Sunday, April 26, 2015

उदयन चले गए, प्रभाष जोशी और एसपी सिंह भी चले गए, अब तो सहाफत की दुनिया में बस आप है और मैं हूँ

June 17, 2012 | Filed underचौथा खम्भा | Posted by 
अपने ही आईने में
अजय एन झा
अपने जीवन के करीब २७ साल पत्रकारिता को समर्पित करने के बाद जब पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो लगता है कि क्या इससे कोई और पेशा बेहतर हो सकता था?  आज कल जब अपने पेशे की नयी उम्र की नयी फसल को देखता हूँ तो  कभी कभार शक होने लगता है कि वाकई क्या हम लोगों  की कलम में इतनी ताक़त थी !!  एक – एक रिपोर्ट पर सरकार बंगले झांकने लगती थी और पूरे महकमे में हडकंप मच जाता था. जब कभी सत्ता के गलियारे में पैर पड़ते थे और कोई सरकारी अधिकारी  मिल जाता था तो एक ही सवाल करता था “क्यों भाई, आज किसकी शामत आने वाली है? भले ही हम लोगों के पास चमचमाती कार या फिर बड़े बंगले नहीं होते थे लेकिन पेशे की ईमानदारी और ज़मीर के बात में एक लफ्ज़ कहने की किसी माई के लाल में हिम्मत नहीं होती थी चाहे वो होई भी बड़ा नेता ही क्यों न हो.
आज के दौर में बहुत कुछ बदला है. सहाफत  एक नामचीन पेशा नहीं बल्कि एक धंधा बन कर रह गयी  है. नुक्ताचीनो की फौज पूरे शबाब पर है. किसी भी सहकर्मी से मूल्यों की बात करें और ख़बरों को दोबारा जांच- परखने और ख़बरों के पीछे की खबर को समझने की बात कीजिये तो वो ऐसे देखता है जैसे वो आपको या तो निरा पागल समझ रहा हो या फिर गोबर का लबदा  या तो आपको लपूझन्ना कहता है या फिर पुरानी लीक का मसीहा.
शहरे-बेश्वूर दिल्ली की तो बात ही निराली है. यहाँ सहाफत कब की स्वर्ग सिधार चुकी, पूरा मामला खेल और जुगाड़ का है. जो इसके गुर सीख गया वही पत्रकार है और बाकी पत्रों के आड़े तिरछे आकर हैं. पत्रकार वो है जो हर जगह दीखता है, हर विषय पर बोलता है और हर महफ़िल और मुशायरे से लेकर हर मंत्री और संत्री की जेब और पतलून में घुसा रहता है. पत्रकार वो है जो अपने चैनल  के प्राइम  टाइम में  धाराप्रवाह बेझिझक और बेशर्मी से बकवास करने में माहिर होता है. जनता उसे ही प्रजातंत्र का दरोगा मान लेती है. अगर उसने  कह दिया की राष्ट्रपति ने मुख्य चुनाव आयुक्त का चुनाव कर लिया तो यही सच है. अब जनता इसके लिए संविधान थोड़े ही पढने जाएगी जहाँ लिखा है कि राष्ट्रपति मुख्य चुनाव आयुक्त तो नियुक्त करते है, चुनाव नहीं. फलाने पत्रकार ने कह दिया सो कह दिया, अब आप क्यों सर कडाही में दिए लकड़ी में माचिस की तिल्ली का इंतज़ार कर रहे है? आज की सहाफत का सच और सरमाया यही है.
जो इस फन में पिछड़ गए उनको बाकी लोग, नामाकूल , मक्कार, नातवा. नासमझ और पता नहीं क्या-क्या मान लेते हैं. कल शाम को एक पान -गुटका की दूकान पर अचानक दो पत्रकार मिल गए. दोनों बड़े ही नामचीन थे. एक ने पान पराग का डिब्बा खीस में दबाते हुए  कहा “अरे जनाब, उदयन चले गए, प्रभाष जोशी  और एसपी सिंह भी चले गए, अब तो सहाफत की दुनिया में बस आप है और मैं हूँ ” दूसरे को ये भी गंवारा न हुआ, उसने भक से गुटका की बौछार निकालते हुए कहा”अमां आप भी क्या है ?’
