की. हिन्दी साहित्य में भी उनकी काफी दिलचस्पी थी. वे कभी गीत लिखा करते थे. इतिहास के बारे में भी उनकी काफी अच्छी समझ थी. एक पत्रकार वो ही संपूर्ण है जो तमाम तरह के विषयों में दिलचस्पी रखता हो, जो अपने दिमाग को बंद नहीं रखता. ये सिर्फ दो ही पत्रकार मुझे बेहतर संपादक लगते हैं. और बाकी के लिए मेरे मन में वह सम्मान नहीं है. इसे मेरा अज्ञान या मेरे लेखक होने की सीमा माना जाय, या मेरा दुराग्रह या पूर्वाग्रह हो, माना जाय, ऐसा माना जाय तो माना जाय. दूसरे को पूर्वाग्रह या दुराग्रह होते हैं तो मेरे को क्यों नहीं हो सकते?
-ऐसा कहा जाता है कि एसपी सिंह ने पत्रकारिता को साहित्यकारों के चंगुल से मुक्त कराया था.
--अगर एसपी सिंह की बात कहूं तो मैं उनका मित्र रहा हूं. वो मेरे अच्छे मित्र थे. जब वो धर्मयुग में सब एडिटर हुआ करते थे और मैं ट्रेनी के रूप में वहां आया था. वो सक्षम आदमी थे. उस जमाने में धर्मवीर भारती का आतंक था, लोग उनसे डरते थे, लेकिन एसपी धर्मवीर भारती से नहीं डरते थे. अपना काम बहुत सक्षमता से करते थे और बहुत कम समय में करते थे. आराम से घूमते-घामते थे. लोगों से मिलते-जुलते थे. टाइम्स ऑफ इंडिया में अंग्रेजी जर्नलिस्टों से अच्छी मित्रता थी, पढ़ते-लिखते रहते थे, उस रूप में मैं उन्हें जानता रहा. यहां आने के बाद जाहिर है कि वो मेरे बॉस हो गए. मेरे घर भी आए हैं दो बार.
मैं उनके सक्षम होने पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहा हूं. उन्होंने अच्छे तरीके से रविवार निकाला, लेकिन इस दौरान कुछ लोगों ने मिलकर ऐसा माहौल बनाया कि दिनमान कुछ नहीं है, जो है बस रविवार ही है, जबकि रविवार ने बहुत कुछ धर्मयुग और दिनमान से लिया. रविवार ने ओरिजनल पत्रकारिता नहीं की. यह कह सकते हैं कि रविवार आपात काल के बाद निकला था, तो उसमें आक्रामकता ज्यादा थी, लेकिन उसे मैं मौलिक पत्रकारिता नहीं मानता. हां, उसने अपने जमाने में पॉपुलर पत्रकारिता की. जब तक एसपी सिंह थे, कोई उस जमाने में रविवार पढ़े बिना नहीं रह सकता था. वो एक जरूरत बन गई थी. मैं समझता हूं कि जो बुनियादी काम किया वो दिनमान ने किया. दिनमान के कई रिपोर्ट तब भी सबसे बेहतर महसूस होती थी, हालांकि मैं एसपी के योगदान को कम करके नहीं मान रहा हूं. न्यूज चैनल आज तक उनका ही देन है, लेकिन उनको बहुत ज्यादा हाइप दिया गया, क्योंकि उनकी शिष्य मंडली बहुत बड़ी थी, जो रघुवीर सहाय ने क्रियेट नहीं की.
खैर, ये सब मूल्यांकन की बातें हैं. और एसपी सिंह नहीं रहे तो मैं उनमें कोई कमी नहीं निकालना चाहता, लेकिन ये मेरा फ्रैंक ओपीनियन है कि बुनियादी काम दिनमान ने किया. रघुवीर सहाय बड़े लेखक के अलावा कवि तो बहुत बड़े थे ही, इसके बारे में किसी को भी आज संदेह नहीं है. पर रघुवीर सहाय का दिनमान एक अलग तरह का ही दिनमान था. ऐसी पत्रकारिता ना पहले हुई थी और ना ही बाद में हो सकती है. स्थितियां बहुत बदल चुकी हैं. ठीक है रघुवीर सहाय में उनके अपने बहुत आग्रह भी थे, जैसे वे समाजवादी पृष्ठभूमि के थे तो समाजवादियों को प्रमुखता मिलती थी. झुकाव उस तरफ ज्यादा था लेकिन ये कोई दुर्गुण नहीं था. उस जमाने के तमाम अखबार कांग्रेस की चमचागिरी में लगे हुए थे. इंदिरा गांधी की चमचागिरी में लगे रहते थे. ऐसे में एक अखबार अगर विपक्ष के एक बड़े हिस्से के लिए काम कर रहा था तो कोई बुरी बात नहीं थी. अगर आप ओवरऑल देखें तो उसमें बहुत बड़ा योगदान दिनमान का था.
