Friday, May 29, 2009

धाकड़ पत्रकार, हंसमुख इनसान और मस्तमौला थे उदयन जी


एक दिन की बात है (सन और तारीख अब याद नहीं) कलकत्ता स्थित आनंद बाजार पत्रिका के भवन में हम आनंद बाजार प्रकाशन समूह के चर्चित हिंदी साप्ताहिक `रविवार' के कार्यालय में कार्य कर रहे थे कि तभी हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह (एसपी के नाम से परिचितों में जो ख्यात थे) एक हट्टे-कट्टे औसत कद के व्यक्ति के साथ कार्यालय में दाखिल हुए। उस व्यक्ति की हंसती आंखें और चेहरे पर घनी-काली रौबीली दाढ़ी उसे भीड़ में अलग साबित कर रही थी। उनकी भावभरी प्यारी हंसी लिए आंखें बरबस सबका ध्यान उनकी ओर खींच रही थीं। वे हलके नीले रंग की जीन पैंट और एक सफेद नीली धारी वाली कमीज पहने हुए थे। गेंहुआं रंग अच्छी कद-काठी और प्रभावी व्यक्तित्व। हम सबको आगंतुक से अपरिचय का भाव ज्यादा सताने लगे इससे पहले एसपी ने मुसकराते हुए कहा-`अरे भाई ये उदयन शर्मा हैं। अपने दिल्ली के विशेष संवाददाता।' हम रविवार में काम करने वाले सभी उदयन जी के नाम से तो परिचित थे और पत्रिका के आखिरी पेज में उनका साप्ताहिक कालम `कुतुबनामा' (दिल्ली की डायरी) चाव से पढ़ते थे। इसके अलावा उनकी राजनीतिक रिपोर्ट भी हम पढ़ते थे और उनके लिख्खाड़पन के कायल थे। नाम से तो वाकिफ थे लेकिन साक्षात परिचय एसपी दा ने कराया। उदयन जी ने सबसे बड़ी आत्मीयता से हाथ मिलाया और उनकी मुसकराती आंखें और चमकने लगीं। आत्मीयता का पवित्र रंग जो उनमें उतर आया था।
परिचय हुआ। और ज्यों ही वे हमारे संपादकीय के एक साथी (नाम लेना उचित नहीं समझता) से मिले एसपी ने परिचय कराया-`तुम्हारी लिखी कापी का पोस्टमार्टम यही करते हैं। ' इस पर उदयन जी ने मुस्कराते हुए कहा-`.....जी! आप मेरी कापी में कुछ तो मेरा रहने दिया कीजिए। थोड़ी-बहुत हिंदी तो शायद मैं जानता ही हूं। मेरे लिखे में कहीं तो उदयन शर्मा भी रहे। आप जानते हैं हर व्यक्ति की लेखन शैली उसकी पहचान होती है।' जाहिर है हमारे वे सहयोगी झेंप गये। यह हमारी उदयन जी से पहली मुलाकात थी। वे दिल्ली वापस लौट गये और एसपी दा के नेतृत्व में रविवार यथावत निकलता रहा। उदयन जी दिल्ली से धमाकेदार रिपोर्ट भेजते रहे। यहां मैं यह बताता चलूं कि राजनीतिक रिपोर्ट की तो मैं नहीं कह सकता लेकिन डाकुओं पर लिखी उनकी एक रिपोर्ट से ही मैं उनके अच्छे लेखन का कायल हो गया था। उनकी यह रिपोर्ट `बाह, बटेश्वर. बागी' शीर्षक से साप्ताहिक `धर्मयुग' में आमुख कथा के रूप में छपी थी। बहुत ही बेहतर ढंग से लिखी गयी रिपोर्ट थी। उनसे मुलाकात में मैंने इस रिपोर्ट की तारीफ की तो उदयन जी ने कहा था- `भैया, वह तो बहुत पुरानी रिपोर्ट है,तुम्हें अब तक याद है।' मेरा जवाब था-`हां, क्योंकि मैं बांदा का हूं और बुदेलखंड चंबल से जुड़ा है इसलिए हमारे यहां भी स्थितियां आपकी उस रिपोर्ट जैसी हैं। इसलिए वह हमें हमारे यहां की रिपोर्ट लगी।'