तो  ये था एक नज़ारा हमारे सहाफी भाइयों की कैफियत और हरकत का. हमारे मुल्क में सरकारी आंकड़ो की माने तो अब तक  कुल मिलकर ८३७ चैनलों को अपनी दूकान चलाने का फरमान जारी किया गया है और तकरीबन १८९ और नए चैनलों के लाइसेंस की अर्जी पड़ी हुई है. अगले चार महीने में वो भी दे दी जायेगी. मगर गुज़िश्ता चार=पाच साल में एक नयी फौज सहाफत ने नाम पर जो बाज़ार में आई है उसने सफाहत पेशे को बहुत ही शर्मसार कर दिया है. वैसे कुछ साल पहले ही ये धंधा बन गया था. अब और नापाक और गन्दा बन गया है.
पहले किसी चैनल या अखबार का सम्पादक का नाम ही काफी होता था. लोग उसको बड़े चाव से पढ़ते थे कि उसने क्या कहा या लिखा. स्वर्गीय सुरेन्द्र प्रताप सिंह  उदयन शर्मा या फिर प्रभाष जोशी के शाद और विचार क्या हैं, इस पर गुफ्तगू और तप्सरा-तजकर किया जात था. आज कल इसका मैयार थोड़ा मुख्तलिफ हो गया है. अब खबर को सेंक, पकाकर, उसमें ब्रेकिंग न्यूज़ की चाशनी और लाइव का फ़ौरन दाल कर पेश करने की अदा पर सब कुछ होता है या फिर उसको मैनेज और सही वक़त और बैंड में बेचने की कवायद ही एक सहाफी के सही किरदार का आइना होता है. उसका आप की बुद्धि-विवेक, लिखाई -पढाई से थोडा कम वास्ता होता है. और आज तो सम्पादक महज एक सह-पादक बनकर रह गया है क्यों कि न तो उसके पास अपने मालिक को सच कहने की हिम्मत है और न ही खबरों से रगबत है. चैनल या अखबार आज सम्पादक नहीं बल्कि वहां का मार्केटिंग हेड चलता है.
तीन दिन पहले, जब एक वरिष्ठ पत्रकार द्वारा किसी खास खबर छपने के बावत मार्केटिंग हेड की प्रतिक्रिया ‘हम धंधा करने बैठे हैं अगरबत्ती जलाने नहीं’… पढ़ने को मिला तो मन वाकई विचिलत हो गया। मैं यही सोचता रहा कि क्या पत्रकारिता जैसा पेशा अब वाकई महज एक धंधा बनकर रह गया है? क्या पत्रकारिता इतनी ओछी चीज हो गई जिसे कोई भी मार्केटिंग का मकड़ा भी अपने जाल में पत्रकारों की पूरी फौज को ग्रसित कर ले और उस पर से उन्हें नसीहत भी दे? क्या एक पत्रकार की हैसियत धंधा करने वाले की सी हो गई है? क्या प्रजातंत्र का चौथा खंभा कहलाने वाला पेशा अब इस हालत में आ पहुंचा कि जो चाहे वही उसे आड़े हाथों ले और जो मन में वो खरी खोटी सुना दे?
हमारे समाज में धंधा शब्द ही अपने आप में कहीं न कहीं नकारात्मक दिखाई देता या लगता है और इसे सीधे कोटे वाले से जोड़ा जाता है। धंधा करने वाले से तात्पर्य ये लिया जाता है मानो इस पेशे में वही लोग शामिल होते है जिन्हें और कोई आदरणीय कार्य नहीं आता या वो इतने नाकाम या नाकारा हो चुके होते हैं कि इसके अलावा उनके पास और कोई विकल्प ही नहीं बचा हो।
इस पीढी से पूर्व पत्रकारिता को एक मिशन भी कहा जाता था क्यों कि स्वाधीनता संग्राम की अगुवाई करने से लेकर सरकारी महकमे में बैठे शीर्षस्थ महानुभावों तक को यही पत्रकार उनकी असली सूरत दिखाया करता था और पत्रकार या वकील होना फक्र की बात मानी जाती थी। आजादी की लड़ाई में शामिल कई शीर्षस्थ नेता इन्हीं दो पेशों से वास्ता रखते थे।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी एक पत्रकार थे और हरिजन नामक अखबार में उनके द्वारा लिखे गए सैकड़ों लेख आज भी हमारी पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक स्तंभ की तरह हैं. अब तक भारत में हजारों ऐसे नामचीन पत्रकार पैदा हुए हैं जिन्होंने अपनी कलम की ताकत और अपने पाठकों की प्रतिक्रिया से प्रेरित हो कर समाज के हर एक पहलू को नजदीकी से देखा हर कुरीति और बुराई से लोहा लिया और अंधेरे में भी अलख जगाए रखा। मगर समाज को सही दिशा दिखाने वाला पेशा और सच कहने और दिखाने की हिम्मत और हौसला रखने वाले पत्रकारों की टोली को यदि धंधा करने वाले गिरोह के ध्वजवाहक की संज्ञा दी गई तो इसके लिए पत्रकार समाज का एक तबका भी जिम्मेवार है.