-जीवन में कभी अवसाद, मुश्किल या परेशानी के ऐसे क्षण कब आए जब मन व्यथित हुआ हो, मन किया हो कि पत्रकारिता छोड़ दी जाये?
--इसे अवसाद तो नहीं कहूंगा, लेकिन जब विद्यानिवास मिश्र नवभारत टाइम्स के संपादक बने तक कुछ मुश्किलें जरुर आईं. एक तो वे पत्रकार बिल्कुल नहीं थे. पत्रकारिता का ना तो उनके पास कोई प्रशिक्षण था ना ही बहुत अनुभव. उनका नाम बड़ा जरूर था. पता नहीं क्यों प्रबंधन को लगा कि एक नामी आदमी हमारा संपादक होना चाहिए. विद्यानिवास जी को पत्रकारिता की कोई समझ नहीं थी. उनके अपने आग्रह-दुराग्रह बहुत ज्यादा प्रबल थे. वे अपने हाथ से या फिर पत्नी के हाथ से बना खाना ही खाया करते थे. विदेशों में भी फल खाते थे और अपने गिलास में ही पानी पीते थे. हम लोगों को लेकर भी उनके दुराग्रह थे. मेरी पहचान लेखक और वामपंथी के रूप में थी. वामपंथी हमें कितना वामपंथी मानते हैं, यह अलग बात है, परन्तु मैं अपने को उनके (वामपंथियों के) करीब पाता रहा हूं और अब भी पाता हूं.
विद्यानिवास जी ने हम जैसे कई लोगों को बिल्कुल किनारे लगा दिया. कोई काम नहीं करवाया. साधारण से साधारण काम दूसरों से करवाए. उनके समय में मैं मानव संसाधान विकास मंत्रालय की रिपोर्टिंग करता था. शिक्षा पर कोई लेख लिखने की बात आई. किसी ने कहा कि विष्णु नागर मानव संसाधन विकास मंत्रालय देखता है, उससे लिखवा लीजिए. उन्होंने कहा कि नहीं नहीं, फलां से लिखवा लो. जिससे लिखवाने को उन्होंने कहा कि उस व्यक्ति का शिक्षा या इस तरह की बीट से कोई संबंध नहीं था. इस समय हम लोग थोड़ा निगलेक्ट फील करते थे. उनका दंभ बहुत ज्यादा था. लोग कहते थे और मुझे भी लगा कि उनके चरण न छुओ तो वो आपको रिकाग्नाइज नहीं करते थे. मैंने उनके चरण कभी नहीं छुए और ना ही मैं लोगों के चरण छूने के पक्ष में हूं.
मुझे ये भी पसंद नहीं आता कि कोई मेरे चरण छुए. मेरे मन में एक बार महाश्वेता देवी को सुनकर यह भाव जरूर पैदा हुआ कि उनके चरण छू लूं. एक बार गंगूबाई हंगल का कार्यक्रम दिल्ली के एक पार्क में हुआ था, तब भी मेरे मन में ऐसा हुआ कि उनके चरण छुऊं, लेकिन वो इतने प्रशंसकों से घिरी हुई थीं कि मुझे मौका नहीं मिला. मेरे मन में श्रद्धा पैदा होती है, तो पैर छू सकता हूं, लेकिन मैं अपने मतलब या स्वार्थ के लिए किसी का चरण नहीं छू सकता. अज्ञेय जी के प्रति भी मेरे मन में श्रद्धा थी. परन्तु चरण छूने की संस्कृति तब ऐसी नहीं थी, जैसी कि पिछले दस-पन्द्रह सालों में बनी है. चरण छूने की संस्कृति राजनीति से पत्रकारिता में भी आई है. राजनीति में जिस आदमी से काम होता है, उसके चरण छूता है. मैं ऐसा नहीं कहता कि सब स्वार्थ की वजह से ही चरण छूते हैं. पर मैं इस कांसेप्ट में विश्वास नहीं करता कि कोई मेरे चरण छुए. मुझे यह अच्छा नहीं लगता है और मैं भी किसी का पैर अकारण नहीं छू सकता. मैं मिश्र जी का पैर नहीं छूता था. उनको शायद यह बहुत अच्छा नहीं लगता था. वो मुझे रिकोग्नाइज ही नहीं करते थे. कई बार नमस्कार किया, लेकिन उन्होंने एक बार भी जवाब नहीं दिया. तब मैंने भी उन्हें नमस्कार करना बंद कर दिया.
इसके बाद जब आलोक मेहता हिन्दुस्तान से चले गये, तब अजय उपाध्याय आए. वैसे तो अजय जी ने मेरा कोई बुरा नहीं किया, लेकिन वो पीरियड भी बहुत अच्छा नहीं लगा. अजय जी को शायद एकदम बड़ी चीज मिल गई थी. वो उलझे-उलझे आदमी थे. उनके अंदर सुलझापन नहीं था. ऑफिस में किसी को बुला लिया तो वह दिन भर बैठा रहा, मिलते ही नहीं थे उससे. कहते समय नहीं मिला, कल आओ. कल भी वो आ रहा है, लेकिन वे मिल नहीं रहे हैं. हालांकि उनका व्यवहार मेरे प्रति कभी असमान्यजनक नहीं रहा. मैं यह कहूंगा कि वो बहुत उत्साहजनक समय नहीं था, परन्तु बहुत निराश करने वाला समय था, ऐसा भी नहीं है. माहौल ऐसा था, ठीक है आइए, काम करिए और चले जाइए. पर बहुत बुरा समय वो भी नहीं था. हां एक बार जरूर लगा कि अब अखबार छोड़ दिया जाना चाहिए लेकिन टिक गए तो टिक ही गए.