उदयन जी दिल्ली से रविवार के लिए लिखते रहे और विशेष संवाददाता के रूप में कार्य करते रहे। इस बीच एसपी दा ने आनंदबाजार प्रबंधन से रविवार के पृष्ठ बढ़ाने और कुछ अतिरिक्त रंगीन पृष्ठ जोड़ने का आग्रह किया जो किसी कारण से उस वक्त नहीं माना गया। दिन, माह , साल बीते और एसपी सिंह जी को नवभारत टाइम से आफर मिला और वे वहां जाने की तैयारी करने लगे। जिस रविवार को उन्होंने इतनी निष्ठा-श्रद्धा से आगे बढाया और लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचाया, उसे वे योग्य हाथों में सौंप कर ही जाना चाहते थे। उस वक्त उदयन से योग्य और श्रेष्ठ व्यक्ति उन्हें शायद कोई और नहीं दिख रहा था। इसके पीछे कई वजह थीं जिनमें एक थी दिल्ली के सत्ता गलियारे में उनकी अच्छी पैठ और रसूख। इसी के चलते उनको रविवार की बागडोर सौंपने में एसपी को कोई हिचक या दुविधा नहीं हुई।
रविवार के संपादक के रूप में उनकी ताजपोशी भी कुछ अजीब तरीके से हुई। एक दिन कार्यालय से शाम को अपने कोलकाता के पाम एवेन्यू स्थित फ्लैट वापस लौटते समय एसपी दा ने रविवार के सभी लोगों से कहा-`आज आइए ना, मेरे घर में सभी साथ में चाय पीते हैं।' अपने संपादक की ओर से ऐसा आमंत्रण हमें पहले कभी नहीं मिला था। हम वहां पहुंच गये। वहां उदयन शर्मा को पहले से मौजूद पाकर हम लोग चौंके। सोचा उदयन जी आये हैं ऐसा एसपी ने हमें बताया क्यों नहीं। खैर, चाय और गपशप का दौर चलता रहा। रात जब गहराने लगी और हम सब घर वापस लौटने को आतुर होने लगे तो एसपी ने सबको सूचित किया-`भाई अबसे उदयन आपके बॉस हैं। यही रविवार संभालेंगे और मैं नवभारत टाइम्स जा रहा हूं।' हम एक साथ कभी खुशी कभी गम की स्थिति में थे। खुशी इस बात की कि हमारी पत्रिका अनाथ न होकर योग्य हाथों में जा रही है और दुख इस बात का कि एसपी सिंह जिन्होंने रविवार को प्रतिष्ठा के शिखर तक पहुचाया, शाश्वत, सशक्त पत्रकारिता की अलख जगायी उनका सानिंध्य हमें अब नहीं मिलेगा।
यह 1985 की बात है। उदयन जी रविवार के संपादक बन कर कलकत्ता आये। उन्हें कंपनी ने अलीपुर में रहने को एक घर दिया। उनके आने के कुछ दिन बाद ही रविवार के पेज बढ़ा कर 60 कर दिये गये और उसमें कई रंगीन पृष्ठ भी जोड़ दिये गये। नये कलेवर में इस रविवार के आने के मौके पर उदयन जी के अलीपुर स्थित मकान में ही शानदार पार्टी हुई। इसमें उस वक्त के कई जाने-माने राजनेता भी शामिल हुए जिनमें मैं इस वक्त सिर्फ नारायणदत्त तिवारी जी भर का नाम याद कर पा रहा हूं।
कुछ दिन में ही हम लोग उदयन जी से पूरी तरह से हिलमिल गये। एसपी सिंह में और उदयन शर्मा में हमने एक अंतर पाया। एसपी कुछ अंतर्मुखी थे लेकिन उदयन एकदम अलग। वे स्टाफ से हरदम हंसी-ठिठोली करते हुए काम करते रहते। आमुख कथा लिखना हो तो अपना चैंबर बंद कर लेते। एक घंटे तक किसी के भी वहां प्रवेश पर निषेध रहता और एक घंटे बाद वे निकलते तो हाथ में होती कंप्लीट आमुख कथा। उदयन जी आमुख कथा लिखने के अलावा एक और समय चैंबर का दरवाजा बंद करते थे जब वे बंगाल का मीठा दही खाते थे। एक बार पूछा-`भैया दही खाते समय चैंबर बंद करने का क्या कारण है?' पंडित जी ने जवाब दिया-`यार पंडित (वे मुझे राजेश के बजाय इसी संबोधन से पुकारते थे) मैं आधा किलो दही खा रहा हूं, कोई यह देख लेगा तो नजर नहीं लगा देगा।' वाकई उनके तर्क में दम था।