अखबार को समाज का आईना कहने वाले अस्त्र को अगर व्यापार का जरिया बना दिया गया तो इस अधोपतन में धन पशुओं की लालच की आग में हम पत्रकार भी तो समिधा की तरह झोंक दिए गए। …और हममें अपनी आवाज उठाने तक की हिम्मत नहीं रही।
जब संपादक और संवाददाता कलम की ताकत, अपना आत्मसम्मान और अपनी मर्यादा को भूलकर चांदी के चंद सिक्कों के लिए अपने आप को मार्केटिंग के मसीहाओं के सामने नतमस्तक करने लगे तो जाहिर है कि अर्थ का अनर्थ होगा और सरस्वती के हंस की जगह लक्ष्मी का उल्लू सर चढ़कर बोलेगा।
दुर्भाग्य ये है कि हर दिन खबर का अंबार और सामाजिक सच के समंदर का सामना करने वाले सहाफियों ने सच को छिपाना और झूठ पर सच का मुहर लगाना भी कबूल कर लिया। खबरिया चैनलों पर तो नाटकीय और राई को पहाड़ बनाने का लांछन पहले से ही लगना शुरू हो गया था मगर महाराष्ट्र में पिछले विधानसभा चुनाव से उपजी कई नई सेलफोन कंपनी की प्रीपेड सिम कार्ड की तरह खबरों कि खुरकी ने पत्रकारों की अस्मत और ईमानदारी में खाक डाल दिया और कई नामचीन और जुझारू पत्रकारों की सच से लवरेज और विश्वसनीय रिपोर्ट पर भी संदेह का झाड़ू फेर दिया। जाहिर है एक ही झटके में पत्रकारिता जैसे सबसे पुराने पेशे की सारी सीमाएं और मर्यादाएं तोड़ दी गईं और पत्रकारों को जैसे सड़क पर बिखरे पत्थरों के आड़े तिरछे आकार की तरह पेश किया गया।
इस प्रकरण ने अचानक अखबारों में छपी खबरों की विश्वसनीयता पर कई सवाल जड़ दिए और सूचना क्रांति के दौर में मीडिया की चाल, चरित्र, चोला और उसकी मजबूरियों का भी पर्दाफाश कर दिया। नतीजा ये हुआ कि इस मिलावट के दौर में एक आम आदमी अखबारों में परोसी गई हर खट्टी मीठी खबर को भी शक की निगाह से देखने लगा है। लेकिन हमारे सहाफी समाज में अब भी इतनी हिम्मत नहीं बची कि वो अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी कर मार्केटिंग के महानुभावों को सीधे ये कहें कि तुम हमारे ही द्वारा लिखी गई कहानियों को सेंकते और तलते हो, उस पर से  विज्ञापन का तेल मलते हो, हर साल हजारों करोड़ों का कारोबार करते हो, लाखों रुपये का इन्सेटिव डकारते हो फिर भी हमारे साथ सुदामा जैसा ही सलूक करते हो?
पत्रकारों की फौज को ये भी सोचना और बेखौफ कहना चाहिए कि अगर उनकी उपयोगिता नहीं है तो प्रबंध संपादक और विज्ञापन के विदुषी ही सारी कहानियां लिख लें और अपने बूते पर अखबार या चैनल चला लें।
मगर उससे भी बड़ा सवाल ये है कि अगर पत्रकारिता वाकई महज व्यापार बन कर रह गया है तो सरकार और समाज दोनों उसे उसी नजरिए से देखें। इस व्यापार को भी उन्हीं बंदिशो और विशेषताओं के गलियारों से गुजरना चाहिए जो और उद्योगों के लिए लागू होते हैं। इस व्यापार को भी उन्हीं सख्तियों और सहुलियतों के दायरे में रहना चाहिए जैसा अन्य उद्योगों के साथ होता है।
फिर ऐसे में समाज को सही रास्ता दिखाने या समाज का सही चेहरा या आईना बनने की दलील क्यों?
