एसपी सिंह के बहाने एक सवाल
एसपी सिंह की पुण्यतिथि पर जनतंत्र की अपील पर एक साथी ने चिट्ठी भेजी है। उन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूं। वो किसी ऐसे ओहदे पर नहीं हैं जहां से कोई परिवर्तन ला सकें। ज़िंदगी संघर्ष करते ही गुजर रही है। लेकिन मैं ये भी जानता हूं कि हममें से ज़्यादातर लोगों की तरह वो भी समझौतावादी पत्रकारिता से आहत हैं। शायद हमारी ही तरह इस पेशे में कदम रखते वक़्त उन्होंने ने भी ये नहीं सोचा होगा कि सच बोलना इतना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए उन्होंने अपने ख़त में एसपी सिंह से जुड़े तमाम लोगों से पूछा है कि वो बेचैनी क्यों ख़त्म हो गई जो एक आज़ाद ख़्याल व्यवस्था और शख़्स के भीतर होनी चाहिए थी? और इसके लिए ज़िम्मेदार कौन हैं? आप भी ये ख़त पढ़िये और प्रतिक्रिया दीजिए।
लेकिन यह सोचकर मन को सांत्वना मिलती है कि जिन लोगों ने एसपी से पत्रकारिता सीखी, उनके साथ रहकर काम किया, उनके सहयोगी रहे या फिर शिष्य, उन्होंने ही एसपी के व्यक्तित्व से कौन सी प्रेरणा ली? कहां रहा बेलौस होकर सच को सामने रखने का माद्दा? कहां रही पत्रकारिता को बुनियादी सवालों से जोड़ने की अकुलाहट? कहां रही पत्रकारिता की बनी-बनायी लीक को छोड़कर एक नई राह अपनाने की कोशिश? ये वो सवाल हैं, जिनका जवाब ढूंढ़ने की कोशिश ही मन को ये राहत देती है कि चलो हम नही मिले तो क्या हुआ। जो मिले, उन्होंने ही क्या कर लिया।
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