-आप अपना कौन सा पलड़ा भारी पाते हैं, साहित्यकार का या पत्रकार का?
--मुझे अच्छा लगता है कि मुख्य रूप से मुझे लोग लेखक मानते हैं, क्योंकि वो मैं हूं. मुझे कोई बहुत बड़ा पत्रकार माने या ना माने बुरा नहीं लगेगा, लेकिन लेखक ना माने तो मुझे बुरा लगेगा. कोई मेरे इस पक्ष के प्रबल होने के नाते लेखक के रूप में रिकोग्नाइज करे तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है. अच्छा ही लगेगा. मैं एक लेखक हूं. मेरी मुख्य रूप से पहचान एक लेखक के रूप में, एक कवि के रूप में, शायद एक व्यंग्यकार के रूप में भी है और कुछ कहानीकार के रूप में भी. लेकिन मेरी चार किताबें, जिसमें मैंने पत्रकारिता संबंधित लेखन किया, संतुष्टि देती हैं. 'हमें देखतीं आंखें' पत्रकारिता में मेरी पहली किताब थी. 'यथार्थ की माया' मेरी दूसरी किताब थी. एक या दो किताबें संडे नई दुनिया के कॉलम में छपे मेरे लेखों से बन सकती है. मुझे जो तमाम फीडबैक मिला है, वो अच्छा ही रहा है.
-आपको फिल्म देखने का शौक है, क्या फिल्में अभी भी देखते हैं?
--हां हम पति-पत्नी फिल्में देखतें हैं. परन्तु बहुत नियमित नहीं देखते. अभी पिछले दिनों 'उड़ान' और 'खट्टा-मीठा' देखी थी. मेरी फिल्म इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे से फिल्म एप्रीसिएशन कोर्स करने की इच्छा भी है ताकि दुनिया की कुछ अच्छी फिल्में एकग्र होकर देखने का मौका मिले. अभी कुछ समय पहले भोपाल गया था, वहां इंस्टीट्यूट के छात्रों की डिप्लोमा फिल्में देखी थीं.
-आपने संघर्ष भी देखा है, मुश्किल दौर भी देखा, खुशियां भी देखीं है, अभी आपकी क्या-क्या इच्छाएं बाकी है?
- जैसा मैंने कहा कि मेरी एक इच्छा फिल्म एप्रीसिएशन कोर्स करने की है. इसके बहाने दुनिया की जो महानतम फिल्में है, वो लगातार देखने की इच्छा है. इस मीडियम को अच्छी तरह समझने की इच्छा है. एक और इच्छा वर्षों से है, वो पता नहीं कब पूरी होगी. इस पर मैंने हिन्दुस्तान में रहने के दौरान काफी काम किया था. 15-16 किस्तें इस पर लिखी थीं. पूरे देश के यातायात की मुझे बहुत ज्यादा समझ नहीं है, पर दिल्ली के यातायात को नजदीक से देखने और समझने का मौका मिला है. दिल्ली में पैदल चलने से लेकर, बस में सफर करने से लेकर, थ्री व्हीलर में चलने से लेकर, कार खुद ड्राइव करने से लेकर, ड्राइवर से चलवाने तक का थोड़ा-बहुत अंदाजा है. मैं ट्रैफिक के जरिए सामाजिक यथार्थ के बारे में लिखना चाहता हूं. मेरी इच्छा है कि मैं दिल्ली के ट्रैफिक सिस्टम और हमारे सोशियो पॉलिटिकल रियलिटी का क्या रिलेशन है, कैसे वो हमारे लिए सोशियो पॉलिटिकल रियलिटी है, इस पर लिखूं.
सच कहूं तो सोशियो पॉलिटिकल रियलटी का रिफलेक्शन ही दिल्ली का और पूरे देश का ट्रैफिक है. यह एक सार्वभौम सा नियम मान लिया गया है कि जिसके पास तेज वाहन या कार है, उसे सड़क पर चलने का सबसे ज्यादा अधिकार है. उस अधिकार को कोई चैलेंज नहीं है... जिसके पास पैसा है, वो कई-कई कारें खरीद सकता है. दस-बीस कार भी खरीद सकता है, पचास कार भी खरीद सकता है. उससे पूछने वाला कोई नहीं है, सिवाय इनकम टैक्स विभाग के. पर वो आपको रोक नहीं सकता. लेकिन दिल्ली में साइकिल रिक्शा कितने होंगे या थ्री व्हीलर कितने होंगे, ये सरकार या निगम तय करेंगे. कहां साइकिल रिक्शा चलेगा, कहां थ्री व्हीलर चलेगा, इसे आप तय करेंगे.