अगर ये व्यापार है तो समाजसुधारक या दिशा निर्देशक बनने का ढोंग क्यों?
अगर पत्रकारिता वाकई धंधा बन गया है तो फिर इसमें शामिल कलम के सिपाही से लेकर सेनापति तक को सरकारी सुविधाओं का मजा क्यों ?
फिर वो अपने ही वसूलों की चादर से अपना बदन ढकें और अपने ही पैरों पर गिरे।
दरअसल हमारी पत्रकार विरादरी को अब विरोधाभास में जीने की आदत हो गई है
जो लक्ष्मी जी के उल्लू के समाने सरस्वती को समर्पित करने पर मजबूर होने का रोना तो रोते हैं लेकिन अपने सम्मान की लड़ाई लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं।
मार्केटिंग के मकड़ों की फौज के सामने घुटने टेकने का दंश उन्हें अंदर से हर दम सालता रहता है लेकिन वो ये मानने को तैयार नहीं कि इस शरीक-ए- जुर्म में वो भी मीर जाफर से कहीं कम नहीं। अगर वो अपनी जमीन पे कायम रहते तो आज के हालात काफी अलग रहे होते।
इसका सबसे त्रासदी पूर्ण नजारा पिछले हफ्ते भोपाल यात्रा के दौरान देखने को मिला। एक पत्रकार द्वारा लिखे गए लेख के बारे में पूछने पर उसका तेवर वाणासुर से कहीं कम नहीं था और उसकी धमकी तथा उसके द्वारा बोले गए वाक्यों को सुनने के बाद लगा कि शायद पत्रकारिता के सच को उजागर करने वाला दूसरा ध्वज वाहक पूरे देश में कहीं नहीं होगा। मगर उसके बाद उसके मालिक द्वारा शाम को शालीनता की हद पार कर जाने वाली गालियों के बीच उसकी मेमने की तरह मिमियाने की बात सुनी तो फिर मुकेश द्वारा गाए गए उस गाने की लाइन याद आ गई कि कहता है जोकर सारा जमाना आधी हकीकत आधा फसाना।
दरअसल सहाफत पेशे की नुमाइश या यूं कहें की सहाफत का अज्म और अस्मत इस वक्त उस मुकाम पर नशीन है जहां ये समझ में नहीं आ रहा कि इसकी जलालत झेली जाए या इसकी वकालत की जाए।
होई गति सांप छुछुदर केरी वाली स्थिति में होता यूं है जैसे कोई गरडिया अपनी बांसुरी कि तान के बूते पर भेंड़ों को इकट्ठा तो कर लेtaa है मगर उसमें चारागाहों की मल्कियत बदलने का खौलता लावा पैदा करने की हिम्मत नहीं होती।
उसकी स्थिति ऐसी  होती है जैसे दिन भर गधे की तरह काम करने के बाद और बीस रुपये दिहाड़ी मिलने के बाद कोई रात को लंबी लाइन में खड़े हो कर दस रुपये का सिनेमा टिकट खरीदता है और फिर ढाई घंटे तक मायाबी रजतपटल पर दिखाए जा रहे तमाशे में खो जाता है।
सिनेमा घर से अपने घर तक के फसला तय करने के बीच वो उन्हीं कल्पनाओं के समंदर में सौ बार गोते लगा चुका होता है मगर घर में कदम रखते ही उसके ख्वाबों का तिलिस्म जिंदगी की नंगी हकीकत के सामने टूट जाता है… और वो फिर एक बार उसी टूटी चारपाई पर मैले कुचैले और फटे पुराने चादर में अपना मुंह छुपाकर सो जाता है मानो रात गई बात गई।
मौजूदा पत्रकारिता की सूरते हाल का यही हकीकत और सरमाया है. मगर इस अपराध में हम पत्रकार लोग भी उतने की शरीके-जुर्म हैं जितने कि मालिकान. मगर न ही हम में सच कहने का दम है और नहीं झेलने का. अंजाम ये कि:-
घोड़े को नहीं मिलती है है घास

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