पहले ही बता चुका हूं कि डाकुओं की रिपोर्ट पंड़ित जी बहुत ही अच्छी लिखते थे। जब फूलन देवी पर स्टोरी करने की बात आयी तो पंडित जी ही रविवार के लिए स्टोरी करने गये। लौट कर आये तो सारी कहानी बयान की कि फूलन का पता लगाने के लिए उनको और साथी पत्रकार कल्याण (शायद उनकी उपाधि चटर्जी है) को किस तरह रात-दिन बीहड़ों की खाक छाननी पड़ी। आखिरकार फूलन से भेंट हुई और उसका इंटरव्यू लेने में पंडित जी कामयाब हुए। फूलन ने एक शर्त रखी थी कि किसी भी तरह से वे अपनी फोटो नहीं उतारने देंगी। अब मुश्किल यह थी कि रविवार के पास फूलन देवी का इंटरव्यू था लेकिन फोटो नहीं थी। एक जीवित व्यक्ति का एब्सट्रेक्ट चित्र तो दिया नहीं जा सकता था। पंड़ित जी ने आइडिया लगाया। वे फूलन के गांव भी गये थे और फूलन की बहन की तस्वीर भी ले आये थे। तय किया गया कि स्टोरी तो फूलन की होगी लेकिन आमुख में फूलन की बहन की तसवीर के आधार पर डाकू वेष में फूलन होगी। वही हुआ भी। बाद में पंडित जी ने ही बताया था कि फूलन तक जब रविवार पहुंचा तो वह अपनी कहानी के साथ अपने रूप में अपनी बहन की तस्वीर पत्रिका के कवर में देख बहुत हंसी।
उनसे जुड़ी यादें बहुत हैं। काफी दिनों बाद पता चला कि अधिक पीने के चलते उनको लीवर की कुछ तकलीफ हो गयी है। डाक्टर ने उनको लिव 52 प्रेस्क्राइव था। हम लोग देखते थे कि वे लिव 52 तो लेते थे लेकिन अपनी पीने की आदत नहीं छोड़ पाये। एक दिन पूछ लिया-` क्या भैया , डाक्टर ने मना किया है अब तो छोड़ दीजिए। यह क्या लिव 52 भी और बोतल भी?' वे हंसते हुए बोले-` अरे पंडित, लिव 52 लेकर मैंने डाक्टर का कहा मान लिया लेकिन दिल की बात भी तो माननी होगी। यह जो चाहता है, वह भी करता हूं।'
रविवार में कुछ साल तक उनके सानिंध्य में आत्मीयता काफी बढती गयी। उनकी ससुराल गौरिहार (मध्यप्रदेश की एक पुरानी रियासत ) थी यह पता मुझे गौरिहार के उस लड़के से चला जो उनकी पत्नी के साथ कलकत्ता आया था और उनके घर में काम करता था। वह कभी-कभार दफ्तर आता था। एक दिन बात-बात में पता चला कि वह गौरिहार का है। मैंने कहा गौरिहार तो मेरा ननिहाल है। मेरे मामा पाठक थे मैंने जब उनका नाम बताया तो वह लड़का बोला-`अरे ये तो हमारी भाभी जी ( श्रीमती उदयन शर्मा) के रिश्तेदार हैं।' उसने यह बात घर में कह दी। उदयन जी की श्रीमती ने यह बात उनसे बतायी तो वे कार्यालय आकर मुझसे मिलते ही बोले-`अरे पंडित! तुम तो मेरे रिश्तेदार निकले।'
पंडित जी कलकत्ता का पानी नहीं पीते थे। वे कहते थे-` यहां का पानी पीकर बीमार होना है क्या। मैं तो मिनरल वाटर, कोल्ड ड्रिंक या अपना ब्रांड पीता हूं।' आत्मीयता इतनी की अपने सहयोगियों से हमेशा बेतकल्लुफी से मिलते। मैं दफ्तर जाते वक्त घर से लंच बाक्स साथ ले जाता था। उदयन जी अपने चैंबर से निकलते और अगर मुझे भिंडी की सब्जी के साथ रोटी खाते देख लेते तो बगल की सीट पर बैठ कर कहते-`पंडित एक रोटी दे। जानता नहीं भिंडी मेरी कमजोरी है। मैं छोड़ ही नहीं सकता।' मेरे बाक्स से रोटी और भिंडी की सब्जी ले खाने लगते। खाने के बाद बोलते-`पंडित, कहीं भूखे तो नहीं रह जाओगे।कुछ मिठाई वगैरह मंगाये देता हूं।' मैं उन्हें मना कर देता की जरूरत नहीं है।