सारा अधिकार तेज वाहन वालों के पास है. बाकी किसी के पास अधिकार नहीं है. साइकिल को अब थोड़ा-थोड़ा रिकोग्नाइज किया जा रहा है, ऐसा लगता है लेकिन इसमें कितनी वास्तविकता है, कहना मुश्किल है. पैदल सड़क पर चलने वालों के पास चूंकि पैसे की ताकत नहीं है, इसलिए उनके लिए सभी जगह फुटपाथ नहीं बनते और बनते हैं तो उनका उपयोग वे तमाम कारणों से नहीं कर सकते. एक बड़ा, ताकतवर आदमी कार में जा रहा है, वो ज्यादा स्पेस घेर रहा है, उससे कोई सवाल नहीं करता.. आप पब्लिक ट्रांसपोर्ट को मजबूत और गरीबों के लिए उपयोगी नहीं बनायेंगे, जिससे जरुरतमंद आदमी यात्रा कर सके. पब्लिक ट्रांसपोर्ट से भी फायदा कमाने की योजना बनने लगती है. इस सिस्टम को ऐसे लोगों के हवाले कर दिया गया हैं, जो सिर्फ मुनाफा कमाना चाहते हैं. ऐसे लोगों को आम आदमी की कोई परवाह नहीं है. आम आदमी को भेड़-बकरियों की तरह ट्रीट किया जाता है. आप पैसे वाले हैं, पढ़े-लिखे हैं तो आपकी आवाज है, आप खरीद कर भी ताकत हासिल कर सकते हैं. इस पूरे सिस्टम पर मुझे एक किताब लिखने की इच्छा है.
मुझे भारतीय शास्त्रीय संगीत भी बहुत पसंद है, हालांकि राग पहचानना नहीं आता पर यह संगीत अच्छा लगता है. मुझे संगीत सुनने में आनंद आता है. भारतीय संगीत को लगातार सुनते रहने की इच्छा है. नौकरी के दौरान जो किताबें नहीं पढ़ पाया, उन्हें पढ़ने की इच्छा है. साधारण आदमी के दुख-तकलीफ को और नजदीक से जानने की इच्छा है. बहुत घूमने की इच्छा है. हम पति-पत्नी दोनों को घूमने का शौक है. हम लोगों को पैदल चलने का भी बहुत शौक है. इसके जरिये मैं बहुत सी चीजों को ज्यादा बारीकी से आब्जर्व कर पाता हूं. हम लोग पन्द्रह दिन तक देश में घूमने की योजना बना चुके हैं और जल्द ही निकल रहे हैं. धार्मिक स्थल पुरी की भी यात्रा करने वाले हैं. मेरी पत्नी धार्मिक हैं, लेकिन साम्प्रदायिक नहीं हैं. मेरी धर्म में आस्था नहीं है, लेकिन मैं उनकी आस्था का सम्मान करता हूं, वो मेरी भावना का सम्मान करती हैं. इसलिए मैं उनके साथ कई बार धार्मिक यात्राओं में भी गया हूं. धार्मिक स्थलों पर घूमने से भी साधारण लोगों को आब्जर्व करने का मौका मिलता है. जीवन के यथार्थ से जुड़ते हैं. लोगों की आस्था तथा भावनाओं के यथार्थ से रूबरू होते हैं.
-वामपंथी रुझान जो आपके स्वभाव में दिख रहा है, यह संस्कार आप के भीतर कब और कहां से डेवलप हुआ?
--पढ़ने-लिखने से, सामान्य जीवन के समझ से, वामपंथी आंदोलन के सम्पर्क में आने से. मैं साधारण आदमी हूं और उन्हीं से आइडेंटीफाई करता हूं. पत्रकार होते हुए भी लेखक होने के कारण बहुत वीआईपी बन के नहीं रह सकता. वीआईपी बन के लेखन में रहेगा तो बुनियादी रूप से लेखक नहीं रहेगा. आप इसे लेखक की पेशेगत अनिवार्यता भी कह सकते हैं. समाज के, समय के दैनिक यथार्थ से जुड़ना होगा. महिलाएं आज के समय के यथार्थ को किस तरह से देख रही हैं, दलित कैसे सोच-समझ रहे हैं, नीचे के तमाम तबकों के लोग किस तरह सोच-समझ रहे हैं, पढ़े-लिखे लोग क्या सोच रहे हैं, इसको जानने के लिए कॉमन मैन की तरह रहना, देखना जरूरी है. सक्रिय पत्रकारिता में रहा, जिस कारण संसद कवर करने का मौका मिला, सांसदों के कामकाज, तौर-तरीकों को नजदीक से देखने का मौका मिला, पीएम के साथ जाने का मौका भी मिला, विदेश जाने के भी कई अवसर मिले.
-अभी तक अपने कितने देशों की यात्रा पर प्रधानमंत्री के साथ गए हैं?
--अटल बिहारी वाजपेयी जब पाकिस्तान के ऐतिहासिक यात्रा पर गए थे, तब मैं हिन्दुस्तान में था. उस समय के कार्यकारी संपादक आलोक मेहता ने मुझे भेजा. अभी, जब मैं नई दुनिया में था, तब एक-डेढ़ साल पहले मनमोहन सिंह के साथ जापान और चीन की यात्रा पर भेजा गया था. उस यात्रा का मुख्य उद्देश्य तो आर्थिक था. मैं थोड़ी-थोड़ी दिलचस्पी सभी विषयों में रखने की कोशिश करता रहा हूं, इतनी की कवर करने का मौका आया तो मुश्किल ना आई. इसके अलावा नीतीश कुमार क्या कर रहे हैं या मायावती की पॉलिटिक्स क्या है या इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में क्या हो रहा है, जापान क्या कर रहा है, इस बारे में जानने की इच्छा रहती है. मैं साहित्यिक पुस्तकें पढ़ूं या ना पढ़ूं, लेकिन अखबार जरूर पढ़ता हूं.
मैं अखबार को दैनिक महाभारत का एक अध्याय मानता हूं. इससे दुनिया में विभिन्न स्तरों पर जो चल रहा है, उसकी तमाम जानकारियां मिलती हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया रोज पढ़ता हूं, हिन्दू और इंडियन एक्सप्रेस मुख्य रूप से. इससे काफी कुछ जानने-समझने को मिलता है. दरअसल, आपके पास कितना समय है, कितनी गहरी दिलचस्पी है, इस पर निर्भर करता है कि अखबार में आप क्या ढूंढ पाते हैं. फिल्म की दुनिया में क्या हो रहा है, इसके लिए पेज थ्री पर भी हल्का सा निगाह डाल लेता हूं. फिल्म वालों के इंटरव्यू भी पढ़ता हूं. शाहरूख खान का इंटरव्यू पढ़ना-देखना बहुत अच्छा लगा है. वह खुले ढंग से बोलता है और दिमागी रूप से दिवालिया नहीं लगता है, जबकि अमिताभ मुझे इंटरव्यू देने वाले के रूप में अच्छे नहीं लगते हैं. ऐसे लोग मुझे पसंद नहीं हैं, जो बहुत नाप-तौल कर बोलते हैं. एक बार अजय देवगन का इंटरव्यू देख रहा था. बहुत सिंसियर लगा, ऐसा लगता है वो अपनी बहुत पब्लिसिटी में विश्वास नहीं करता है, इसे जानकर अच्छा लगा. कैटरीना कैफ का भी एक इंटरव्यू पढ़ा, हालांकि मैं उसे बहुत सुंदर या अभिनेत्री के तौर पर बहुत बढि़या नहीं मानता, लेकिन उसका इंटरव्यू बहुत सेंसटिव था, अच्छा लगा था.
-आपको अपने लेखन या जानकारी के लिए बौद्धिक खुराक कहां से मिलती है, अंग्रेजी या हिन्दी से?
--अगर अखबारों की बात करें तो बौद्धिक खुराक ज्यादातर अंग्रेजी से मिलती है, लेकिन जनसत्ता भी मेरा एक प्रिय अखबार है. इसे मैं छोड़ नहीं सकता. इसका कॉलम 'दुनिया मेरे आगे' बहुत लोगों के लिए महत्वपूर्ण भले ही नहीं होगा, पर मेरे लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है. उसमें कई चीजों के बारे में बहुत अच्छे आब्जर्वेशन मिलते हैं. ब्लाग से लेकर जो सामग्री छपती है, उसमें भी कई अच्छी चीजें मिल जाती हैं. नई दुनिया लोकल कवरेज कई बार बहुत बेहतर ढंग से जमीनी सच्चाईयों को प्रस्तुत करता है. इसमें कई अच्छी जानकारियां मिल जाती हैं.
नई दुनिया में छपी एक खबर देखी जो मेट्रो एडिटर रास बिहारी ने लिखी थी कि किस तरह मेट्रो को बनाया गया है, जो अमीर इलाके हैं वहां तो मेट्रो अंडरग्राउंड है, जो अमीर इलाके नहीं है वहां मेट्रो ओवरग्राउंड या एलिवेटेड है. इससे आगे मैं जो देख पा रहा हूं, वो यह कि जो ओवर ग्राउंडेड मेट्रो है, वो भी अपेक्षाकृत समृद्धतर इलाकों से ही जाती है. वो मयूर विहार फेस वन से जा रही है, जहां पूर्वी दिल्ली के हिसाब से ज्यादातर समृद्धतम लोग रहते हैं, लेकिन मेट्रो त्रिलोकपुरी या कल्याणपुरी वालों के नजदीक से नहीं जाती. इसे कंसीव ही इस तरह किया गया है कि गरीब लोग तो इसमें ज्यादा चढ़ेंगे नहीं. ऐसी ही दूसरी खबर-किस तरह तमाम पब्लिक स्कूलों में हुआ है. गरीबों के लिए जो दस पर्सेंट आरक्षण है, उस पर अमीर वर्ग के बच्चों को कई स्कूल एडमिशन दे रहे हैं. कई बार तो माता-पिता को भी इस सच्चाई का नहीं पता होता. चुपचाप उस कोटे में बच्चों को डाल देते हैं और उनसे पूरे पैसे लेते हैं. ऐसी खबरें ज्यादातर हिन्दी के अखबारों में ही मिलती हैं. अंग्रेजी में ऐसी खबरें लगभग नहीं मिल पाती हैं. मैं अपने आपको रिन्यू करने के लिए, एक लेखक और पत्रकार के रूप में जहां तक संभव होता है, अखबारों में दिलचस्पी लेने की कोशिश करता हूं.