उनसे जुड़ी यादें तो बहुत हैं लेकिन कितना लिखूं क्या लिखूं। एक प्रसंग उस वक्त का जब वे रविवार छोड़ कर अंबानी के साप्ताहिक अखबार संडे आब्जर्बर में जा रहे थे। वे मुझे अपने साथ ले जाना चाहते थे। उन्होंने पहले यह बात मुझसे कही। मैंने कहा कि मैं अपने बड़े भाई साहब का आदेश लिये बगैर कलकत्ता नहीं छोड़ सकता क्योंकि उनकी देखभाल करने के लिए यहां रुकना जरूरी है। जब पंडित जी से मेरी बात हो रही थी तभी रविवार के ही हमारे एक वरिष्ठ सहयोगी (जो एक अखबार निकालने वाले थे) ने पंडित जी से कहा कि वे मुझे अपने साथ ले जाना चाहते हैं। पंडित जी ने बेमन से वह प्रस्ताव मान लिया। कुछ अरसा बाद वे दिल्ली से फिर किसी काम से लौटे तो उन्होंने मेरे भाई साहब को रविवार के दफ्तर बुलाया और उनसे कहा कि वे मुझे अपने साथ दिल्ली संडे आब्जर्बर में ले जाना चाहते हैं। भाई साहब ने टालने के लिए कह दिया कि अभी पितृपक्ष चल रहा है अभी कोई नया निर्णय नहीं लेंगे। इस पर उदयन जी बोले-`जानता हूं भाई से बहुत प्यार करते हैं। इतने दिन आपने इसे पाला अब मुझे गोद दे दीजिए, मेरा कोई छोटा भाई नहीं है। मैं इसे दिल्ली ले जाना चाहता हूं। ' अब मेरी बारी थी। मैंने कहा कि मैंने इस्तीफा लिखना नहीं जानता क्या लिखते हैं , कैसे लिखते हैं। इस पर उन्होंने अपने पास से एक एलो स्लिप निकाली और उस पर लिख दिया कि इस्तीफा किस तरह से लिखना होता है। मुझसे कहा कि मैं उसे अपनी राइटिंग में लिख लाऊं। वह एलो स्लिप अब तक मेरे पास स्मृति चिह्न के रूप में सुरक्षित है। मैं उनके साथ दिल्ली नहीं जा पाया शायद यह मेरी तकदीर में नहीं था। बाद में एक बार मेरठ जाने के रास्ते दिल्ली गये तो पंडित जी से संडे आब्जर्बर के कार्यालय में मिले। मेरे साथ मेरे बड़े भाई साहब भी थे। पंडित जी मुस्कराते हुए बोले-`पंडित , यहां तक आ गये तो अब लौटने की जरूरत नहीं । मेरी कुर्सी छोड़ जिसमें चाहो , भाई साहब को वापस जाने दो।' मैं उनका यह आदेश भी स्वीकार नहीं कर पाया। वो कहते हैं न कि-कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता। मुमकिन है मेरे हिस्से में दिल्ली का दाना-पानी नहीं था। मैं अपनी इन स्मृतियों को उस महान आत्मा को समर्पित करता हूं और उन्हें बारंबार नमन करता हूं। पंडित जी जैसे व्यक्तित्व धरती पर आते हैं, लोगों को गम में दुखी होते हैं, खुशी में मुस्कराते हैं और जाते हैं तो दे जाते हैं अपनी स्मृतियों की वह धरोहर जिससे वे युगों युगों तक हर एक दिल में बसे रहते हैं। -राजेश त्रिपाठी (bhadas4media.com से साभार)

Comments

Popular posts from this blog

एस पी की याद में

Surendra Pratap Singh

एसपी सिंह के बाद की टीवी पत्रकारिता