-अपने अंदर कौन-कौन सी बुराइयां देखते हैं?
--मेरे अंदर बुराइयां हैं. समय के साथ अच्छी-खासी बुराइयां आई है. मैं कुछ लेखक होने के भ्रम में या कुछ ये कि मेरी जिम्मेदारियां थोड़ी कम हो गई हैं, तो मैं कुछ मामलों में जिद्दी हो चला हूं. ऐसा ही होना चाहिए और ऐसा नहीं होगा तो ठीक नहीं है, ऐसा सोचने लगा हूं. व्यावहारिक तौर पर इतना जिद्दी होना ठीक नहीं है. मेरी दूसरी बुराई यह है कि मैं दैनिक एग्रेसिव नहीं हो सकता, जिसकी कई बार बहुत जरूरत होती है.
-कभी पति-पत्नी के बीच झगड़ा या मतभेद हुआ है?
--किस पति-पत्नी में झगड़ा नहीं होता, लेकिन पिछले दस-पन्द्रह सालों से हमारे बीच कोई बड़ा झगड़ा नहीं हुआ है. इस दौरान हम लोगों ने एक दूसरे को इतना ज्यादा समझा है कि हमारा अहम बीच में नहीं आया. ये कुछ कह देती हैं या कभी मैं कुछ कह देता हूं तो हम लोग एक दूसरे की वास्तविक भावना को समझ लेते हैं, शब्दों पर नहीं जाते. हम लोग के बीच इगो की भी कोई प्रॉब्लम नहीं है.
-आप पत्रकार होने के साथ लेखक भी हैं, रचनाकर्म में काफी मनन और ध्यान की जरूरत होती है, इस मामलें में आपको अपनी पत्नी का कितना सपोर्ट मिला?
--बहुत सपोर्ट मिला. देखिए घर का आपको सपोर्ट न हो, पत्नी का सपोर्ट ना हो तो आप कुछ नहीं कर सकते. पत्नी का सपोर्ट न मिलता तो मेरे जीवन में जो थोड़ी बहुत उपलब्धियां हैं, वो नहीं हो सकती थीं. घर में शांति न हो, चैन न हो, पत्नी आपके काम का समर्थन न करे तो कोई कार्य संभव नहीं है. जैसे कई बार ऐसा होता है, पत्नी मुझसे कुछ जरूरी बात करना चाहती है और मुझे लिखने का जुनून चढ़ा है, तो मैं कहता हूं कि तुम इस समय मेरे इस कमरे में ना आओ और न मुझसे बात करो, मैं कई बार घर में होते हुए भी पत्नी से बात नहीं करता, काम करता रहता हूं, ये बर्दाश्त करती रहती हैं. मेरे काम के प्रति सपोर्टिंग रहती हैं. खुद इनकी पढ़ने लिखने में दिलचस्पी है. कई किताबें जो मैंने नहीं पढ़ी है, इन्होंने उन्हें पढ़ा है. इनको पढ़ने लिखने का संस्कार भी परिवार से मिला, यहां से भी मिला, बच्चों से भी मिला.
-आपके परिवार में आप दोनों के अलावा और कितने लोग हैं यानी आपके कितने बच्चे हैं और क्या करते हैं?
--मेरे दो बेटे हैं. मेरा बड़ा बेटा अपूर्व इस समय बर्लिन में है. उसने मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च से फिजिक्स से पीएचडी किया है. उनका प्रेम विवाह हुआ है. मेरी बहू ने भी वहीं से फिजिक्स में पीएचडी किया है. दोनों पहले साउथ कोरिया गए फर्दर रिसर्च के लिए. अभी जर्मनी में हैं. वहां पिछले दो साल से रिसर्च कर रहे हैं. अगले महीने दोनों पति-पत्नी भारत लौट आयेंगे. मेरा छोटा बेटा अंकुर कम्प्यूटर इंटरनेटिंग के क्षेत्र में है. अंग्रेजी पर उसका बहुत बढि़या कमांड है. वो पहले दिल्ली में एनएनआईटी में था, कंसलटिंग एडिटर के पोस्ट पर. एडिटिंग का काम करता था. बहुत सिंसियर ढंग से काम करता था. उसके इमिडिएट बॉस खुश होकर उसे वर्ल्ड बैंक के एक प्रोजेक्ट पर चेन्नई भेज दिया. चेन्नई जाने से पहले उसने मुझसे पूछा- चेन्नई जाऊं? मैंने कहा- जरूर जाओ, तुम कुछ दिन बाहर रहो, हमेशा साथ रहे हो. अंकुर को साहित्य में भी दिलचस्पी है. बड़े बेटे अपूर्व को भी हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य में दिलचस्पी है. दोनों बेटे शौकिया ढंग से फोटोग्राफी करते हैंअपूर्व को क्लासिकल संगीत सुनने का बहुत शौक है. अपूर्व का एक बेटा है सिद्धार्थ, जो सितम्बर में एक साल का हो जायेगा.
-पत्रकारिता का जो दौर चल रहा है, उसमें बाजार के बाद अब कॉमन मैन के लिए ब्लागिंग जैसी पत्रकारिता शुरू हो गई है, इस पर कैसे सोचते हैं?
--यह मीडिया के लिए मुश्किल दौर है. कम से कम बड़े अखबार और पत्रिकाएं पूर्ण रूप से व्यावसायिक हो गई हैं. इनमें मिशनरी ढंग से काम करना, उत्साह से काम करना, बहुत मुश्किल हो गया है. स्थितियां भी ऐसी ही बना दी गई हैं. आजादी के बाद ऐसी स्थिति थी कि आपके पास थोड़े संसाधन हैं तो भी आप एक बड़ा अखबार खड़ा कर सकते थे. जैसे-देशबंधु अखबार रायपुर से निकलता है. इस अखबार के पास बहुत कम संसाधन थे. इसके मालिक बहुत पैसे वाले आदमी नहीं थे कि सब कुछ जल्द खड़ा कर दिया. साधारण आदमी थे. इसी तरह नई दुनिया वाले भी बहुत पैसे वाले लोग नहीं थे. साधारण से तीन-चार दोस्तों ने मिलकर काम शुरू किया. आज यह एक बड़े मीडिया हाउस बनकर खड़ा हो गया है. ऐसे बहुत से लोग रहे है, जिन्होंने उस समय बहुत कम संसाधनों में अखबार निकालने का काम शुरू किया. खुद मेहनत की. आज वो बड़े मीडिया हाउस में बदल गए हैं. कुछ नहीं भी बदले.
याद करता हूं कि एक जमाने में देशबंधु ने जो ग्रामीण पत्रकारिता की वह राष्ट्रीय स्तर सराहनीय रही है. उसे उस जमाने में स्टेट्समैन पुरस्कार भी मिला. कम संसाधनों में इस अखबार ने अच्छा काम किया. आप आज की तारीख में कम संसाधनों से अखबार लगभग नहीं निकाल सकते, उससे पापुलर नहीं बना सकते. वैसे दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं होता. होंगे कुछ उदाहरण दुनिया में, लेकिन इसकी सीमाएं हैं. जो बड़ा संसाधन वाला है, वो आपको उठाकर मार्केट से बाहर फेंक देगा. आपका कोई स्पेस नहीं बनने नहीं दिया जायेगा. आज अपना विज्ञापन करना, कितनी स्कीम ला सकते हैं, किस तरह हॉकर्स को पटा सकते हैं, डरा सकते हैं या लुभा सकते हैं, ये सब चीजें बहुत मैटर करने लगी हैं. इसलिए आज की तारीख में संभव नहीं रहा कि आप थोड़े संसाधन से बड़े पैमाने पर कुछ कर सकें. थोड़ा बहुत कहीं पर ऐसा होगा भी, पर ज्यादातर स्थितियां ऐसी दिख रही हैं कि उसमें आप बहुत कुछ नहीं कर सकते. सब जगह मांग होती है कि औसत किस्म का अखबार निकले. आप देखेंगे कि तमाम अखबारों ने दो की जगह अब एक संपादकीय छापना शुरू कर दिया है. कई अखबार अंग्रेजी के पत्रकारों के लेख ही ज्यादा छापते हैं.
माथुर साहब के जमाने में ऐसी स्थिति नहीं थी. उस समय इस तरह की फ्रीडम थी कि हम जैसा एकदम यंग आदमी, जिसे पत्रकारिता का बहुत ज्यादा अनुभव नहीं था, अगर उनके हिसाब से ठीक-ठाक लिखते थे तो मौका था. ऐसे तमाम लोगों को मौका था. अब वह दौर जा चुका है. बाजार-मार्केट बहुत ज्यादा हावी है पूरे मीडिया पर, जितना पहले कभी नहीं था. उदाहरण के तौर पर, आप कोलगेट या ऐसी किसी बड़ी कंपनी के खिलाफ कुछ भी नहीं लिख सकते, अगर उसने कुछ गड़बड़ किया है तो भी. या किसी भी बड़े विज्ञापनदाता के खिलाफ आप कुछ नहीं कर सकते. आज ना सिर्फ नेता या राजनीतिक तंत्र का मीडिया पर दबाव है बल्कि पैसे का दबाव भी बहुत ज्यादा है. जो पैसे व ताकत वाले लोग हैं, उनको हमेशा प्रमुखता देनी है. जो असफल लोग हैं या उतने सफल नहीं है या जमीनी लड़ाइयां लड़ रहे है, उनको आपको महत्व नहीं देना है, यह भी लगभग एक तरह से तय हो चुका है. नर्मदा बचाओ वाली मेधा पाटकर कोई आंदोलन कर रही हैं तो उसका कोई महत्व नहीं है या है भी तो किनारे का महत्व है. हिन्दी में तो फिर भी थोड़ा बहुत सेफ है, अंग्रेजी अखबार ने इनको बाहर कर दिया है.
मैं टाइम्स ऑफ इंडिया की तारीफ कर रहा था. ये ऐसा अखबार है जो तमाम सीमाओं के बावजूद आजकल कुछ अच्छा काम कर रहा है. 'इंडियन एक्सप्रेस' और 'हिन्दू' तमाम गंभीर सवाल भी उठाते हैं. इंडियन एक्सप्रेस और टाइम्स ऑफ इंडिया आर्थिक उदारवाद के पक्षधर हैं, जो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है और जिसका मैं पैरोकार नहीं हूं. इसके बावजूद ये कई सवाल व मसलों को उठाते हैं, जो जरूरी है जबकि हिन्दी अखबार और हिन्दी मीडिया में इसकी तुलना में भी इसकी तुलना में भी आमतौर पर आम लोगों की आवाज खत्म होती जा रही है. यह तो संभव है कि एनडीटीवी उड़ीसा के आदिवासियों की दुर्दशा या उनके संघर्ष के बारे में कोई डाक्यूमेंटरी दिखा रहा हो, रिपोर्ट दिखा रहा हो, आप उसी समय दूसरा हिन्दी न्यूज चैनल खोलेंगे तो वहां नाच-गाना चल रहा होगा. हिन्दी के साधारण लोगों से हिन्दी के न्यूज चैनलों का कोई संबंध नहीं है. एक प्रोग्राम आता था, लिफ्ट करा दो, अगर कोई सेलिब्रिटी किसी गरीब की मदद कर रहा है तो उसका महत्व है, लेकिन साधारण आदमी की समस्या का कोई महत्व नहीं है.
आम लोग और उनकी परेशानियां तो हिन्दी से बिल्कुल निष्काषित होती जा रही हैं. कहने को ढेर सारे अखबार हैं. पर गरीब की बात कौन कर रहा. अब मैं देखता हूं कि हिन्दी के अखबारों में गरीबों के खिलाफ तमाम खबरें छपती हैं. रिक्शा वालों के खिलाफ छपती रहती है, रिक्शा वाले कैसे अपने फेफड़े जलाते हैं, इससे कोई कंसर्न ही नहीं है. ऑटो रिक्शा वालों के खिलाफ मुहिम जैसी चलाई जाती है. ये जो चीजें है चिंतित और परेशान करने वाली हैं. पर ये भी है कि उसमें से मेरे जैसे आदमी के लिए, जो इन चीजों से सहमत नहीं है, वह भी उम्र के साठ साल तक इसमें बना रहा और आगे भी कुछ न कुछ करता रहेगा. मेरे जैसे और भी काफी लोग हैं. नई दुनिया में दो सालों के दौरान मैंने जो भी चाहा लिखा.
-हिन्दी की ब्लागिंग के बारे में क्या सोचना है आपका?
--इस मीडिया में चाहे ब्लॉग हो, पोर्टल हो या वेबसाइट हो. इन्होंने बहुत बड़ा स्पेस तो खोला ही है. सैद्धांतिक रूप से तो यह बहुत बड़ी चीज है. मैं कहना चाहता हूं, हो सकता है किसी के पास ठीक भाषा न हो, किसी के पास इसे कहने की ठीक-ठीक तमीज न हो कि उसे क्या और किस तरह कहना चाहिए और क्या और किस तरह नहीं कहना चाहिए, लेकिन फिर भी उसके पास पचासों ऐसी बातें हैं, जो वह कहना चाहता है, तो आज वह कह सकता है. हो सकता है कि ब्लॉग पर बहुत ज्यादा लोग उसकी बातों में साझेदारी न करें, लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि बहुत सी बातों को बहुत से लोग शेयर भी करना चाहते हों. इस माध्यम में बड़ा भारी इनवेस्टमेंट नहीं है, थोड़ा तकनीक का ज्ञान होना चाहिए. तकनीक का भी बहुत ज्यादा ज्ञान नहीं बल्िक आप टाइपिंग जानते हैं तो यह बहुत मुश्किल नहीं है. यह सैद्धांतिक और व्यवहारिक रूप से बढि़या है.
अंग्रेजी ब्लॉग
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